पाकिस्तान की राजनीति में हमेशा ताक़तवर रही सेना क्या अब वहाँ की अर्थव्यवस्था को भी तय करेगी? यह सवाल इसलिए कि पाकिस्तानी सेना के प्रमुख क़मर बाजवा ने बड़े-बड़े उद्यमियों के साथ निजी बैठक की है, अर्थव्यवस्था की चुनौतियों और भविष्य पर रणनीति तय की है। दो महीने पहले ही बाजवा को पाकिस्तान की दीर्घकालिक आर्थिक नीति निर्धारित करने के लिए बनाई गई उच्चस्तरीय राष्ट्रीय विकास परिषद का सदस्य बनाया गया है। बाजवा की यह बैठक ऐसे दौर में हुई है जब पाकिस्तान की आर्थिक हालत ख़राब है और प्रधानमंत्री इमरान ख़ान इससे निपटने में सफल नहीं रहे हैं। उद्यमियों के साथ सेना प्रमुख की बैठक इसलिए भी चर्चा में है कि सेना प्रमुख की विशेषज्ञता होती है देश की सुरक्षा में, ऐसे में आर्थिक विशेषज्ञता का क्या मतलब? क्या यह सेना की बढ़ती दखल का संकेत नहीं है? क्योंकि अपनी आज़ादी के 70 साल के इतिहास में पाकिस्तान में सेना ने क़रीब आधे समय तक राज किया है और सुरक्षा और विदेश मामलों में इसकी काफ़ी ज़्यादा दखल रही है।
पाकिस्तानी सेना द्वारा जारी एक बयान के अनुसार, बाजवा ने बुधवार को 'इंटरप्ले ऑफ़ इकॉनमी एंड सिक्योरिटी' शीर्षक से चर्चाओं और सेमिनारों की श्रृंखला के समापन सत्र को संबोधित किया। इसमें देश के सबसे बड़े उद्योगपतियों का समूह शामिल था। जनरल बाजवा ने कहा कि उनके साथ चर्चा का उद्देश्य बेहतर समझ बनाना था। सेना की तरफ़ से कहा गया है कि सुरक्षा और विकास परस्पर जुड़े हुए हैं इसलिए जनरल बाजवा ने आंतरिक सुरक्षा के बेहतर होने की बात को रखने के लिए गए थे। बयान जो भी आए, व्यवसायियों का सेना प्रमुख के साथ यह बैठक सामान्य बात तो बिल्कुल नहीं है।
सेना उस समय अपनी नई आर्थिक भूमिका में आती दिख रही है जब मंदी के इस दौर में प्रधानमंत्री इमरान ख़ान की रेटिंग काफ़ी गिरी है। पिछले साल जुलाई में चुनावों के बाद पहली बार, इमरान की रेटिंग उस स्तर तक गिर गई है जहाँ अधिक लोग उन्हें पसंद नहीं करते हैं।
रोशन पाकिस्तान के एक सर्वेक्षण के अनुसार, प्रधानमंत्री की लोकप्रियता पिछले साल अगस्त में चुनावों के दौरान 64% थी जो अगस्त में क़रीब 18 प्रतिशत घटकर 46% रह गई है।
पाक की आर्थिक स्थिति ख़राब
इमरान ख़ान की रेटिंग घटने का एक बड़ा कारण पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति का ख़राब होना है। पाकिस्तान में रोज़मर्रा की ज़रूरत की चीजें महँगी हो गई हैं। महँगाई दर पिछले 10 साल के सबसे ऊँचे स्तर तक पहुँच सकती है और इसके 13% तक जाने का अनुमान है। एशियन डेवलपमेंट बैंक की ओर से हाल ही में जारी रिपोर्ट के मुताबिक़, वित्त वर्ष 2019-20 में यह 2.8 फ़ीसदी रह सकती है। दूसरी ओर वित्तीय घाटा देश की कुल जीडीपी के 7.1% तक पहुँच चुका है। हाल के पाकिस्तान बजट के मुताबिक़, पाकिस्तान पर इतना क़र्ज़ है कि उसके बजट का बड़ा हिस्सा यानी 42 फ़ीसदी तो क़र्ज़ का ब्याज चुकाने में ख़र्च हो जाता है। पाकिस्तान का विदेशी मुद्रा भंडार भी घटकर 8.8 अरब डॉलर पर पहुँच गया है।
अभी पाकिस्तान की मुसीबतें और बढ़ेंगी ही। फ़ाइनेंशियल एक्शन टास्क फ़ोर्स यानी एफ़एटीएफ़ की ब्लैक लिस्ट में डाले जाने का ख़तरा मंडरा रहा है। पाकिस्तान मनी लॉन्ड्रिंग और टेरर फंडिंग पर नज़र रखने वाली इस वैश्विक संस्था की ग्रे लिस्ट में है। एफ़एटीएफ़ अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के वित्तपोषण की निगरानी करने वाली संस्था है और इसमें कुल 38 सदस्य देश हैं। इसी महीने एफ़एटीएफ़ की बैठक है।
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष यानी आईएमएफ़ ने हाल ही में पाकिस्तान को इन ख़राब हालात से उबारने के लिए छह बिलियन डॉलर के बेलआउट पैकेज को मंज़ूरी दी है। हाल के महीनों में दोस्ताना रिश्ते वाले देश चीन, सउदी अरब और यूएई से राहत पैकेज मिले हैं लेकिन उसके बाद भी पाकिस्तान के सामने चुनौतियाँ कम नहीं हैं।
लोकतंत्र का क्या होगा?
इन्हीं चुनौतियों के बीच सेना प्रमुख बाजवा को देश की दीर्घकालिक आर्थिक नीति निर्धारित करने के लिए गठित की गई उच्चस्तरीय राष्ट्रीय विकास परिषद का सदस्य बनाया गया है। लेकिन अर्थव्यवस्था सहित दूसरे मामलों में ऐसे हस्तक्षेप को कुछ लोग लोकतंत्र के लिए सही नहीं मानते हैं। ‘ब्लूमबर्ग’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ पूर्व सिटीग्रुप इंक बैंकर और पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था पर पुस्तक लिखने वाले यूसुफ़ नज़र ने कहा, ‘सुरक्षा मामलों के अपने पारंपरिक प्रभुत्व के अलावा अर्थव्यवस्था के प्रबंधन में सेना की बढ़ती भूमिका एक नरम तख्तापलट के अलावा कुछ नहीं है। यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए एक झटका है।’ उन्होंने कहा, ‘इसके नतीजे दूरगामी होंगे।’
बाजवा-इमरान की जुगलबंदी का राज क्या?
ऐसी आशंका सेना की राजनीति में दखल को लेकर अक्सर जताई जाती रही है। लेकिन इमरान ख़ान के दौर में जो हो रहा है वह काफ़ी अलग है। इसका प्रमुख कारण यह है कि सेना प्रमुख बाजवा के साथ इमरान ख़ान की जुगलबंदी भी ज़बरदस्त रही है। हाल ही में बाजवा का कार्यकाल तीन साल के लिए बढ़ा दिया गया है। जनरल क़मर जावेद बाजवा ने नवंबर 2016 में सेना की कमान संभाली थी। उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ़ ने सेना का नेतृत्व करने के लिए नियुक्त किया था। जनरल बाजवा को इस साल नवंबर में सेवानिवृत्त होना था, लेकिन सेवानिवृत्ति से ठीक दो महीने पहले उन्हें सेवा विस्तार दे दिया गया। एक ऐसे मामले में जहाँ देश के हर मामले में सेना की दखल हो वहाँ सेना प्रमुख का सेवा विस्तार काफ़ी ज़्यादा मायने रखता है।
जनरल बाजवा और इमरान ख़ान की इस जुगलबंदी पर विपक्षी नेता आरोप लगाते रहे हैं कि इमरान ख़ान ने सेना की मदद से सत्ता हासिल की है। पाकिस्तान मामलों के जानकार भी इस पर हैरानी जताते हैं कि शायद यह पहली बार है कि सेना प्रमुख और प्रधानमंत्री एक तरह से सोचते हैं और दोनों एक ही दिशा में देश को ले जाना चाहते हैं। और वह कौन-सी दिशा है, यह बात धीरे-धीरे सबके सामने खुलकर आ ही रही है।
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