साम्राज्यों का कब्रिस्तान माना जाने वाला अफ़ग़ानिस्तान फिर एक नए मोड़ पर है। यूनानी, शक, कुषाण, हूण, पारसी, अरब, मुग़ल, अंग्रेज़ और सोवियत साम्राज्यों के बाद अबकी बार आधुनिक युग के सबसे शक्तिशाली अमेरिकी साम्राज्य की बारी है। ‘इस्लामी आतंकवाद’ के ख़िलाफ़ 20 साल लंबी लड़ाई में अपने 2315 सैनिक गँवाने और खरबों डॉलर स्वाहा करने के बाद अमेरिका और नैटो संगठन की सेनाएँ अपने लाव-लश्कर के साथ 11 सितंबर 2021 तक लौट जाएँगी।
तालिबान से बातचीत के लिए क्यों मजबूर है भारत?
- दुनिया
- |
- |
- 24 Jun, 2021

चीन के साथ दान-प्रतियोगिता में तो भारत नहीं जीत सकता। लेकिन बरसों के काम से बनी अपनी साख और अफ़ग़ान लोगों के विश्वास के ज़रिए अपने निवेश और प्रभाव को बचाने की चेष्टा कर सकता है। तालिबान भी पूरी तरह पाकिस्तान पर निर्भर रहने के बजाय भारत को वैकल्पिक दोस्त बनाना चाहेंगे।
अमेरिका ने आतंकवादियों को पनाह देने वाले जिस इस्लामी कट्टरपंथी तालिबान संगठन की जड़ें उखाड़ने के लिए सितंबर 2001 में अफ़ग़ानिस्तान पर चढ़ाई की थी वह न केवल वहाँ मौजूद है बल्कि उसे अफ़ग़ानिस्तान की अशरफ़ गनी सरकार के साथ सत्ता में भागीदारी देकर पिंड छुड़ाया जा रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडन ने अप्रैल में जब से अफ़ग़ानिस्तान से सेना वापसी का ऐलान किया है तब से तालिबान ने देश भर में हमले तेज़ कर दिए हैं।