गोटाबाया राजपक्षे के देश छोड़ने, राष्ट्रपति पद से इस्तीफा देने और राजपक्षे परिवार को सत्ता से दूर करने के बाद भी विरोध-प्रदर्शन जारी है। हालात ऐसे हैं कि फिर से आपातकाल लगाना पड़ा है। वह भी तब जब नये राष्ट्रपति के चुनाव की प्रक्रिया चल रही है। तो सवाल है कि प्रदर्शनकारी आख़िर चाहते क्या हैं? क्या सिर्फ़ राष्ट्रपति का इस्तीफा या राजपक्षे परिवार से सत्ता छीना जाना? या फिर वे उस व्यवस्था में बदलाव चाहते हैं जिसकी वजह से राजपक्षे परिवार इतना ताक़तवर हो गया था, सत्ता का एकमात्र केंद्र हो गया था और हर फ़ैसले वहीं से लिए जाते थे?
श्रीलंकाई प्रदर्शनकारियों ने राष्ट्रपति पद को समाप्त करके व्यवस्था के पूर्ण परिवर्तन के लिए अपना संघर्ष जारी रखने का संकल्प लिया है।
सरकार विरोधी प्रदर्शन 9 अप्रैल को राष्ट्रपति कार्यालय के पास शुरू हुआ और बिना किसी रुकावट के जारी है। राजधानी में तीन सबसे महत्वपूर्ण प्रशासनिक भवनों पर कब्जा करने के बाद प्रदर्शनकारियों ने राष्ट्रपति कार्यालय के अलावा उनमें से कुछ को खाली कर दिया है।
देश से भाग चुके राजपक्षे ने शुक्रवार को औपचारिक रूप से इस्तीफा दे दिया है। प्रदर्शनकारियों के लिए कार्यवाहक राष्ट्रपति रानिल विक्रमसिंघे उनका अगला निशाना हैं और उन्हें हटाने का अभियान शुरू हो चुका है। प्रदर्शनकारी अभी भी पीछे हटने को तैयार नहीं हैं।
समाचार एजेंसी पीटीआई की एक रिपोर्ट के अनुसार आंदोलन के एक प्रमुख कार्यकर्ता, फादर जीवनंत पीरिस ने कहा, 'हम अपनी लड़ाई तब तक जारी रखेंगे जब तक हम व्यवस्था के पूर्ण परिवर्तन के अपने लक्ष्य को हासिल नहीं कर लेते।' उन्होंने आगे कहा, 'यह एक स्वतंत्रता संग्राम है। हम लोगों की शक्ति के माध्यम से एक सत्तावादी राष्ट्रपति को घर भेजने में कामयाब रहे।' उन्होंने कहा, 'हम राष्ट्रपति पद को समाप्त करने के लिए दबाव डाल रहे हैं ताकि हमारी कार्य योजना का वास्तविक आकार ले सके।'
तो सवाल है कि आख़िर प्रदर्शनकारी मौजूदा शासन प्रणाली को क्यों बदलना चाहते हैं? श्रीलंका की मौजूदा व्यवस्था में ऐसी क्या खामी है या प्रदर्शनकारियों को इसमें क्या गड़बड़ी लगती है?
श्रीलंका में अमेरिका की तरह राष्ट्रपतीय शासन व्यवस्था है। श्रीलंका की यह व्यवस्था वह शासन प्रणाली है, जिसमें संपूर्ण संघीय शक्तियाँ केवल एक ही सरकार में निहित होती हैं। वह संघीय सरकार केंद्र सरकार कहलाती है। इस व्यवस्था में क्षेत्रीय स्तर पर शासन का संचालन तो किया जाता है, लेकिन ये केंद्र के अधीन होते हैं। इनके पास अपनी कोई स्वतंत्र शक्ति नहीं होती।
श्रीलंका की शासन व्यवस्था केवल केंद्र सरकार के हाथ में है। देश में राष्ट्रपति ही राष्ट्र का प्रमुख होता है। इसलिए राष्ट्रपति के पास सरकार की सारी शक्तियाँ निहित होती हैं और यही कारण है कि राष्ट्रपति किसी प्रकार की नीतियाँ बनाने और फ़ैसले लेने के लिए स्वतंत्र है।
राष्ट्रपति की इन्हीं शक्तियों को कम कर प्रांतीय शासन व्यवस्था लागू करने के लिए श्रीलंका में लंबे समय से संविधान में संशोधन करने की मांग की जा रही है।
ऐसा इसलिए कि मौजूदा राष्ट्रपतीय शासन व्यवस्था में राष्ट्रपति के पास ऐसी शक्तियाँ हैं जिसके बल पर वे एकतरफ़ा फ़ैसले लेते रहे हैं। राष्ट्रपति द्वारा लिए गए फ़ैसलों पर आपत्ति करने वाला कोई नहीं है, या फिर उन्हें ऐसी शक्तियाँ नहीं हैं। एक तरह से कहें तो राष्ट्रपति के पास असीमित शक्तियाँ हैं और इसका इस्तेमाल भी वे करते रहे हैं। कहा जाता है कि श्रीलंका में जो मौजूदा आर्थिक संकट खड़ा हुआ है वह इन्हीं असीमित शक्तियों के मनमाना इस्तेमाल की वजह से हुआ है।
क़रीब तीन महीने पहले तक जिस श्रीलंका में ऊपरी तौर पर सिर्फ़ बिजली संकट दिख रहा था वहाँ अब आर्थिक कंगाली है। यानी फ्यूल संकट के साथ ही, भोजन का संकट, अप्रत्याशित महंगाई, अर्थव्यवस्था चौपट। और अब तो राजनीतिक संकट भी।
आम तौर पर श्रीलंका की इस हालत के लिए 2019 के बाद के घटनाक्रमों को ज़िम्मेदार ठहराया जा रहा है। आर्थिक मामलों के जानकार भी और राजनीतिक मामलों के जानकार भी श्रीलंका के दिवालियेपन के पीछे यही वजह बता रहे हैं। 2019 ही वह साल है जब मौजूदा राजपक्षे सरकार सत्ता में आई थी। अब जो श्रीलंका की हालत है, उसके लिए इस परिवार के शासन के तौर-तरीक़ों पर सवाल उठाया जा रहा है। कहा तो यह जा रहा है कि इसकी पटकथा 2019 में ही तब लिख दी गई थी जब चुनाव होने वाले थे।
नवंबर 2019 के चुनाव से पहले श्रीलंका के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार गोटाबाया राजपक्षे ने लोगों को रिझाने वाली कई घोषणाएँ की थीं। उन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा, आतंकवाद के ख़िलाफ़ सख़्त रवैया, करों में कटौती जैसी घोषणाएँ कीं। वह सत्ता में आए तो मनमाना फ़ैसले लिए गए।
राजपक्षे ने चुनाव जीतने के बाद करों को कम किया। नतीजा सामने था। अन्य देशों की तुलना में अपेक्षाकृत कम राजस्व मिला और उस पर कर्ज बढ़ता गया। व्यापक मंदी की आशंका सबसे पहले महामारी के साथ सामने आई। इसने अचानक पर्यटन और रेमिटेंस से राजस्व को छीन लिया।
क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों ने श्रीलंका को डाउनग्रेड किया। इससे बचने के लिए सरकार ने मुद्राएँ छापीं। इससे देश में बेतहाशा मुद्रास्फीति बढ़ी। खाने के सामान भी आयात करने पड़े और विदेशी मुद्रा भंडार खाली होता गया।
पिछले अप्रैल में श्रीलंका को एक और झटका लगा। सरकार ने अचानक रासायनिक उर्वरक आयात पर प्रतिबंध लगा दिया। सार्वजनिक रूप से अधिकारियों ने इस कदम को जैविक खेती को अपनाने और 'उर्वरक माफिया' से लड़ने के अभियान के वादे को पूरा करने के रूप में तैयार किया था। लेकिन वास्तव में कई लोगों ने इस निर्णय को विदेशी मुद्रा भंडार में डॉलर बचाने के प्रयास के रूप में देखा। उर्वरक आयात पर प्रतिबंध उल्टा पड़ गया।
श्रीलंका की अर्थव्यवस्था विफल होने का एक बड़ा कारण विदेशी ऋण भी है। राष्ट्रपति के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान महिंदा राजपक्षे ने चीन के साथ कई प्रमुख बुनियादी ढांचे के सौदे किए। आलोचकों का कहना है कि महिंदा के कारण ही देश "चीनी कर्ज के जाल" में फंस गया है। देश के कर्ज का भुगतान करने में विफल रहने के बाद 2017 में बीजिंग को उस बंदरगाह को 99 साल के लिए पट्टे पर देना पड़ा।
इन सब फ़ैसलों का असर यह हुआ कि देश का विदेशी मुद्रा भंडार खाली होता गया। आर्थिक मोर्चे पर अब श्रीलंका के कमान में कोई तीर नहीं बचे थे जिससे देश में खाने के संकट, तेल संकट और बिजली संकट को रोका जा सकता।
इन संकटों को श्रीलंका के आम लोगों ने अपने सामने देखा और यह देखा कि कैसे सबकुछ हाथ से निकल गया। अब प्रदर्शनकारी इस मौक़े को अपने हाथ से निकलने नहीं देना चाहते हैं और मौजूदा शासन व्यवस्था को बदलने की मांग कर रहे हैं। तो सवाल यही है कि क्या मौजूदा शासन व्यवस्था को बदलने में सफल होंगे और यह प्रदर्शन कब तक चलेगा?
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