इज़राइल ने संयुक्त अरब अमीरात के साथ राजनयिक रिश्तों की स्थापना करने और जनता और सरकारी स्तर पर दिवपक्षीय सहयोग के कई समझौतों का एलान कर अरब कौम में एक बड़ी सेंध लगाई है। इसके पहले इज़राइल ने 1979 में मिस्र और 1994 में जोर्डान के साथ राजनयिक रिश्तों की स्थापना कर अरब दुनिया में फूट डाली थी लेकिन खाड़ी के अरब मुल्कों में संयुक्त अरब अमीरात पहला देश है जिसके साथ इज़राइल ने इस तरह का राजनयिक समझौता कर व्यावहारिक तौर पर अपने अस्तित्व को राजनयिक मान्यता मज़बूत की है। ख़ासकर तब जब अधिकतर अरब मुल्क इज़राइल के साथ रिश्ते नहीं रखना चाहते।
इस समझौते से इज़राइल के क़ब्ज़े वाले फलस्तीनी इलाक़ों को मुक्त कराने और पूर्वी यरुशलम को राजधानी बना कर स्वतंत्र फलस्तीन के लिये चलाए जा रहे आन्दोलन को एक बड़ा धक्का लगा है।
हालाँकि इज़राइल – संयुक्त अरब अमीरात के बीच हुई ऐतिहासिक संधि में स्वतंत्र फलस्तीनी राष्ट्र की स्थापना के ख़िलाफ़ प्रत्यक्ष तौर पर कुछ नहीं कहा गया है लेकिन वेस्ट बैंक यानी पश्चिमी तट के क़ब्ज़े वाले इलाक़ों को औपचारिक तौर पर अपनी पूर्ण सम्प्रभुता स्थापित करने की योजना को इज़राइल ने फ़िलहाल टाल देने पर सहमति दी है। संयुक्त अरब अमीरात कह सकता है कि इज़राइल से ऐसा वादा करवाना उसकी एक कामयाबी है लेकिन इज़राइल ने यह भी कहा है कि यह वादा हमेशा के लिये नहीं है। हालाँकि इज़राइल द्वारा इस औपचारिकता को टाल देने से पश्चिमी तट की ज़मीनी स्थिति पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि पश्चिमी तट के इलाक़ों पर उसका पहले से ही क़ब्ज़ा है और वहाँ इज़राइली बस्तियाँ बसी हुई हैं। फलस्तीनी लोग अपने भावी स्वतंत्र देश में पश्चिमी तट के इलाक़ों को एक अहम हिस्सा मानते हैं।
भारतीय राजनयिक हलकों में इज़राइल और संयुक्त अरब अमीरात के बीच हुई इस संधि का स्वागत ही किया जाएगा क्योंकि इज़राइल और संयुक्त अरब अमीरात- दोनों के साथ भारत की गहरी बनती है। फलस्तीनी मसले पर भारत ने हाल के सालों में अपनी दुविधा का त्याग किया है और इज़राइल के साथ रिश्ते मज़बूत किये हैं।
इसलिये अरब और खाड़ी मुल्कों में से एक और देश द्वारा इज़राइल के साथ राजनयिक रिश्तों की स्थापना से भारत पर फलस्तीनी आन्दोलन को अपने राष्ट्रीय हितों की क़ीमत पर समर्थन देते रहने का नैतिक दबाव कुछ कम होगा।
डोनाल्ड ट्रम्प के दामाद की भूमिका
इज़राइल – संयुक्त अरब अमीरात समझौता का श्रेय अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के दामाद और सलाहकार जेरार्ड कुशनर के पिछले कुछ महीनों से चल रहे राजनयिक बीचबचाव को जाता है। यह समझौता अमेरिका और इज़राइल के लिये न केवल राजनयिक विजय है बल्कि दोनों देशों के नेताओं को इससे घरेलू राजनीतिक लाभ भी मिलेगा। अमेरिका के लिये राहत की बात यह भी है कि इस समझौते से अरब दुनिया में ईरान का राजनीतिक अलगाव और बढ़ेगा। वास्तव में ईरान और इसके साथी हेजबुल्ला से समान तौर पर इज़राइल और संयुक्त अरब अमीरात की दुश्मनी भी मध्य पूर्व के इस ताज़ा राजनीतिक समीकरण पर मुहर लगाना एक वजह कही जा सकती है।
ईरान ने इस समझौते की निंदा कर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर कर दी है। अमेरिका का साथी सऊदी अरब भी फलस्तीनी मसले पर अब उतना मुखर नहीं रहा। इसलिये उसने भी इज़राइल और संयुक्त अरब अमीरात के समझौते पर तुरंत टिप्पणी नहीं कर यह संकेत दिया है कि उसे भी इस समझौते से परेशानी नहीं है।
देखना यह है कि संयुक्त अरब अमीरात के बाद अब अरब दुनिया में ईरान विरोधी मुल्क संयुक्त अरब अमीरात की राह पर कब से चलने लेगेंगे। पर इतना तो तय है कि इज़राइल – संयुक्त अरब अमीरात समझौता से आने वाले दिनों में अरब और खाड़ी के मुल्कों के रिश्तों में नये समीकरण बनेंगे। इज़राइल को लेकर अरब मुल्क नया नज़रिया विकसित करेंगे।
इज़राइल अपने अस्तित्व के 72 सालों के इतिहास में पड़ोसी मुल्कों के साथ टकराव या तनाव के रिश्तों के माहौल में जीता रहा है।
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