राजनैतिक इसलाम ने, इसलाम मानने वालों से दुनिया भर में बीते कुछ दशकों में 20वीं सदी में मनुष्यों के हक़ में हासिल किये तमाम फ़ैसलों को उलट दिया है। सबसे ज़्यादा नुक़सान औरतों का किया है। उनकी आज़ादी और समाजिक भूमिका छीनकर उन पर पुरुषों की ग़ुलामी थोप दी है और हिजाब-बुरक़े से ढँक दिया गया है। दिलचस्प बात यह है कि यह तर्क गढ़ा गया है कि मुसलिम महिलाओं ने खुद यह फ़ैसला किया है।
अंग्रेज़ी हुक़ूमत के दौरान देसी आबादी को बाँटने के लिये हमारे यहाँ ‘हिंदुत्व’ के विचार को जन्म दिया गया जो धार्मिक लबादे में एक राजनैतिक विचार है, राजनैतिक इसलाम की काफ़ी हद तक नक़ल है और कुछ हद तक उसमें स्थानीय कारकों का समावेश है। मध्यकाल में दुनिया के सभी धर्मों के सैनिक उद्देश्य थे और उसके लिये उन्होंने अपनी- अपनी तरह से ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को साथ रखने के लिये सोशल कंडीशनिंग की हुई थीं।
हमारे यहाँ सिख धर्म को साफ़ तौर पर सैनिक उद्देश्य के लिये खड़ा किये जाने की कहानियाँ बच्चों के पाठ्यक्रम में रही हैं। धर्मों में लोगों के जीवन की हर गतिविधि पहनावे आचार- व्यवहार के लिए नियम- क़ायदे बनाए गए थे, जिन्हें लागू करने और बनाये रखने के लिये तरह तरह की व्यवस्थाएँ थीं और हैं। सैकड़ों वर्षों के अनवरत संगठित अभ्यास से इन तौर तरीक़ों ने लोगों के बीच इन हिदायतों की ऐसी जड़ें जमा ली हैं कि आज मनुष्यता इन्हीं से बच निकलने के लिए छटपटा रही है ।
हमारे यहाँ इसलाम मानने वालों की बहुत बड़ी तादाद है । इसलाम का जो अमली रूप हमारे इर्द- गिर्द है वह संघ की विचारधारा का पूर्वज लगता है और पूरी तरह से राजनैतिक है ।
हिन्दुत्व के विरोध का इस्तेमाल
भारत में हिंदुत्व के राजनैतिक सामाजिक उपयोग के ख़तरों और उसके प्रतीकों पर अनवरत बहस चल रही है, जिसे सराहने वालों में उनके राजनैतिक प्रतिद्वन्द्वी भी है। लेकिन राजनीतिक इसलाम भी है जो सामाजिक लोकतांत्रिक तंत्र में साँस लेता है। पर वह अपनी सोच में आधुनिक हो, ऐसा नहीं है। और न ही वो लोकतांत्रिक है। वह हिंदुत्व के विरोध का राजनैतिक इस्तेमाल करता है।
जो लोग हिंदुत्व की आलोचना करते हैं, वह उनकी वाह- वाह करता है। लेकिन ज्यों ही कोई मामला उसके अपने धर्म के मानने वालों की कारगुज़ारियों से संबंधित सामने आता है वह तुरंत भेड़ की खाल उतार कर दांत निकाल लेता है और अनाप-शनाप आरोप लगाने लगता है।
राजनैतिक इसलाम
राजनैतिक इसलाम का बजट और शक्ति अपार है, यह विश्वव्यापी है। इसमें जाने अनजाने में आस्था और सैकड़ों बरसों की कंडीशनिंग के कारण विश्व की एक चौथाई आबादी शामिल है। हिंदुत्व इसके सामने एक भारतीय उपमहाद्वीप की लोकल एंटिटी भर है। राजनैतिक इसलाम के पास तमाम टेलीविजन, डिजिटल मीडिया नेटवर्क, सोशल मीडिया फ़ौज, हिंसा करने वाले संगठित दस्ते और लाखों बुद्धिजीवियों का ताना बाना है और वह विक्टिमहुड का लबादा ओढ़े रहता है।
साम्राज्यवाद से लड़ने के नाम पर दुनिया भर में फैली वामपंथियों की अतिवादी जमात का समर्थन भी इसको हासिल है। चूँकि विक्टिमहुड एक साइक्लिक (चक्रीय) प्रणाली है, जो हर घटना और उसकी प्रतिक्रिया के चक्र से अनवरत पनपती रहती है, लिहाज़ा इसको खाद- पानी की कोई कमी नहीं पड़ती।
राजनैतिक इसलाम ने, इसलाम मानने वालों से दुनिया भर में बीते कुछ दशकों में 20वीं सदी में मनुष्यों के हक़ में हासिल किये तमाम फ़ैसलों को उलट दिया है।
निशाने पर औरतें
सबसे ज़्यादा नुक़सान औरतों का किया है। उनकी आज़ादी और समाजिक भूमिका छीनकर उन पर पुरुषों की ग़ुलामी थोप दी है और हिजाब-बुरक़े से ढँक दिया गया है। दिलचस्प बात यह है कि यह तर्क गढ़ा गया है कि मुसलिम महिलाओं ने खुद यह फ़ैसला किया है। ईरान में औरतों के विरुद्ध हिजाब न पहनने पर कुछ मामलों में मौत की सजा तक सुनाने की खबरें हैं, जेल में डालना तो आम है।
इसलाम के मानने वाले पुरुषों को ग़ैर इसलामिक समाज की स्त्रियों से मेलजोल के सामान्य अवसर हैं, पर यही हक़ उनकी स्त्रियों को हासिल नहीं है। हिंदुत्व वादी इसलामी दुनिया की इन्हीं सच्चाइयों की आलोचना भी करते हैं और हक़ीक़त में वे यही सब अपनी स्त्रियों के साथ करना भी चाहते हैं। दोनों क़िस्म के अतिवादी ऑनर किलिंग जैसी घटनाओं और स्त्रियों पर तेज़ाब फेंकने, उनकी हत्या करने जैसे मामलों को बढ़ाने के लिये ज़िम्मेदार हैं।
निशाने पर दानिश्वर
इसलामी देशों में मज़दूरों के आंदोलनों और वामपंथी दानिशवरों को बड़ी ही निर्ममता से दमन का शिकार बनाया गया है। बांग्लादेश में अब शायद ही कोई दानिश्वर, ब्लॉगर बचा हो जो वह सब लिख- कह सके जो लिखने कहने की वजह से एक समय वह दानिश्वर के तौर पर स्थापित हुआ था।
ईरान, इराक़, मिस्र, तुर्की आदि सभी देशों का यही हाल है। एक समय जवान स्त्रियों को इन देशों में यूरोपीय लिबास में मर्दों से कंधा मिलाकर जीवन के हर क्षेत्रों में पाया जाता था ,पर अब सब जगह तालिबानी कल्चर जड़ जमा रहा है। भयानक तो यह है कि यह बीमारी यूरोप और अमेरिका तक निर्यात कर दी गई है, जहाँ पैदा हुई पली- बढ़ी स्त्री को भी पहचान के संकट के नाम पर बुर्के में बंद होने के लिये मज़बूर किया जा रहा है।
फ़्रांस की घटनाएँ इसलाम के मानने वालों के बीच पनपाये जाते इसी तालिबानी इसलाम की कोशिशों का प्रतिफल हैं।
ईशनिंदा क़ानून
दरअसल राजनैतिक इसलाम चाहता है कि ईशनिंदा का क़ानून किसी न किसी रूप में दुनिया भर में मनवा लिया जाय। इसलामी देशों में तो धीरे धीरे यह सर्वव्यापी किया ही जा चुका है और पाकिस्तान आदि में इसकी वजह से अल्पसंख्यकों पर कैसे कैसे जुल्म हो रहे हैं वह सबके सामने है। इसलिये उसने बहस छेड़ रखी है कि दुनिया उसके पैग़म्बर या उसकी धर्मपुस्तक का उसी की तरह सम्मान करें या कम से कम किसी क़िस्म का आलोचनात्मक सवाल (सलमान रुश्दी की तरह) खड़ा करने से परहेज़ करे। इसके लिये वह दुनिया को ‘बुली’कर रहा है।
बहुत सारे पश्चिमी देशों ने राजनैतिक इसलाम से अनवरत विवाद से बचने के लिये शरिया अदालतों आदि के गठन के किसी न किसी स्वरूप को एक हद तक स्वीकार किया हुआ है, जिससे यह धारणा बलवती हो रही है कि देर सबेर ईशनिंदा का सवाल भी किसी न किसी रूप में पश्चिम स्वीकार करने को बाध्य हो ही जाएगा।
भारत क्या करे?
सवाल यह है कि भारत क्या करे? एक ओर सत्ता में पहुँचे हिंदुत्व के कर्णधारों की राजनीति के चलते हमारे देश के मुसलमानों के ख़िलाफ़ हर क़िस्म की ज़्यादती को शह मिली हुई है। उनको दूसरे दर्जे की नागरिकता क़बूल कराने की कोशिशें जारी हैं। उनके ख़िलाफ़ नफ़रत हिंदुत्व की राजनीति की सफलता की कुंजी है, और उनको प्रताड़ित करने वालों को पुरस्कृत किया जा रहा है।
वहीं दूसरी ओर भारतीय मुसलमान देश की दूसरी उत्पीड़ित आबादियों के साथ साझा संघर्ष चलाने की जगह बार बार राजनैतिक इसलाम की दुनियावी ज़रूरतों में खुद को झोंककर अपने को बार- बार अलग थलग किये हुए और ऐसे मसलों पर लड़ते मिलते हैं जो उनको कमज़ोर ही करता है। वे रोहिंग्या मुसलमानों के पक्ष में मुंबई समेत तमाम भारतीय शहरों में हिंसा करते हैं और फ़्रांस के निर्दोष नागरिकों के हत्यारों के पक्ष में भोपाल में सड़क पर और सोशल मीडिया में हर जगह रैली निकालते मिलते हैं।
दुनिया की ही तरह भारत में भी बहुत से स्वर राजनैतिक इसलाम के अस्तित्व पर पर्दा डालने के फूहड़ प्रयास में लिप्त पाये
जाते हैं। इस क्रम में साम्राज्यवादी षड्यंत्रों की स्वरचित कथाओं की कपोल कल्पनाओं में विचरण करते मिलते हैं।
हत्या को जायज़ ठहराने की कोशिश
जब धरती पर शायद ही कोई इस बात पर सफ़ाई दे सके कि नीस में बेदर्दी से चाकू से रेतकर मारी गई चर्च पहुँची तीन बच्चों की माँ की किस गलती की सजा उस धर्मांध ट्यूनीशियाई 21 वर्ष के हत्यारे ने दी, तब वे हमें बताते हैं कि अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका का क्या रोल था और आईएसआईएस, अल क़ायदा को किसने जन्म दिया और दुनिया में जो कुछ होता है, अमेरिका की मर्ज़ी के बिना कैसे हो सकता है आदि।
फ़्रांस में हुई आतंकवादी वारदात का क्या मतलब है, बता रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष।
जब दुनिया यह पढ़कर सुनकर अपने आप में भाव विह्रवल होती है कि दम तोड़ने से पहले उस बेक़सूर बेबस महिला के अपने बच्चों के लिये कहा था “मेरे बच्चों से कह देना कि मैं उन्हें बहुत बहुत प्यार करती हूँ”, तब हमें कोई बौद्धिक सुनाता है कि 19वीं सदी में ही किस महान दार्शनिक ने किस ऐतिहासिक किताब के किस पेज के किस पैरे में साम्राज्यवाद के बारे में क्या कह दिया था।
ऐसे बौद्धिकों ने हमारा बहुत नुक़सान किया है और खुद समेत हमें भी बेवजह के ख़तरों में डाल दिया है । सबसे ख़राब यह हुआ कि अपनी विलक्षण योग्यता से ऐसे लोग समाज में संवाद ख़त्म कर देते हैं । हमें साँस लेते रहने के लिये संवाद बचाये रखने और संवाद करते रहने की बहुत बहुत ज़रूरत है ।
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शीतल पी. सिंह
1984 से अमर उजाला, चौथी दुनिया, इंडिया टुडे, समय सूत्रधार, स्वतंत्र भारत, दैनिक जागरण आदि में 1993 तक लगातार रिपोर्टिंग की। इसके बाद पारिवारिक व्यवसाय में क़रीब दो दशक गुज़ारने के बाद पत्रकारिता में पुनर्वापसी को प्रयासरत। बीच में 2010-11 में 'समकाल' पाक्षिक समाचार पत्रिकाऔर पढ़ें »
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