रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध का भारत पर क्या असर होगा, इसे लेकर तमाम आम और खास लोग चर्चा कर रहे हैं। इस युद्ध का एक बड़ा असर भारत में पेट्रोल की कीमतों पर होगा यह तय है क्योंकि दोनों देशों के बीच चल रहे युद्ध के कारण कच्चे तेल की कीमत 113 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गई है। यह कीमत जून, 2014 के बाद से सबसे ज्यादा है।
निश्चित रूप से जब अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में उछाल आता है तो उससे भारत में भी पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ते हैं।
भारत अमेरिका और चीन के बाद दुनिया में तीसरा सबसे बड़ा तेल का उपभोक्ता देश है। भारत दुनिया के 40 देशों से अपनी जरूरत का 85 फीसद तेल मंगाता है।
आर्थिक मामलों के जानकार नरेंद्र तनेजा ने बीबीसी से बातचीत में कहा कि भारत की विकास दर 8 से 8.5 फीसद रहने का अनुमान इस आधार पर था कि तेल की कीमतें 70 से 75 डॉलर प्रति बैरल पर रहेंगी। उन्होंने कहा कि तेल की कीमतें 68 से 70 डॉलर प्रति बैरल से ज्यादा होना हमारी अर्थव्यवस्था के लिए एक बुरी खबर है।
स्टेट बैंक ऑफ इंडिया का एक आकलन है कि अगर यूक्रेन संकट आगे भी जारी रहता है तो भारत के खजाने पर एक लाख करोड़ रुपए का भार पड़ सकता है। निश्चित रूप से कोरोना के कारण लगे लॉकडाउन की मार झेल चुके भारत को अब रूस यूक्रेन युद्ध की मार झेलने के लिए भी तैयार रहना होगा।
एसबीआई के एक नोट में कहा गया है कि यदि यूक्रेन संकट के बीच कच्चे तेल की कीमत 100 डॉलर प्रति बैरल पर भी बरकरार रहती है तो महंगाई 52 से 65 बेसिस प्वाइंट बढ़ जाएगी। मतलब आम लोगों का जीना और मुश्किल हो जाएगा।
लेकिन यहां तो कच्चे तेल की कीमत 113 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गई है और रूस-यूक्रेन का युद्ध हाल फिलहाल थमने के आसार नहीं दिखते।
पांच राज्यों के चुनाव
राजनीतिक जानकारों का मानना है कि अगर पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव नहीं हो रहे होते तो तेल कंपनियां काफी पहले ही तेल की कीमतों को बढ़ा देतीं लेकिन चुनाव में राजनीतिक नुकसान के डर से केंद्र सरकार भी इसके लिए हरी झंडी नहीं दे रही है।
कच्चे तेल के लगातार आसमान छूते भावों को देखते हुए निश्चित रूप से यह बढ़ोतरी बहुत ज्यादा होगी।
तब इसे लेकर सरकार के खिलाफ काफी नाराजगी दिखाई दी थी और इसका असर बीते साल हुए कुछ राज्यों के विधानसभा उपचुनाव पर भी पड़ा था। लेकिन अब अगर सरकार कीमतों में बढ़ोतरी करेगी तो राजनीतिक दलों के साथ ही आम लोग भी इसका विरोध करेंगे।
भले ही तेल कंपनियां और सरकार इसके पीछे कच्चे तेल की कीमतें बढ़ने का तर्क दें और अपनी मजबूरी का भी हवाला दें लेकिन लोग इसे बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं होंगे।
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