ब्रिटेन की राजनीति में महीने भर से जो चल रहा था वह किसी सनसनीखेज़ राजनीतिक धारावाहिक से कम नहीं था। उसका पटाक्षेप प्रधानमंत्री लिज़ ट्रस के इस्तीफ़े से हुआ जो ब्रितानी अर्थव्यवस्था का कायाकल्प करके उसे सिंगापुरी शैली की कम टैक्स तेज़ विकास वाली अर्थव्यवस्था में बदलने आई थीं। एक दिन पहले संसद में खडी होकर, 'जूझने वाली हूँ, भागने वाली नहीं हूँ' का दावा करने वाली नेता को अगले ही दिन भाग जाना पड़ा। उनकी नाटकीय नाकामी ने कंज़र्वेटिव पार्टी की राजनीतिक समझ पर सवाल खड़े कर दिए हैं।
दुनिया की सबसे सफल मानी जाने वाली कंज़र्वेटिव पार्टी की वे तीन साल में तीसरी नेता चुनी गई थीं और अब उसी पार्टी को एक ही साल में तीसरा नेता चुनना पड़ेगा। अर्थव्यवस्था चलाने के मामले में कंज़र्वेटिव पार्टी पर ख़ास तौर से भरोसा किया जाता रहा है।
पर लिज़ ट्रस ने कम टैक्स और तेज़ विकास की किताबी आर्थिक नीति को युद्ध, मंदी और कमरतोड़ महँगाई के चुनौतीपूर्ण और प्रतिकूल माहौल में थोपने की कोशिश करके अपनी पार्टी ही नहीं वरन पूरे देश की बरसों से कमाई आर्थिक साख पर बट्टा लगा दिया।
महज़ 44 दिन सत्ता में रहकर ब्रितानी राजनीति में नया इतिहास रचने वाली लिज़ ट्रस ने महारानी एलिज़ाबेथ के शोक में पहला पखवाड़ा शांति से गुज़ारने के बाद जैसे ही अपने हारवर्ड शिक्षित वित्तमंत्री क्वाज़ी क्वार्तेंग के ज़रिए अपनी किताबी अर्थनीति को लागू करने की कोशिश की बाज़ारों में हड़कंप मचने लगा। यूक्रेन युद्ध के कारण बढ़ी ऊर्जा और खाद्य-पदार्थों की महँगाई पर काबू पाने के लिए केंद्रीय बैंक तेज़ी से ब्याज दरें बढ़ा रहे थे जिनसे अमेरिका और यूरोपीय देशों के साथ ब्रितानी अर्थव्यवस्था भी मंदी की गिरफ़्त में आ रही थी।
ऐसे आर्थिक माहौल में लिज़ ट्रस के वित्त मंत्री ने अर्थव्यवस्था में नई जान फूँकने के लिये करों में कटौती करने और ऊर्जा की कीमतों में होने वाली बढ़ोतरी का भुगतान सरकारी ख़ज़ाने से करने का ऐलान किया। इन पर होने वाले ख़र्च से ब्रिटन का बजट घाटा लगभग सवा चार लाख करोड़ रुपए बढ़ने वाला था। लिज़ ट्रस का तर्क था कि इन उपायों से आर्थिक विकास की रफ़्तार बढ़ेगी जिससे राजस्व बढ़ेगा जो बजट घाटा चुका देगा।
परंतु असली नुकसान कंज़र्वेटिव पार्टी और ब्रितानी संसदीय प्रणाली की साख को हुआ। लगभग 188 वर्ष पुरानी इस पार्टी ने संकट की ऐसी घड़ी आज तक नहीं देखी थी। संसदीय कार्यकाल के बीच नेता पहले भी बदले गए।
1989 में थैचर की जगह जॉन मेजर पार्टी नेता और प्रधानमंत्री बने थे। 2016 के जनमत संग्रह का नतीजा यूरोपीय संघ छोड़ने के पक्ष में आने के बाद डेविड कैमरन ने इस्तीफ़ा दिया और टिरीज़ा मे नई नेता और प्रधानमंत्री बनीं। लेकिन एक ही कार्यकाल में दो बार नेता का बदलाव दूसरे विश्व युद्ध को छोड़कर इससे पहले कभी नहीं हुआ।
ब्रिटेन के आम लोग और लगभग पूरी दुनिया कंज़र्वेटिव पार्टी के सांसदों और उन पौने दो लाख सदस्यों की समझ पर हँस रही है जिन्होंने आर्थिक संकट की इस घड़ी में आर्थिक संयम से काम लेने वाले नारे पर चुनाव लड़े भारतीय मूल के ऋषि सुनाक की जगह लिज़ ट्रस को चुना जिन्हें वित्तीय मामलों का कोई अनुभव नहीं था। ऋषि सुनाक ने लिज़ ट्रस के साथ हुई प्रचार बहसों में बार-बार कहा था कि मंदी और महँगाई के दौर में टैक्स घटाने और ख़र्च बढ़ाने से महँगाई और बढ़ेगी और आर्थिक संकट खड़ा हो जाएगा। वही हुआ।
अमीरों और उद्योगपतियों के टैक्स घटा कर और राहत में पैसे लुटा कर आर्थिक विकास करने की परीकथा अर्थनीति ने बरसों के संयम से बनी ब्रितानी साख का अनर्थ कर दिया।
सवाल उठता है कि क्या कंज़र्वेटिव पार्टी के सांसदों और सदस्यों की आर्थिक समझ इतनी कमज़ोर हो चुकी है कि उन्हें अब वास्तविकता और हवाई किलों में फ़र्क नज़र नहीं आता? ब्रेग्ज़िट से पहले के चुनावों को देखने से लगता है कि आम ब्रितानी मतदाता की आर्थिक मामलों की समझ बुरी नहीं थी। सुनहरी सपने दिखाकर वोट बटोरने वाली पार्टियों और उम्मीदवारों पर यहाँ की जनता ने कम ही यक़ीन किया है। लेकिन ब्रेग्जिट के बाद स्थितियाँ बदली क्योंकि ब्रेग्जिट के जनमत संग्रह में हवाई किले दिखाकर ही जीत हासिल की गई थी। यह सपना दिखाया गया था कि यूरोपीय संघ के बाबूजाल से अलग होते ही ब्रिटेन अपनी शर्तों पर अमेरिका, चीन और भारत जैसे बड़े देशों से व्यापार संधियाँ करेगा। दुनिया भर के निवेश का केंद्र बनेगा। सिंगापुर और ताईवान की तरह उसकी अर्थव्यवस्था भी सरपट दौड़ेगी।
ऐसा कुछ नहीं हुआ। किसी बड़े देश के साथ व्यापार समझौता नहीं हो पाया और यूरोपीय संघ के देशों के साथ होने वाला व्यापार भी कानूनी दाँवपेचों में उलझ कर मंदा पड़ गया। कोविड की मार, सप्लाई रुकावट, यूक्रेन युद्ध और महँगाई की मार से व्यापार घाटा और बजट घाटा बढ़ा। राजस्व और पाउंड गिरता गया और ब्याज दरों में उछाल आने लगा। ब्रेग्जिट के पक्ष में वोट डालने वाले मतदाता और उनको सुनहरे सपने बेचकर चुनाव जीतने वाले कंज़र्वेटिव सांसद सपने टूटने से हताश होकर नेताओं के ख़िलाफ़ बग़ावत करने लगे और पार्टी नेता मौसम के मिज़ाज की तरह बदले जाने लगे।
बोरिस जॉनसन का नाम
लिज़ ट्रस के जाने के बाद नए नेता और प्रधानमंत्री के चुनाव का दंगल एक बार फिर लग गया है। पार्टी ने इस बार नेता का चुनाव सात हफ़्तों की जगह सात दिनों में कराने का बीड़ा उठाया है और कोशिशें हो रही हैं कि किसी एक नाम पर सर्वसम्मति बन जाए। पिछली बार दूसरे और तीसरे स्थान पर रहे ऋषि सुनाक और पैनी मोर्डन्ट के समर्थक अपने-अपने उम्मीदवार के नाम पर सर्वसम्मति बनाने की जुगत में हैं। लेकिन पूर्व प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन का भूत इस सारी प्रक्रिया पर हावी होता नज़र आ रहा है।बोरिस जॉनसन और उनके समर्थक ऋषि सुनाक को अपने नेता की पीठ में छुरा भोंकने के लिए माफ़ नहीं कर पाए हैं और कोशिश चल रही है कि इस बार भी ऋषि सुनाक को प्रधानमंत्री बनने से रोका जाए।
कंज़र्वेटिव पार्टी के भीतर पाँच प्रमुख धड़े हैं और 650 सदस्यों वाली संसद के 357 कंज़र्वेटिव सांसद इन धड़ों में बँटे हुए हैं। ऋषि सुनाक को ब्रेग्जिट समर्थक होने के बावजूद यूरोप समर्थक और आर्थिक उदारवादी धड़ों का समर्थन हासिल है। जबकि ब्रेग्जिट समर्थक, पावेलवादी और अतिदक्षिणपंथी धड़े पैनी मोर्डन्ट का समर्थन कर रहे हैं।
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि केवल बोरिस जॉनसन ऐसे नेता हैं जो ज़्यादातर धड़ों का समर्थन पाकर सर्वसम्मति जुटा सकते हैं। दिक़्क़त यह है कि उन्हें लापरवाही और आर्थिक अनियमितता के आरोपों में निकाला जा चुका है और जिस तरह की आर्थिक सूझबूझ और किफ़ायती नीतियों की इस समय ज़रूरत है उन्हीं पर राज़ी न होने के कारण ही पिछली बार ऋषि सुनाक ने उनके ख़िलाफ़ बग़ावत की थी।
इसलिए बोरिस जॉनसन को एक बार फिर मौक़ा देने पर बाज़ार शक्तियों की प्रतिक्रिया क्या होगी यह कहा नहीं जा सकता। अगला नेता कौन बनेगा इसकी अनिश्चितता और उसके लिए चल रहे तरह-तरह के नामों को लेकर बाज़ार में पहले से ही घबराहट है। एक बार फिर ब्रितानी पाउंड और बांड की क़ीमतें गिर रही हैं और ब्याज दरें बढ़ रही हैं। ऐसे में यदि ऋषि सुनाक या जैरमी हंट जैसे आर्थिक साख वाले नेता को नहीं चुना गया तो बाज़ारों में फिर हड़कंप मच सकता है और नए नेता का हश्र भी लिज़ ट्रस्ट वाला ही हो सकता है। तो क्या बाज़ार शक्तियाँ तय करेंगी कि कंज़र्वेटिव पार्टी का नेता और ब्रिटेन का नया प्रधानमंत्री कौन बने?
जिन देशों की मुद्राओं और सरकारी बांडों की साख ऐसी नहीं है कि वे अंतर्राष्ट्रीय लेन-देन का माध्यम बन सकें उन्हें ये बातें अटपटी लग सकती हैं। लेकिन आर्थिक साख बरसों के कड़े आर्थिक अनुशासन और ज़िम्मेदारी के बाद बनती है। चीन की अर्थव्यवस्था जर्मनी से कई गुणा बड़ी है। लेकिन चीनी बांड की साख जर्मन बांड के मुकाबले कुछ भी नहीं। साख कमाने के लिए संयम ही नहीं पारदर्शिता की भी ज़रूरत होती है।
इसी तरह धड़ेबाज़ी और वैचारिक गुटबाज़ी को देखते हुए ब्रिटेन की कंज़र्वेटिव और लेबर पार्टियाँ भारत की पार्टियों की तुलना में कमज़ोर और अनुशासनहीन लग सकती हैं। लेकिन यही उनकी असली ताकत है। यही दलगत लोकतंत्र है। भारत की कौन सी ऐसी पार्टी है जिसके सांसदों में इतनी हिम्मत हो कि वे अपनी सरकार के प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री की घातक आर्थिक नीतियों पर खुल कर बोल सकें और इस्तीफ़ा माँग सकें? कौन सा ऐसा नेता है जिसने हवाई वादे करके जनादेश हासिल कर लिया हो और उसे पूरा न कर पाने पर यह मानते हुए इस्तीफ़ा दे दिया हो कि वह उस जनादेश को पूरा नहीं कर सकता जो उसे मिला है?
अपनी राय बतायें