अमेरिका के अफ़ग़ानिस्तान छोड़ कर निकलने के बाद संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने एक प्रस्ताव पारित किया है जिसमें तालिबान को सीधे मान्यता तो नहीं दी गई है, पर अफ़ग़ानिस्तान पर उसके नियंत्रण को स्वीकार किया गया है और कहा जा सकता है कि तालिबान को व्यावहारिक तौर पर अफ़ग़ानिस्तान का प्रशासक मान लिया गया है।
दिलचस्प बात यह है कि भारत, ब्रिटेन और अमेरिका ने यह प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की बैठक में रखा, जिसका नौ देशों ने समर्थन किया।
दूसरी ओर, रूस और चीन ने इस प्रस्ताव की आलोचना की और मतदान के समय ग़ैरहाज़िर रहे।
क्या है प्रस्ताव में?
इस प्रस्ताव में तालिबान से स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि "अफ़ग़ानिस्तान की सरज़मीन का इस्तेमाल किसी देश के ख़िलाफ़ नहीं किया जाना चाहिए, वहां किसी आतंकवादी को शरण नहीं दी जानी चाहिए और किसी तरह का आतंकवादी प्रशिक्षण नहीं दिया जाना चाहिए।"
इस प्रस्ताव में 'तालिबान' शब्द का प्रयोग पाँच बार किया गया है, पर कहीं भी उसकी निंदा नहीं की गई है।
प्रस्ताव में अफ़ग़ानिस्तान से हर विदेशी नागरिक और इच्छुक अफ़ग़ान नागरिक के बाहर जाने की अनुमति देने से जुड़े तालिबान की प्रतिबद्धता की बात कही गई है।
प्रस्ताव में अफ़ग़ानिस्तान में मानवीय मदद करने वालों की वहाँ तक पहुँच, मानवाधिकारों की रक्षा, आतंकवाद से लड़ाई और समावेशी राजनीतिक समाधान की बात भी कही गई है।
प्रस्ताव में इन बातों पर तालिबान के खरा न उतरने की स्थिति में उसके ख़िलाफ़ किसी तरह की कार्रवाई करने की बात नहीं कही गई है।
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रूस क्यों है असहमत?
संयुक्त राष्ट्र में रूस के राजदूत वसिली नेब्नेज़िया ने प्रस्ताव की आलोचना करते हुए कहा कि 'आतंकवादी ख़तरों के बारे में साफ नहीं कहा गया है' और 'न ही अफ़ग़ानों के वहाँ से निकालने से होने वाले ब्रेन ड्रेन पर कुछ कहा गया है।'
रूसी राजदूत ने इसकी भी आलोचना की कि 'अफ़ग़ानिस्तान को मिलने वाले पैसे पर अमेरिकी रोक से जो मानवीय व आर्थिक संकट पैदा होगा', उसके बारे में भी कुछ नहीं कहा गया है।
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चीन क्यों है नाराज़?
चीनी प्रतिनिधि ने काबुल में ड्रोन हमले के लिए अमेरिका की निंदा करते हुए कहा कि इसमें निर्दोष लोग भी मारे गए हैं।
संयुक्त राष्ट्र में चीन के राजदूत जेंग शुआंग ने कहा कि 'अफ़ग़ानिस्तान की स्थिति में बुनियादी बदलाव आए हैं, ऐसे में अंतरराष्ट्रीय समुदाय को चाहिए कि वह तालिबान की मदद करे और उसे राह दिखाए।'
यह प्रस्ताव बेहद अहम इसलिए है कि इसमें यह कहा गया है कि तालिबान अफ़ग़ानिस्तान में 'अस्थायी सरकार' की तरह काम रहा है और ऐसे में उसका दायित्व है कि वह वहाँ से किसी तरह की आतंकवादी गतिविधि न होने दे।
तालिबान के नियंत्रण को माना
इससे यह साफ़ है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने तालिबान को अफ़ग़ानिस्तान की सरकार मान लिया है, भले ही औपचारिक मान्यता न दे रहा हो।
इससे यह होगा कि संयुक्त राष्ट्र के देशों को यह संकेत जाएगा कि अफ़ग़ानिस्तान के तालिबान प्रशासन के साथ विश्न समुदाय है, लिहाजा वे भी तालिबान की ओर हाथ बढ़ा सकते हैं।
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प्रस्ताव का महत्व
पर्यवेक्षकों का कहना है कि तालिबान को अफ़ग़ानिस्तान की अस्थायी सरकार मान लेने से संयुक्त राष्ट्र के जो कार्यक्रम हैं, उनका लाभ काबुल को मिल सकेगा। इसके तहत मानवीय सहायता, शरणार्थी सहायता और कई मदों में मिलने वाले पैसे भी मिलने लगेंगे।
विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष हालांकि स्वतंत्र फ़ैसले लेते हैं, पर वे भी संयुक्त राष्ट्र से जुड़े हुए हैं और उन्हें भी संकेत जाएगा कि वे अफ़ग़ानिस्तान की मदद करें। इससे इन संस्थाओं के रवैए में बदलाव आएगा और वे पैसे देने को तैयार हो सकते हैं।
रूस और चीन के मतदान के समय तटस्थ रहने की वजह यह समझी जा रही है कि वे आतंकवादी गतिविधियाँ नहीं होने देने की शर्त लगा कर तालिबान पर अंकुश लगाने के विरोध में हैं।
आतंकवाद पर लगाम
इसका मतलब यह है कि वे तालिबान के इस बयान को पर्याप्त मान रहे हैं जिसमें यह कहा गया है कि अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन का इस्तेमाल किसी देश के ख़िलाफ़ नहीं होने दिया जाएगा।
पर रूस और चीन ये भूल रहे हैं कि यह बात तालिबान के प्रवक्ता ने कही है, कल तालिबान सरकार बनने पर वह इससे मुकर सकता है और उस प्रवक्ता की निजी राय बता कर पूरे मामले से ही पल्ला झाड़ सकता है।
ऐसा होने की संभावना कम है क्योंकि खुद चीन दो महीने पहले तालिबान से कह चुका है कि शिनजियांग के उइगुर मुसलमानों को किसी तरह का समर्थन नहीं दिया जाना चाहिए और तालिबान इस पर राजी हो गया है।
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भारत की आशंका
भारत के लिए यह प्रस्ताव अहम इसलिए है कि पाकिस्तान स्थित आतंकवादी गुट जैश-ए-मुहम्मद के सरगना अज़हर मसूद के तालिबान नेता मुल्ला अब्दुल ग़नी बरादर से मिलने की खबरें हैं, जिनका खंडन तालिबान ने नहीं किया है। जैश के मुख्यालय कांधार ले जाने की खबरें भी हैं।
इसके अलावा ख़ुद तालिबान का एक बड़ा धड़ा पाकिस्तान में है और पाक खुफ़िया एजेन्सी के साथ है। सिराजुद्दीन हक्क़ानी पाकिस्तान में रहते हैं और उस हक्क़ानी नेटवर्क के हैं जिसे अगले किसी तालिबान सरकार में बड़ी हिस्सेदारी मिलनी तय है।
उनके भाई अनस हक्क़ानी अफ़ग़ानिस्तान में सरकार बनाने की प्रक्रिया चला रहे हैं और खलील हक्क़ानी पर पूरे काबुल की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी है। ये किसी समय पाकिस्तानी दबाव में आकर भारत के ख़िलाफ़ आतंकवादी गतिविधियों को मंजूरी दे सकते हैं।
चीन का खेल यह है कि वह खुद शिनजियांग के उइगुर मुसलमानों के मुद्दे पर तालिबान से समर्थन ले ले, पर जम्मू-कश्मीर के मुद्दे पर वह पाकिस्तान के साथ मिल कर भारत पर आशंका की तलवार लटकाए रखे।
तालिबान आ तो गया, मगर देश चलाएगा कैसे?
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