दुनिया के नक़्शे पर एक बार फिर से तालिबान का ख़तरा मँडराने लगा है। वह फिर से शक्तिशाली हो रहा है I उसे अपने आप को नये सिरे से संगठित करने का अच्छा मौक़ा मिल गया। यह उस समय हो रहा है जब दुनिया के बड़े देश अफ़ग़ानिस्तान को अपने प्रभाव में लेने के लिये सक्रिय हो रहे हैं। रूस मॉस्को में एक सम्मलेन कर रहा है। अमेरिका इस इलाक़े में बातचीत के लिए समर्थन जुटाने में लगा है। वह कैलिफ़ोर्निया में एक सम्मलेन भी कर चुका है। अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ़ ग़नी शांति वार्ता के लिये जेनेवा गये थे और भविष्य की योजना पर चर्चा भी की थी। अपनी तरफ़ से उन्होंने एक रोडमैप भी रखा। फ़िलहाल तालिबान उनसे बात करने को तैयार नहीं है। तालिबान का मानना है कि इस वक़्त अफ़ग़ानिस्तान पूरी तरह से अमेरिका के कब्ज़े में है। और अगर उन्हें बात ही करनी होगी तो वह अमेरिका से करेगा, उनके कठपुतली से वह क्यों करे बात? कैलिफ़ोर्निया सम्मेलन के बाद ग़ज़नी शहर को तालिबानियों ने रौंद डाला। कुंदूज़ और फराह शहर पहले से ही तालिबान के कब्ज़े में है।
क्या दुनिया के नक़्शे पर फिर खड़ा हो जाएगा तालिबान?
- विचार
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- 25 Dec, 2018
दुनिया के नक़्शे पर एक बार फिर से तालिबान का ख़तरा मँडराने लगा है। वह फिर से शक्तिशाली हो रहा है I उसे अपने आप को नये सिरे से संगठित करने का अच्छा मौक़ा मिल गया।

यहाँ यह जानना ज़रूरी है कि अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान में क्यों असफल रहा? इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि अमेरिकी सेना अफ़ग़ानिस्तान में देर से पहुँची। और जो पहुँची भी वह काफ़ी कम थी। अमेरिका सिर्फ़ एक ब्रिगेड ही अफ़ग़ानिस्तान भेज पाया। रात्रि हवाई हमलों और आक्रमणों का कोई फ़ायदा नहीं हुआI सच्चाई यह है कि अमेरिका ने कभी गंभीरता से अफ़ग़ानिस्तान की सेना के नव-निर्माण की कोशिश नहीं की। उधर, नाटो देशों ने सिर्फ़ दिखावे के लिए ही अपनी सेनाएँ भेजीं। अमेरिकी सेना के अफ़ग़ानिस्तान आने का एक ग़लत असर यह भी हुआ कि वहाँ के लोग यह समझने लगे हैं कि अमरेकी वहाँ तालिबान को हराने के लिए नहीं, बल्कि उनके देश पर क़ब्ज़ा जमाने के लिए आए हैं। अफ़ग़ानिस्तान के लोगों की आशंका इस बात से भी पुष्ट हुई कि अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान के प्रशासनिक ढाँचे को मज़बूत नहीं कर पाया। वह सिर्फ़ शहरों को ही बचाने में लगा रहा। जबकि तालिबान गाँवों में काफ़ी मज़बूत है और वहाँ अमेरिका जाने से झिझकता रहा।
अफ़ग़ानिस्तान के पास ताक़त नहीं
अफ़ग़ानिस्तानी सेना के पास न हौसला है और न ही ताक़त कि वह तालिबान का मुक़ाबला कर सके। उनकी फ़ौज तालिबानियों को देख कर अपने मोर्चे छोड़ कर भाग रही है। क़रीब पचास से ऊपर अफ़ग़ानिस्तानी सैनिक प्रतिदिन तालिबानियों के हाथों मारे जा रहे हैं। तालिबान अपनी पुरानी रणनीति पर काम कर रही है। वह देख-बूझ कर अलग-थलग पड़े फ़ौजी मोर्चों पर अफ़ग़ानिस्तानी सैनिकों को घेर लेती है। फिर बड़ी बेदर्दी से उसे तहस-नहस करती है। पुलिस थानों को उड़ाना उसके लिए बहुत आसान है। आत्मघाती हमलों ने अफ़ग़ानिस्तानी सुरक्षा बलों की नाक में दम कर रखा है। हालाँकि स्थानीय लोगों को अपने पक्ष में करने के लिए तालिबान पुरानी ग़लतियाँ नहीं दोहरा रहा है।