जैसे जैसे अमेरिका में मतदान का दिन पांच नवम्बर करीब आता जा रहा है, वैसे वैसे रिपब्लिकन प्रत्याशी डोनाल्ड ट्रम्प के भाषण की भाषा का स्तर दिन-ब- दिन गिरता जा रहा है। वे डेमोक्रेट प्रत्याशी कमला हैरिस के लिए अनाप -शनाप सम्बोधनों का प्रयोग कर रहे हैं। विभिन्न चुनावी सभाओं में उनकी भाषण शैली भारत के कतिपय शिखर सत्ताधारी नेताओं के भाषणों की याद ताज़ा कर देती है। अब ट्रम्प इतना आपा खो देते हैं कि वे अपने प्रतिद्वंद्वी का नाम लेने के स्थान पर ‘औरत’ शब्द को उछाल देते हैं, कमला को हमेशा कमाला बोलते हैं। बेशक़, वे तालियां बटोर लेते हैं।
वे कमला हैरिस को ‘कर रानी‘ (टैक्स क्वीन) से भी सम्बोधित करने लगे हैं। उनका तर्क है कि यह औरत अमरीकियों पर करों की बरसात कर देगी। हैरानी तो यह है कि मतदाताओं की नज़रों में कमला हैरिस की छवि को ‘शत्रु’ के रूप में चित्रित करने के लिए ट्रम्प उन्हें छुपी हुई ‘कम्युनिस्ट, मार्क्सवादी, समाजवादी’ तक घोषित कर देते हैं। यहीं नहीं रुकते, वे आगे बढ़ते हुए यह भी दावा कर देते हैं कि यदि कमला हैरिस राष्ट्रपति बनती हैं तो वे अमेरिका में ‘सोवियत यूनियन‘ को ज़िंदा कर देंगी। तब अमेरिका कहीं का नहीं रहेगा। 26 सितम्बर को ही न्यूयॉर्क में ट्रम्प ने अपने ट्रम्प टावर में मीडिया को सम्बोधित करते हुए हैरिस को ‘कट्टर वामपंथी‘ (रेडिकल लेफ्टिस्ट) बतलाया है। उन्हें ‘बॉर्डर ज़ार‘ तक कह डाला।
दक्षिण अमेरिकी और मुस्लिम देशों के अवैध आप्रवासियों के सन्दर्भ में ट्रम्प ने हैरिस पर हर मुमकिन निम्न स्तर के आरोपों का अम्बार लगा दिया। हैरिस की वज़ह से ही अमेरिका अपने इतिहास के सबसे बुरे दौर से गुज़र रहा है। वह चारों तरफ़ से घिरा हुआ है। ट्रम्प के आरोपों का अंदाज़ ठीक वैसा ही है जैसा कि आतंकवाद, पाकिस्तान, बांग्लादेश, कश्मीर के सन्दर्भ में राहुल गांधी को घेरा जाता है। ट्रम्प के तूफानी प्रेस कॉन्फ्रेंस से इतना तो साफ़ है कि वे हैरिस के इर्द-गिर्द आप्रवासियों के नैरेटिव से उन्हें घेरते रहेंगे क्योंकि श्वेतों के लिए यह मुद्दा काफी संवेदनशील है। ट्रम्प ने कहा भी है कि अवैध आप्रवासियों के कारण लाखों की नौकरियां चली गयी हैं। मानव तस्करी हो रही है। यौन - गुलामी (सेक्स स्लेवेरी) को संरक्षण दिया जा रहा है। ‘अमेरिका तबाह हो रहा है। इस सबके लिए कमाला हैरिस ज़िम्मेदार है’, ताल ठोक कर ट्रम्प कहते हैं। सभी जानते हैं, ट्रम्प अपने अहम् के शिखर पर खड़े हो कर बोलते हैं, पत्रकारों को लापरवाही के साथ ज़वाब भी देते हैं।
इस दृष्टि से, वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से अधिक चतुर और कलाबाज़ हैं। पिछले दस सालों में मोदी जी तो एक भी प्रेस कांफ्रेंस नहीं कर सके हैं, वहीं कमला हैरिस और ट्रम्प करते रहते हैं। लेकिन, आज ट्रम्प का चेहरा कुम्हलाया-सा लग रहा था। उनके चेहरे पर रौनक़ गायब थी। वहीं, हैरिस का चेहरा खिला रहता है। वे इंटरव्यू दे रही हों या मीडिया के सवालों से घिरी हों, खिलखिलाहट उनका पीछा नहीं छोड़ती है। हैरिस की मुक्त हंसी से ट्रम्प ज़रूर विचलित हो जाते हैं। शायद इसलिए, वे रेडिकल लेफ्टिस्ट और माइग्रेंट के मुद्दों से हैरिस के बढ़ते आकार को कतरने की कोशिश कर रहे हैं। यह जानना भी कम रोचक नहीं है कि इसी सप्ताह भारतवंशी उपराष्ट्रपति कमला हैरिस ने एक आर्थिक मंच पर कहा था,
“मैं पूंजीवादी हूं। मैं ईमानदार निजी क्षेत्र के पूंजीपतियों के साथ हूं। मैं व्यावहारिक हूँ। अमेरिका की अर्थव्यवस्था चंद लोगों के लिए नहीं, सबके लिए समान होनी चाहिए। निम्न और मध्य वर्ग राष्ट्र की आर्थिक नीति की रीढ़ हैं। छोटे व्यापारी हैं, उनके हितों को कैसे नज़अंदाज़ किया जा सकता है?”
अमेरिका में आज भी मार्क्सवादियों, साम्यवादियों और समाजवादियों को अमेरिका के दुश्मन के रूप में देखा जाता है। रिपब्लिकन समर्थक उन्हें नफ़रत की नज़र से देखते हैं। आम जन सोचते हैं कि समाजवादी या मार्क्सवादी जनता और प्रगति के दुश्मन होते हैं।
एक प्रकार से, ट्रम्प इन सम्बोधन के ज़रिये हैरिस के विरुद्ध पांचवें दशक के ‘मैकार्थीवाद‘ को पुनर्जीवित करने की जी-तोड़ कोशिश कर रहे हैं। इसकी सबसे बड़ी वज़ह यह है कि हैरिस की लोकप्रियता बढ़ती जा रही है। उन्होंने उन क्षेत्रों में सेंध लगाना शुरू कर दिया है जोकि ट्रम्प के अभेद्य गढ़ माने जाते थे। मतदाता मतदान के लिए तैयार भी होते जा रहे हैं। इस तैयारी में शामिल व्यस्क मतदाताओं के साथ-साथ नाबालिगों को भी मतदान-प्रक्रिया और चुनावी मुद्दों से परिचित कराना है। इसके लिए अभिभावक पहल करते हुए दिखाई दे रहे हैं।
इसी पृष्ठभूमि में जब मेरी नज़र अपने देश के मतदाताओं और उनकी चेतना पर जाती है तो निराशा होती है। अब देखिए, हमारे प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने ‘एक राष्ट्र -एक चुनाव’ की रट लगा रखी है। इस रट के पीछे असली मंशा क्या है, वही जाने। लेकिन, उनकी फितरत और शासन शैली से एक ही संकेत शिद्दत के साथ उठता है और वह है लोकतांत्रिक संस्थाओं के बेज़ा इस्तेमाल से भारत पर ‘एकछत्र’ हुकूमत। वे शायद अमेरिका की शासन पद्धति ‘राष्ट्रपति शासन प्रणाली’ को भारत में लागू करने का इरादा रखते हैं। यह कितना सही होगा, यह राष्ट्रीय बहस का मुद्दा है। बहस हो भी रही है।
दिलचस्प जानना यह भी होगा कि सामान्य मतदाता भी अपना पाला बदलने से पहले हज़ार बार सोचता है। भारत में तो धड़ल्ले से सांसद, विधायक, पार्षद आदि पाला बदल लेते हैं। नतीज़तन, राज्य सरकारें गिरती -बनती रहती हैं। आयाराम- गयाराम -पलटूराम बन जाने के बावजूद निर्वाचित प्रतिनिधि बड़ी शान से घूमते -फिरते हैं और सदन में नैतिकता पर भाषण भी पेलते रहते हैं। लेकिन, यहां का दृश्य बिलकुल अलग है। कुछ मतदाताओं से बातचीत करने से पता चला कि आम मतदाता आसानी से अपनी पार्टी को बदल नहीं सकता। उसके संपर्क क्षेत्र में उसकी बहिष्कृत-सी दशा हो जाती है। यदि कोई व्यक्ति या समूह अपनी पार्टी बदलना भी चाहता है तो मतदान से काफी पहले अपने फैसले की घोषणा करनी पड़ती है। लोगों के तीखे सवाल-जवाबों का सामना करना पड़ता है। अपने वैचारिक स्तर पर सम्बंधित व्यक्ति को पुख़्ता तैयारी करनी पड़ती है। पिछले कुछ दिनों से रिपब्लिकन पार्टी के कई वरिष्ठ और सामान्य सदस्य ट्रम्प के कारण अपनी पुरानी पार्टी छोड़ रहे हैं। उन्होंने ऐलान भी कर दिया है। अनेक ऐसे भी हैं जो तटस्थ हैं। हैरिस या ट्रम्प में से किसे चुने, यह तय नहीं कर पा रहे हैं। सारांश में, सार्वजनिक जीवन में उदार पूंजीवादी लोकतंत्र के लिए ज़रूरी राजनैतिकता का पालन किया जाता है। ऐसा मुझे दिखाई देता है।
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