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जजों की नियुक्ति अपने हाथ में क्यों लेना चाहते हैं नेतन्याहू?

जैसे इन दिनों भारत में सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति का अधिकार सरकार द्वारा अपने हाथ में लेने की अब तक नाकाम कोशिशों को लेकर न्यायपालिका और सरकार के बीच टकराव हम देख रहे हैं, कुछ वैसी ही  सरकारी कोशिश पिछले जनवरी माह से इजरायल में देखी जा रही है। कुछ साथी व्यवसायिकों को अनैतिक मदद और भ्रष्टाचार के आरोपों में अदालत द्वारा दोषी ठहराए जाने के बाद इजरायल के मौजूदा प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू को 2021 में पांच साल के कार्यकाल के बाद इस्तीफा देना पड़ा था लेकिन एक साल बाद दक्षिणपंथी यहूदियों के समर्थन से वह पिछले दिसम्बर माह में फिर सत्ता में लौट आए। 

एक बार फिर प्रधानमंत्री बनने के बाद बेंजामिन नेतान्याहू का पहला निशाना इजरायल का न्यायालय ही बना। जनवरी माह में नेतन्याहू ने इजरायली संसद नेसेट में एक नया विधेयक पेश किया जिसमें यह प्रावधान है कि इजरायल की सर्वोच्च अदालत द्वारा जजों की नियुक्ति के लिये जो नौ सदस्यीय स्वतंत्र कमेटी गठित की जाती है उसके बदले सरकार द्वारा कमेटी का गठन होगा। इजरायल के विपक्षियों का आरोप है कि इस तरह नेतन्याहू यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि वह न्यायपालिका को अपने नियंत्रण में ले सकें। यह क़दम यदि कामयाब हो जाता है तो नेतन्याहू के खिलाफ जो लम्बित मामले हैं उनका निबटारा नेतन्याहू के पक्ष में होने लगेगा।

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इजरायल का न केवल राजनीतिक समुदाय बल्कि छात्र समुदाय से लेकर न्यायपालिका से जुड़े लोग, सैन्य बलों, श्रमिक यूनियनों और सम्पूर्ण नागरिक समाज नेतन्याहू के न्यायपालिका सुधार विधेयक के खिलाफ गत तीन सप्ताह से सुरक्षा बलों के डंडे और आँसू गैस झेलते हुए उठ खड़ा हुआ है। देश की सबसे बड़ी श्रमिक यूनियन हिस्त्रादुत के आह्वान पर नई दिल्ली सहित दुनिया की सभी राजधानियों में इजरायल के दूतावास सोमवार को ठप रहे। इस वजह से सरकारी कामकाज पर प्रतिकूल असर पड़ने लगा है और देश में हालात निरंतर ख़राब होते जा रहे हैं। इन वजहों से देश की सुरक्षा पर आँच आ सकती है, इससे चिंतित होकर नेतन्याहू कैबिनेट के अहम रक्षा मंत्री याव गैलेंट ने सरकार को सार्वजनिक तौर पर जब आगाह करने वाला बयान दिया तो नेतन्याहू ने रक्षा मंत्री से इस्तीफा मांग लिया। विरोधी प्रदर्शनकारी जब और उग्र होने लगे तो अंततः नेतन्याहू ने ऐलान किया कि न्यायपालिका सुधार विधेयक टाल दिया गया है। अटकलें हैं कि अमेरिकी प्रशासन के हस्तक्षेप के बाद नेतन्याहू ने विधेयक टाला है। रोचक बात यह है कि अमेरिकी प्रशासन के एक प्रवक्ता ने भारत में भी लोकतंत्र को चोट पहुंचाने वाले क़दमों से चिंतित होकर भारत सरकार से बात करने की जानकारी दी है।

सवाल यही उठता है कि जनता के भारी दबाव में नेतन्याहू कुछ झुके तो ज़रूर हैं लेकिन क्या यह अंतरिम क़दम है और हालात शांत होते ही नेतन्याहू दोबारा न्यायपालिका विधेयक संसद में पेश करने का फ़ैसला लेंगे?

जजों की नियुक्ति अपने हाथ में लेने की प्रधानमंत्री नेतन्याहू की साज़िशों  से पैदा हालात को इजरायल के इतिहास में 1973 के बाद से अब तक का सबसे बुरे दौर वाला माना जा रहा है। तब इजरायल पर सीरिया और मिस्र ने हमला किया था जिसे योमकिपुर युद्ध कहते हैं। अरब मुल्कों के इस हमले की खुफिया जानकारी नहीं होने के आरोपों के बाद इजरायल की तत्कालीन प्रधानमंत्री गोल्डा मेयर और रक्षा मंत्री मोशे दयान को इस्तीफा देना पड़ा था जिससे इजरायल का घरेलू राजनीतिक माहौल काफी अस्थिर हो गया था।
ताजा प्रकरण इजरायल के लिये और अधिक चिंताजनक माना जा रहा है क्योंकि विरोध-प्रदर्शनों में इजरायल के सैन्य बलों के जवान भी शामिल हुए हैं।

सेना के रिज़र्व सैनिकों के अलावा इजरायली वायुसेना के स्क्वाड्रन-69 के 40 रिजर्व पायलटों ने खुला पत्र जारी कहा कि वे ट्रेनिंग क्लास करने के बदले विरोध-प्रदर्शनों में भाग लेने जाएंगे। इन पायलटों ने यह भी कहा कि वे ऐसे शासन के लिये अपनी सेवाएँ नहीं देंगे जो तानाशाही रवैये वाला होगा। हम खुशी-खुशी तभी सेवाएँ दे सकेंगे जब उनके देश में जनतंत्र बचा रहेगा। इजरायल के क़रीब 75 सालों के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है कि सैन्य बलों के लोग सरकार विरोधी प्रदर्शनों में यह कह कर भाग लेने निकले कि वे न्यायपालिका को स्वतंत्र देखना चाहते हैं ताकि न्यायपालिका की विधायिका और सरकार पर निगरानी बनी रहे।

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इजरायल का सैन्य बल इजरायली डिफेंस फोर्सेज को जनता की सेना कहा जाता है क्योंकि देश में 18 साल से ऊपर की उम्र के हर युवा को  सीमित अवधि के लिये इजरायल की सेना में एच्छिक सेवा देना ज़रूरी होता है। दो साल का सेवा काल समाप्त होने के बाद इन युवकों-युवतियों को इजरायल की रिजर्व सेना में भेज दिया जाता है जो नियमित सेना के लिये सहायक ड्यूटी देते हैं।

इनकी देश में बड़ी तादाद है। बर्खास्त रक्षा मंत्री गैलेंट ने इजरायली सेना की इस पृष्ठभूमि के मद्देनज़र सवाल उठाया है कि यदि इजरायली संसद ने न्यायपालिका सुधार विधेयक पारित कर दिया और इजरायल के सुप्रीम कोर्ट ने इसे खारिज कर दिया तो वैसी स्थिति में विधेयक का क्या हश्र होगा। क्या प्रधानमंत्री नेतन्याहू इजरायल की सेना से इस विधेयक को लागू करवाने का आदेश देंगे।

इजरायली सेना के लिये यह भी दुविधा की स्थिति पैदा करेगी कि यदि इजरायल के कब्जे वाले वेस्ट बैंक के इलाक़े में यदि किसी यहूदी  रिहाइशी इमारत को ध्वस्त करने का आदेश अदालत से दिया जाता है और इजरायल सरकार का धुर दक्षिणपंथी धड़ा इजरायली सेना को यह निर्देश सरकार से दिलवा देता है कि उस इमारत को नहीं तोड़े तो वैसी स्थिति में सेना किसका आदेश मानेगी– अदालत का या सरकार का?

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इसी ऊहापोह के बीच फिलहाल यह कहना मुश्किल होगा कि इजरायल का जनतंत्र किस दिशा में मोड़ लेगा। नेतन्याहू की सरकार दक्षिणपंथी सांसदों के समर्थन पर निर्भर है जो न्यायपालिका सुधार विधेयक लाने पर अड़ा है जिसके मंसूबे साफ हैं: फलस्तीन के इजरायली कब्जे वाले इलाकों में यहूदी लोग जिस तरह धड़ल्ले से इमारतों का निर्माण कर रहे हैं उनके खिलाफ इजरायल की अदालत कोई आदेश नहीं पारित करे।

लेकिन जिस तरह इजरायली सेना के रिजर्व सैनिकों ने नेतन्याहू के न्यायपालिका सुधार विधेयक का विरोध सड़कों पर उतर कर किया है वह संकेत देता है कि इजरायली सेना और सरकार के बीच भी टकराव की स्थिति पैदा हो सकती है क्योंकि इजरायल की सेना किसी सरकारी आदेश को गैरजनतांत्रिक बताकर मानने से इनकार कर सकती है।

इन्हीं शंकाओं के मद्देनजर इजरायल के बर्खास्त रक्षा मंत्री गैलेंट ने सवाल उठाया था कि ऐसे वक्त न्यायपालिका में सुधार को लेकर देश में जो उग्र प्रदर्शन और तीव्र बहस चल रही है उसका असर इजरायली रक्षा बलों पर पड़ने लगा है। ऐसे वक़्त जब इजरायल पर ईरान, फलस्तीनी उग्रवादियों और लेबनानी हेजबुल्ला का दबाव बढ़ता जा रहा है घरेलू राजनीतिक वजहों से इजरायल की सेना में एकजुटता और स्थिरता का बना रहना ज़रूरी है अन्यथा इजरायल की सुरक्षा पर आँच आ सकती है।

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रंजीत कुमार
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