हर देश की अपनी फ़ौज होती है मगर पाकिस्तान आर्मी एक ऐसी सेना है जिसका अपना एक देश है - यह कोई कहावत नहीं बल्कि 75 सालों में पाकिस्तान में हुई घटनाओं का निचोड़ है। इन 75 सालों में पाकिस्तान में आर्मी ने 'डॉक्ट्रीन ऑफ़ नेसिसिटी' यानी 'वक़्त के तक़ाज़े' का हवाला देकर 33 सालों तक ख़ुद राज किया। आज फिर जब पाकिस्तान राजनीतिक अस्थिरता और आर्थिक गिरावट की ओर बढ़ रहा है तथा इमरान को समर्थन के मुद्दे पर सेना ख़ुद बँट गई है, तब क्या वह फिर से सत्ता अपने हाथों में लेगी। यह जानने के लिए हम पाकिस्तान, सेना और राजनीतिक दलों के रिश्तों की पड़ताल करते हैं। आज पेश है इस सीरीज़ की पहली कड़ी।
भाग 1 : पाक आर्मी - दुश्मन न करे, दोस्त ने वो काम किया है
पाकिस्तान में राजनेताओं और सेना का रिश्ता बड़ा अजीबोग़रीब रहा है। जिन राजनेताओं को पहले सेना का प्रत्यक्ष या परोक्ष समर्थन मिला, उन्हीं को बाद में सेना ने उखाड़ फेंका। जिन जनरलों को राजनेताओं ने दूसरों को लाँघकर सेना प्रमुख बनाया, उन्होंने उन्हीं राजनेताओं को मौत के घाट उतरवा दिया या जेल की कोठरी में भिजवा दिया। जब आर्मी शासन से बाहर रही तो उसने अपने समर्थन से नवाज़ शरीफ़ और इमरान ख़ान जैसे नए किरदारों को जन्म दिया और जब वे मज़बूत होने लगे, तो उनपर भी भ्रष्टाचार का आरोप लगाकर सत्ता से बाहर कर दिया। अब 2022 में पहली बार पाकिस्तानी सेना के ख़िलाफ़ वहाँ की जनता का ग़ुस्सा उभरा है। पाकिस्तानी सेना के अंदर भी राजनीति को लेकर एक विभाजक रेखा उजागर हो रही है जो पहले कभी नहीं दिखी। आज ऐसा अनोखा क्यों हो रहा है, यह हम इस सीरीज़ में समझेंगे। लेकिन सबसे पहले हमें उन तीन 'अ' की भूमिका समझनी होगी जिनके सामंजस्य से पाकिस्तान में कोई भी शासन चलता है। ये तीन 'अ' हैं 'आर्मी', 'अमेरिका' और 'अल्लाह'।
सबसे पहले 'अ से अमेरिका' की बात करते हैं।
अमेरिका भले ही ख़ुद को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र मानता हो लेकिन उसकी वैश्विक नीति आम तौर पर किसी तानाशाह या सैनिक शासन को ही समर्थन करने की रही है।
कारण यह कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद शुरू हुए शीत युद्ध के दौरान हर देश के लिए अपनी सैन्य शक्ति का विकास ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो गया था। शीत युद्ध के दौरान अमेरिका ने पाकिस्तान को रूस के ख़िलाफ़ अपने ख़ेमे में शामिल कर उसकी सेना को प्रशिक्षित करने में बड़ा योगदान दिया। आज भी पाक सेना में ऊँचा ओहदा वही अधिकारी पा सकता है जिसने अमेरिका से प्रशिक्षण पाया हो। अमेरिका भी इन प्रशिक्षित पाकिस्तानी अधिकारियों के माध्यम से ही वहाँ की आंतरिक परिस्थिति में दख़ल देता रहा है। 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में अमेरिका ने पाकिस्तान आर्मी को बचाने के लिए जंगी बेड़े और सैन्य सामान से मदद की थी। फ़ील्ड मार्शल अयूब ख़ान और उनके बाद जनरल याह्या ख़ान, ये दोनों ही अमेरिका-परस्त थे। इन दोनों जनरलों ने मिलकर 13 साल (1958-1971) तक देश की हुकूमत चलाई। उन्होंने पाकिस्तानियों की हर आर्थिक कठिनाई और पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) की राजनीतिक अस्थिरता के लिए राजनेताओं को दोषी ठहराया। सेना के इन दोनों जनरलों ने ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो को प्रोत्साहन दिया और उनकी प्रखर वाणी का इस्तेमाल विदेश मंत्री के रूप में किया। भुट्टो लंबे समय तक पाकिस्तानी आर्मी का मुखौटा बने रहे।
1971 में भारत से पराजय के बाद ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो ने अपनी इस मुखौटे वाली पहचान से निजात पाने के लिए 1971 की हार के लिए अमेरिका और आर्मी को ज़िम्मेवार ठहराया और उन दोनों के ख़िलाफ़ एक माहौल बनाया। वे बड़े ज़मींदार थे, पर उन्होंने अपने-आपको ज़मीन से जुड़े सोशलिस्ट के रूप में पेश किया। अमेरिका को विस्तारवादी और पूँजीवादी बताकर उसे अपने देश के लिए ख़तरा बताया। इसके साथ ही उन्होंने अपनी पहचान को पाकिस्तानी फ़ौज से मुक्त करने की कोशिश की। उनको इसमें एक हद तक कामयाबी भी मिली लेकिन इन दोनों शक्तियों का विरोध करने की 'जुर्रत' के लिए उन्हें मृत्युदंड की सज़ा मिली जिसने साबित कर दिया कि आर्मी और अमेरिका को नाराज़ करके कोई लंबे समय तक पाकिस्तान पर राज नहीं कर सकता।
अपनी राय बतायें