माघ का महीना। साजन मिश्र का स्वर। राग सोहिनी। बसंत का आगाज। जैसे नव जीवन का आयोजन कुंभ, प्रयाग से उठकर दिल्ली आ गया। साजन मिश्र और उनके बेटे स्वरांश मिश्र ने ‘आई ऋतु नवेली खेलो बसंत’ को इसी राग में पिरोये अपने सुरों में साधा तो दिल्ली के कमानी सभागार में बसंत की लहरों का एहसास होने लगा। त्रिवेणी संगम की तरह तबला पर उनके साथ संगत किया पंडित विनोद लेले ने। अवसर था मशहूर गायक पंडित सी आर व्यास जन्म शताब्दी समारोह का। सी आर व्यास ने शास्त्रीय गायन को एक नयी पहचान दी थी। साजन मिश्र शास्त्रीय संगीत की उसी पीढ़ी के प्रतिनिधि हैं।
एक समय साजन मिश्र अपने बड़े भाई राजन मिश्र के साथ बेजोड़ युगल गायन के प्रतिनिधि थे। राजन मिश्र के गुजरने के बाद उनके बेटे स्वरांश उनका संगत करते हैं।
सोहिनी या सोहनी को आक्रामक कामुकता का राग माना जाता है। राग बसंत की तरह यह बहुत छोटा राग है लेकिन राग बसंत जहां जीवन के उत्सव को स्वर देता है वहीं राग सोहिनी में प्रेम और विरह के साथ आसक्त मिलन का दर्द इसे अनोखा बना देता है। मोहम्मद रफ़ी और लता मंगेशकर की आवाज़ में फ़िल्म स्वर्ण सुंदरी का गीत “कुहू कुहू बोले कोयलिया” का धुन राग सोहिनी पर ही आधारित था।
साजन और स्वरांश मिश्र ने गायन की शुरुआत राग जोग कौंस पर आधारित राम दास की रचना “काहे गुमान करे तू बावरे, अपने को पहचान” से की। रामदास की एक और रचना “जगत है समझ सपना, कोउ नहीं अपना” को उन्होंने बिल्कुल नए अंदाज़ में पेश किया। साजन मिश्र सुर जब सप्तम स्वर में होती है तो उसकी झंकार श्रोताओं के दिल में भी सुनायी देती है। उनकी एक रचना “चलो मन वृंदा वन की ओर” गहन आध्यात्मिक एहसास दिला गयी।
कार्यक्रम की शुरुआत पंडित सी आर व्यास के बेटे सतीश व्यास ने संतूर वादन से की। उन्होंने राग धनकुड़ी कल्याण और राग पहाड़ी में कुछ अति विशिष्ट रचनाओं को पेश किया। संतूर एक मुश्किल वाद्य यंत्र है। सारंगी की तरह इसमें सौ तार होते हैं। सारंगी को तारों के एक धनुष से बजाया जाता है जबकि संतूर में सौ तारों को छड़ियों से छेड़ कर धुन निकाला जाता है। सतीश व्यास के सधे हुए हाथ जब राग पहाड़ी में संतूर को छेड़ने लगे तो ऐसा एहसास हुआ जैसे कहीं दूर क्षितिज के पार कोई स्त्री उत्सव के भाव में गुनगुना रही है।
शास्त्रीय संगीत को अकादमिक ऊंचाइयों तक पहुँचाने वाली पीढ़ी अब विदा हो रही है। पिछले कुछ महीनों में उस्ताद राशिद ख़ान, पंडित राम नारायण और तबला उस्ताद जाकिर हुसैन ने दुनिया को अलविदा कह दिया। गिने-चुने बचे हुए लोगों को मंच से सुनना भी सागर में मोती मिल जाने की तरह है।
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