जून के आख़िरी सप्ताह में भारत के मुख्य न्यायधीश एन.वी. रमना फिलाडेल्फिया, संयुक्त राज्य अमेरिका के इंडिपेंडेन्स हॉल में भ्रमण पर थे। यह वही इंडिपेंडेन्स हॉल है जहाँ 1776 में सेकेंड कॉन्टिनेन्टल कॉंग्रेस ने ‘आजादी के घोषणापत्र’ पर हस्ताक्षर किए। इसी हॉल में आने वाले 11 सालों बाद अमेरिका के संविधान का निर्माण किया गया। इस ऐतिहासिक स्थान पर पहुँचने के बाद न्यायमूर्ति रमना ने कहा कि ‘हम सभी दुनिया के नागरिकों के लिए, स्वच्छंदता, स्वतंत्रता व लोकतंत्र को बनाए रखने और आगे बढ़ाने के लिए अथक प्रयास करना ज़रूरी है, जिसके लिए हमारे पूर्वजों ने लड़ाई लड़ी है। यही एकमात्र श्रद्धांजलि है जो उनके बलिदान के योग्य है।’
न्यायमूर्ति रमना के शब्दों से साफ़ है कि देश की सर्वोच्च न्यायिक कुर्सी पर बैठने वाला व्यक्ति यह चाहता है और महसूस करता है कि पूरी दुनिया के लोगों को लगातार क्षरित हो रहे मूल्यों- स्वच्छंदता, स्वतंत्रता व लोकतंत्र- को बनाए रखने के लिए जी-जान से कोशिश करनी चाहिए।
वर्तमान पीढ़ी और इसके पहले की लगभग दो पीढ़ियों ने शायद यह ठीक से नहीं जाना कि स्वतंत्रता का खो जाना क्या होता है? एक ऐसी सरकार के प्रेम में रहना क्या होता है जो लोकतान्त्रिक मूल्यों पर भरोसा ही नहीं करती? क्या होता है जब किसी की पसंदगी-नापसंदगी पर सरकार व पुलिस प्रशासन का पहरा होता है? क्या होता है जब समाज के फ्रिंज समूह किसी के फ्रिज में रखा उसका खाना जाँचने पहुँच जाते हैं? क्या होता है जब एक जानवरों से भरी गाड़ी के ड्राइवर को पीट-पीट कर मार डाला जाता है सिर्फ़ इस शक में कि कहीं यह ड्राइवर कोई गौ तस्कर तो नहीं? क्या होता है जब एक ट्विटर पोस्ट के लिए एक महिला को 6 महीने तक जेल में गुजारने पड़ते हैं? क्या होता है जब किसी प्रचलित ह्यूमर को धर्म से जोड़कर किसी पत्रकार को सलाखों के पीछे डाल दिया जाता है? क्या होता है जब सामाजिक कार्यकर्ता आतंकवादी समझा जाने लगता है और दो समुदायों के बीच जहर घोलने वाला व्यक्ति साधु/संत या मंत्री के रूप में जाना जाता है?
भारत जैसे देश के लिए लोकतंत्र और स्वतंत्रता एक क़ीमती मूल्य है। क्योंकि 15 अगस्त 1947 में इस अवस्था तक पहुँचने के लिए लाखों भारतीयों को औपनिवेशिक यातनाओं से गुजरना पड़ा था। अनगिनत आज़ादी के दीवानों को अंग्रेजी हुकूमत ने फांसी दे दी, करोड़ों की संख्या में किसानों की मौत औपनिवेशिक नीतियों के चलते आए दुर्भिक्षों में चली गई। भारत ने लगभग 3 सदियों तक लूट और अपमान को सहा तब जाकर भारत में आज़ादी की महक नथुनों तक पहुँची। लेकिन आज़ादी के बाद राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की एक कायर द्वारा हत्या ने आजादी की महक को कुछ फीका कर दिया। परंतु एक सशक्त संविधान के निर्माण ने देश को एक नई शुरुआत का मौका दिया।
भारत में संवैधानिक लोकतंत्र का विकास अपने 72 साल पूरे कर चुका है। यह कहने में संकोच नहीं होना चाहिए कि देश में नेहरू, पटेल समेत तमाम पहली पीढ़ी के नेताओं के अथक प्रयासों से एक असीमित विविधता से भरे देश में, तमाम शंकाओं के बावजूद लोकतंत्र का प्रयोग पूर्ण रूप से सफल रहा। लेकिन यह हमेशा रहेगा इसमें संदेह है। एक सफल लोकतंत्र की गारंटी वो नागरिक हैं जिनसे ‘प्रस्तावना’ आशा लगाए हुए है।
नागरिक बनना सिर्फ किसी देश में पैदा होने या कुछ कागजातों पर नाम लिख जाने का नाम नहीं है। नागरिक वो है जो प्रतिदिन सुबह से लेकर शाम तक अपनी शिक्षा और व्यवहार से विभिन्न संस्थाओं को खड़ा रखते हैं।
एक सचेत नागरिक हमेशा आपत्तियाँ दर्ज करता है। फिर चाहे ये आपत्तियाँ पुलिस-प्रशासन से हों, स्थानीय नेता से हों, अख़बार या टेलीविजन से हों या फिर स्वयं देश के प्रधानमंत्री से हों। दर्ज आपत्तियों पर संतुलित प्रतिक्रिया समाज में ‘लोकतान्त्रिक यौवन’ को जन्म देती हैं जिसके अपने ‘हॉर्मोन्स’ होते हैं और अपनी कार्यप्रणाली। इस तरह देश का लोकतंत्र सदैव जीवंत रहता है।
सैन फ्रांसिस्को में एसोसिएशन ऑफ़ इंडो-अमेरिकन द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में भारत के मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमना ने कहा कि “मेरे देश की अब तक की 75 साल की लंबी यात्रा लोकतंत्र की ताक़त का प्रमाण है। यह ज़रूरी है कि लोग, विशेषकर छात्र और युवा, लोकतंत्र के महत्व को समझें। आपकी सक्रिय भागीदारी से ही लोकतंत्र कायम और मजबूत हो सकता है। केवल एक सच्ची लोकतांत्रिक व्यवस्था ही विश्व में स्थायी शांति की नींव हो सकती है।" स्पष्ट है कि लोकतंत्र को हमेशा कुछ प्रहरियों की ज़रूरत पड़ती है और निश्चित रूप से प्रहरी के काम के लिए सत्ता में बैठे लोगों से आशा सबसे कम रहती है। यदि छात्र और युवा संवैधानिक लोकतंत्र के महत्व को समझने लगें और अपने जनप्रतिनिधियों और संस्थानों से पूछे जाने वाले अपने सवालों के दायरों को लोकतंत्र की परिसीमा में स्तंभों के रूप में खड़ा कर पाएं तो कोई भी प्राधिकारवादी सत्ता जो लोकतंत्र के माध्यम से सरकार बनाने में कामयाब हो गई है किसी भी हालत में लोकतंत्र के दायरों को नहीं तोड़ पाएगी।
एक चुनाव के बाद दूसरा चुनाव, और दूसरे के बाद तीसरा! लगातार चुनावी मोड पर रहने वाले दल अपनी पार्टी के लिए तो शक्ति जुटा लेते हैं लेकिन लोकतंत्र को चुनावी तंत्र बनाने की उनकी प्रवृत्ति लोकतान्त्रिक संस्थानों को कमजोर करती है। नागरिक और विश्लेषक नाकों, चौराहों और टीवी स्टूडियो पर बैठकर ‘चुनावी मोड’ की पार्टियों और नेताओं की सक्षमता बयान करते थकते नहीं हैं।
जब देश में विपक्षी दलों की राज्यों में सरकारों को ‘दल-बदल’ के माध्यम से बदलने की कोशिश की जाती है तो लोकतंत्र कमजोर होता है, जब नेता किसी एक दल से चुनकर किसी दूसरे दल में ‘मिनिस्टर’ बनने चले जाते हैं तो लोकतंत्र कमजोर होता है। जब एक ही दल की सत्ता देश के हर प्रदेश में ऐन-केन-प्रकारेण स्थापित की जाती है तो लोकतंत्र कमजोर होता है। इससे भी ज़्यादा बड़ी कमजोरी यह है कि जब केंद्र में बैठी कोई सरकार अपनी केन्द्रीय एजेंसियों के माध्यम से यह स्थापित करने में सफल हो जाती है कि विपक्ष का लगभग हर नेता ‘भ्रष्ट’ और सत्ता पक्ष के सभी नेता ‘ईमानदार’ हैं तब यह मान लेना चाहिए कि किसी ने बड़ी होशियारी से लोकतंत्र की कब्र खोद ली है बस समय आने पर उसे दफनाना बाक़ी है।
नूपुर शर्मा के ख़िलाफ़ सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियों के बाद जिस तरह माननीय न्यायालय और न्यायमूर्तियों के ख़िलाफ़ कुछ मीडिया ‘आउटलेट्स’ अभियान चला रहे हैं उससे यह साफ़ है कि सत्तारूढ़ दल और उसकी ‘मूल’ विचारधारा के पक्षधर लोगों के ख़िलाफ़ सर्वोच्च न्यायालय भी कुछ नहीं बोल सकता; सामान्य नागरिकों, पुलिस प्रशासन और विपक्ष की तो कोई मजाल ही नहीं। संस्थाओं को अपने कब्जे में लेने की प्रवृत्ति के खिलाफ ही न्यायमूर्ति रमना ने कहा कि “जैसा कि हम इस वर्ष स्वतंत्रता के 75वें वर्ष का जश्न मना रहे हैं और जब हमारा गणतंत्र 72 वर्ष का हो गया है, तो कुछ अफसोस के साथ मुझे यहाँ यह जोड़ना चाहिए कि हमने अभी भी प्रत्येक संस्थान को संविधान द्वारा सौंपी गई भूमिकाओं और ज़िम्मेदारियों की पूरी तरह से सराहना करना नहीं सीखा है।”
देश के मुख्य न्यायधीश का यह डर कि कुछ लोग/समूह देश के ‘एकमात्र स्वतंत्र अंग’ न्यायपालिका को ख़त्म करना चाहते हैं, वास्तव में डरावना है।
देश का सर्वोच्च न्यायालय, जिसे ‘संविधान का अभिरक्षक’ भी कहा जाता है, अगर उसकी स्वतंत्रता ही ख़तरे में है, उसे ही मिटाए जाने की जुगत लगाई जा रही है तब देश में दलितों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं और जनजातियों को न्याय कौन देगा? कौन उस सत्ता को रोकेगा जो एक बुलेट ट्रेन के ट्रैक के लिए लाखों की संख्या में पेड़ काटने पर आमादा है? उन नेताओं को कौन रोकेगा जो महिलाओं को आज भी कमतर नागरिक मानते हैं? उन सर्वोच्च नेताओं की चुप्पी कौन तोड़ेगा जिनके पास अल्पसंख्यकों के खिलाफ फैलाए जा रहे दुष्प्रचार को रोके जाने की शक्ति है? कौन होगा जो सरकारों और भू-माफियाओं द्वारा आदिवासियों की हड़पी जा रही भूमियों को रोकेगा? मुझे सच में नहीं पता लेकिन इतना ज़रूर है कि यदि नागरिक सचेत होकर न्यायमूर्ति रमना की इस बात का समर्थन करें कि “न्यायपालिका केवल संविधान के प्रति जवाबदेह है”, तो शायद सभी को न्याय सुनिश्चित हो सके। न्यायपालिका सिर्फ संविधान के प्रति जिम्मेदार है किसी सरकार के प्रति नहीं! कोई ज़रूरी नहीं कि हर बार न्यायपालिका सरकारी वकीलों-अटॉर्नी जनरल और सॉलिसिटर जनरल की बात माने ही। क्योंकि सरकार के वकील सरकार का पक्ष रखने के लिए हैं संविधान और नागरिकों का नहीं। वो राष्ट्रपति के इच्छा तक पद पर बने रहते हैं जोकि मंत्रिपरिषद की सलाह पर काम करता है अर्थात सरकार की सलाह पर। सरकार स्वयं के खिलाफ कार्य करने वाले को यह पद प्रदान ही नहीं कर सकती। और मेरी राय में सरकार वो संस्था होती है जो किसी भी हालत में सत्ता नहीं छोड़ना चाहती अब चाहे इसके बीच में किसी का भी हित क्यों न प्रभावित होता हो।
सीजेआई रमना ने सैनफ्रांसिस्को की सभा में बोलते हुए कहा कि "संविधान में परिकल्पित नियंत्रण और संतुलन को लागू करने के लिए हमें भारत में संवैधानिक संस्कृति को बढ़ावा देने की ज़रूरत है। हमें व्यक्तियों और संस्थानों की भूमिकाओं और ज़िम्मेदारियों के बारे में जागरूकता फैलाने की ज़रूरत है।"
एक भाषा को पूरे देश में थोपना, एक विचार को पूरे देश में मनमाने तरीके से रोपित करने की कोशिश करना, साथ ही विभाजन के बीजों का कट्टर संगठनों द्वारा ड्रोन-रोपण देश की समृद्धि और प्रगति को प्रभावित कर रहा है।
कोई देश सिर्फ़ इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स-सड़कें, पोर्ट्स, पाइप्लाइन- के माध्यम से समृद्ध नहीं बन सकता। किसी राष्ट्र की समृद्धि के विभिन्न आयाम होते हैं, पैसा इसमें सिर्फ एक फैक्टर है, यह निर्जीव समृद्धि का उत्पादन करता है लेकिन समृद्धि में जीवंतता आती है संस्कृतियों के घुलने-मिलने और समावेशिता से। इस संदर्भ में भारत के मुख्य न्यायाधीश रमना का यह ऑबजर्वेशन कालजयी है कि "एक राष्ट्र जो खुले हाथों से सभी का स्वागत करता है, एक ऐसा राष्ट्र जो सभी संस्कृतियों को आत्मसात करता है और एक राष्ट्र जो हर भाषा का सम्मान करता है वह प्रगतिशील, शांतिपूर्ण और जीवंत है। यह चरित्र है जो समृद्धि को बढ़ावा देता है।"
सीजेआई रमना आगे कहते हैं कि “समावेशिता का यह सिद्धांत सार्वभौमिक है। इसे भारत सहित दुनिया में हर जगह सम्मानित करने की आवश्यकता है। समावेशिता समाज में एकता को मजबूत करती है जो शांति और प्रगति की कुंजी है। हमें उन मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है जो हमें एकजुट करते हैं। उन पर नहीं जो हमें विभाजित करें।"
करोड़ों लोगों के समर्थन से देश के प्रधानमंत्री के पद तक पहुँचने वाले व्यक्ति और देश के सबसे प्रचलित नेता की आलोचना जब तक हजारों लोग बेखौफ होकर करते रहेंगे देश का लोकतंत्र सुरक्षित रहेगा। क्योंकि नागरिकों का गैर-आनुपातिक प्रेम और समर्थन नेता को लोकतंत्र की हत्या के लिए उकसा सकता है। कारण यह है कि शक्ति की यह एक सहज प्रवृत्ति है। लोकतंत्र की हत्या करने का जो तरीका सर्वसत्तावादी सरकारों द्वारा अपनाया जाता है उसमें लोकतंत्र के सभी स्तंभों को एक एक करके गिराया जाता है, ऐसे में लोकतंत्र सिर्फ एक छद्म छत मात्र रह जाता है जिसे सर्वसत्तावादी नेता एक आभासी लोकतंत्र को वास्तविक लोकतंत्र के रूप में देश और दुनिया में प्रचारित करता है। दुनिया का लगभग हर लोकतंत्र वर्षों तक ली गई लाखों नागरिकों की बलि का परिणाम है उसे व्यर्थ जाने से रोकने के लिए हर संभव प्रयास किए जाने चाहिए।
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