पुलिस ज़्यादती में अश्वेत नागरिक जॉर्ज फ़्लायड की मौत के बाद ख़ुद अमेरिकी समाज यह मान रहा है कि वहाँ भेदभाव किया जाता है और इसकी जड़ें गहरी हैं। महत्वपूर्ण यह है कि ऐसा मानने वालों में सिर्फ़ अश्वेत ही नहीं है, समाज का बड़ा हिस्सा इस कड़वे सच को स्वीकार करता है, जिसमें गोरे और यूरोपीय नस्लों के लोग भी शामिल हैं।
सर्वेक्षण
मशहूर अख़बार वॉल स्ट्रीट जर्नल और टीवी चैनल एनबीसी की ओर से कराए गए साझा सर्वेक्षण में 56 प्रतिशत लोगों ने कहा कि अश्वेत और हिस्पानी यानी स्पैनिश बोलने वाले लातिन अमेरिकी मूल के लोगों के साथ देश में हर स्तर पर भेदभाव किया जाता है।
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यह सर्वेक्षण जॉर्ज फ़्लॉयड की मौत के दो महीने बाद कराया गया। इनमें से 71 प्रतिशत लोगों ने यह माना कि अमेरिका में नस्लीय रिश्ते बेहद बुरे हैं।
ज़्यादातर लोगों ने माना कि अमेरिकी समाज में नस्ल निश्चित रूप से एक मुद्दा है। इस सर्वे में भाग लेने वालों में लगभग 60 प्रतिशत लोगों ने कहा कि अश्वेतों के साथ भेदभाव किया जाता है।
हिस्पानी मूल के लोग भी निशाने पर
आधे से थोड़ा अधिक लोगों ने कहा कि ऐसा तो हिस्पानी मूल के लोगों के साथ भी होता है। साल 2008 में जितने लोगों ने यह माना था कि हिस्पानियों के साथ भेदभाव होता है, अब उसके लगभग दूने लोग ऐसा मान रहे हैं।सर्वे में भाग लेने वाली ब्रेन्डा ली ने वॉल स्ट्रीट जर्नल से कहा, 'अमेरिकी असमानता के मुद्दे पर चिंतित हैं और जॉर्ज फ़्लायड की मौत ने यह चिंता बढ़ाई। हम अब यह मान रहे हैं कि अमेरिकी समाज में नस्लवाद एक मुद्दा है।'
क्या कहते हैं राजनीतिक दल
लेकिन यह असमानता कितनी है, इस पर कर देश की दो बड़ी पार्टियों में मतभेद हैं। डेमोक्रेट्स में से 90 प्रतिशत लोगों ने माना कि अश्वेतों के ख़िलाफ़ भेदभाव होता है लेकिन 26 प्रतिशत रिपब्लिकन ही इसे मानने को तैयार हैं। इसी तरह 82 प्रतिशत डेमोक्रेट्स मानते हैं कि अमेरिकी समाज नस्लवादी है जबकि 30 प्रतिशत रिपब्लिकन ही इसे मानने को राजी हैं।इसे रिपब्लिकन पार्टी के राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप की बातों और उनके व्यवहार से भी समझा जा सकता है। उन्होंने 'ब्लैक लाइव्स मैटर' आन्दोलन की यह कह कर आलोचना की यह पुलिस के ख़िलाफ़ विद्वेष से भरा हुआ है।
ख़ुद अश्वेतों का क्या मानना है?
अमेरिका के अश्वेत नागरिकों के बड़े हिस्से यानी 65 प्रतिशत ने कहा है कि वे नस्लीय भेदभाव के शिकार हुए हैं क्योंकि यह अमेरिकी समाज, उसके संस्थान और उनकी नीतियों में गहरे तक पैठा हुआ है।लेकिन गोरों में से लगभग 48 प्रतिशत लोगों का कहना है कि यह भेदभाव कुछ लोग निजी स्तर पर करते हैं, यह पूरे समाज और उसके संस्थानों में नहीं है।
बँटा हुआ समाज
'ब्लैक लाइव्स मैटर' के प्रति लोगों का रवैया भी नस्लीय आधार पर बँटा हुआ है। अश्वेत मतदाताओं में से 76 प्रतिशत लोगों का कहना है कि यह एक सकारात्मक आन्दोलन है जबकि श्वेत मतदाताओं में से सिर्फ 42 प्रतिशत ही इसे अच्छा मानते हैं। श्वेत मतदाताओं में से 39 प्रतिशत मतदाताओं ने इस आन्दोलन को ग़लत और नकारात्मक माना।यह सर्वेक्षण 9-12 जुलाई को हुआ था और इसमें 900 लोगों ने भाग लिया था। यह दिलचस्प है कि इस सर्वेक्षण के नतीजों के अध्ययन से यह साफ़ होता है कि इसमें भाग लेने वाले नस्लीय आधार पर बंटे हुए हैं।
नस्लीय पूर्वग्रह साफ है। ज़्यादातर अश्वेतों ने 'ब्लैक लाइव्स मैटर' आन्दोलन को सही माना तो उससे कम श्वेतों की यह राय थी। साफ़ है अमेरिकी समाज पूरी तरह बंट गया है।
क्या है भारत का हाल?
सवाल यह है कि क्या भारत में इस तरह के सर्वेक्षण होते हैं? यहाँ इस तरह के आन्दोलन क्यों नही होते? भारतीय समाज में भी मुसलमानों और पिछड़ों-दलितों की वही स्थिति है जो अमेरिकी समाज में अश्वेतों की है, पर भारत में कितने लोग इस पर खुल कर बोलते हैं।जॉर्ज फ्लॉयड की मौत पर अमेरिकी समाज जिस तरह उद्वेलित हुआ, रोहित वेमुला की मौत पर भारत में ऐसा क्यों नहीं हुआ, या गोरक्षा के नाम पर मुसलमानों को पीट-पीट कर मार डाले जाने की घटना के ख़िलाफ़ आन्दोलन क्यों नहीं चला? जातिवादी व्यवस्था के आधार पर राजनीति करने वाले और धर्मनिरपेक्ष जमातें भी इन मुद्दों पर क्यों सड़कों पर नहीं उतरीं?
अमेरिकी समाज तो खुल कर बोल रहा है, आत्मावलोकन कर रहा है, भारतीय समाज क्यों नहीं ?
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