नैनीताल के रामगढ़ में बरसात तो दो ही दिन से हो रही थी इसलिए ज्यादा चिंता भी नहीं थी। बीते जून में ही छह दिन की बरसात हो चुकी थी जिसका कोई ज्यादा असर भी नहीं पड़ा था। 17 अक्टूबर से बरसात शुरू हुई। यह बरसात 18 अक्टूबर को और तेज हो गई तो चिंता हुई। हमें 19 अक्टूबर की सुबह लखनऊ निकलना था।
दोपहर में टैक्सी ड्राइवर अतीक को फोन किया तो वह काठगोदाम से आगे रास्ते में था, हमने कहा, “बरसात बहुत ज्यादा हो रही है इसलिए आज शाम को ही रामगढ़ आ जाओ काठगोदाम चले जाएंगे।” पर अतीक का जवाब था, “सर चिंता न करें सुबह आठ बजे आपके दरवाजे पर रहूंगा।” हमने कहा, “ठीक है।”
मन आशंकित था क्योंकि केदारनाथ हादसे के समय भी हम यहीं थे और भारी तूफान आया था। दोपहर की ट्रेन थी और कोई गाड़ी काठगोदाम जाने के लिए तैयार नहीं थी।
लखनऊ विश्वविद्यालय के साथी सनत सिंह तब आरटीओ हल्द्वानी थे, उन्हें बताया तो बोले चिंता न करें आपको लेने के लिए गाड़ी भेज रहा हूं। गाड़ी आई और बहुत मुश्किल से हम काठगोदाम पहुंच पाए। रास्ते में जगह-जगह पेड़ पत्थर गिरे थे।
काठगोदाम पहुंचने के कुछ देर बाद ही पता चला कि महेशखान जंगल के पास देवदार का बड़ा दरख्त गिरने से रास्ता बंद हो गया है जिसे खुलने में कई घंटे लगेंगे। वही दृश्य सामने था।
बहरहाल, बरसात लगातार तेज हो रही थी और छत का पानी एक जगह किसी बड़े नाले की तरह नीचे के बरामदे की एक क्यारी में गिर रहा था। लाइट थी, या नहीं थी पर मिट्टी वाला पानी आने की वजह से टंकी का कनेक्शन बंद करा दिया ताकि उसके साफ पानी का इस्तेमाल हो सके।
19 अक्टूबर की सुबह नींद खुली तो नजर खिड़की के सामने गई। खिड़की पर धुंध से साफ नजर नहीं आ रहा था। बरामदे में सामने की खिड़की का शीशा साफ किया तो जो देवदार और कई और दरख्त दिखते थे वह नहीं दिखे।
डराने वाला मंजर
बगल के मान कॉटेज का बड़ा हिस्सा साफ था। मिट्टी और पेड़ पौधे सब नीचे बह गए थे। तभी बगल के रिजॉर्ट के मैनेजर को देखा जो हाथ का इशारा कर बुला रहा था। फिर नीचे की तरफ नजर गई तो अपना चिनार और नाशपाती का पेड़ भी नहीं दिखा। क्यारी और रिटेनिंग वॉल का एक हिस्सा भी बह कर कुछ दूर जा चुका था। यह सब डराने वाला था।
अपना सामान बंधा हुआ था काठगोदाम निकलने के लिए। फिर अतीक को फोन किया यह पूछने के लिए कि वह कहां तक पहुंचा है। पर अतीक का जवाब सुनकर तनाव और बढ़ गया। अतीक ने कहा, “काठगोदाम से सारी ट्रेन रद्द हो चुकी हैं क्योंकि काठगोदाम और हल्द्वानी के बीच एक जगह पटरी के नीचे से जमीन ही बह चुकी है। दूसरा, काठगोदाम से आगे पहाड़ पर किसी वाहन को नहीं जाने दिया जा रहा है। जगह-जगह पहाड़ गिर गए हैं और कोई भी नहीं निकल पा रहा है।”
फिर पंकज आर्य को फोन मिलाया जो डाक बंगला के पास रहता है ताकि आसपास का हाल मिले। पंकज ने कहा, “सर बहुत तबाही हो गई है। तल्ला रामगढ़ में कई घर बह गए हैं। करीब दर्जन भर मजदूर दब गए हैं, आप घर से बाहर अब न निकलें।”
इस बीच बगल के रिजॉर्ट का मैनेजर भी आ गया और बोला, “आपके घर के नीचे पानी का बहाव काफी तेज है और जमीन कट रही है आप हमारे कॉटेज में आ जाएं।”
अब तो न बिजली थी और न पानी, न ही कहीं जाने का कोई रास्ता। ऊपर बस स्टेशन जाने के रास्ते में दीपा कौल के घर से आगे पहाड़ का बड़ा हिस्सा गिर कर रास्ते पर आ चुका था।
नीचे डाक बंगला रोड एक मोड़ के नीचे ही बंद हो चुकी थी क्योंकि देवदार के कई पेड़ उस पर गिर चुके थे। बाहर निकलने की अब कोई संभावना नहीं थी। इस बीच रिजॉर्ट से जितने भी सैलानी चेक आउट कर निकले थे वे सब वापस आ गए क्योंकि सभी रास्ते बंद थे। सैलानियों की हालत देख हमने भी कमरा छोड़ दिया ताकि उन्हें कोई दिक्कत न हो।
फोन का संपर्क टूटा
दरअसल, अपने पास दो विकल्प और थे। बगल के मान साहब घर आकर कह गए थे कि या हमारे यहां आ जाएं कोई खतरा नहीं है। दूसरा, हमारे यहां काम करने वाली लता ने ही हमारे लिए एक कमरा अपने घर में तैयार कर दिया था जो कुछ समय पहले ही बना था। दिन में हम वहीं थे और रात में मान कॉटेज में। इस बीच फोन से संपर्क पूरी तरह टूट चुका था।
20 अक्टूबर की सुबह हम घर लौटे और नहाने के बाद नाश्ता किया। समस्या फोन की थी। इस बीच यह पता चला कि रामगढ़-भवाली का रास्ता खुल गया है। हमें लगा कि अब निकलने का प्रयास फिर करना चाहिए पर कैसे?
इस बीच लता के घर पर अचानक मेरे फोन की घंटी बजी तो देखा कोलकाता से जनसत्ता के पुराने साथी प्रभाकर मणि तिवारी का फोन था। मैंने उनसे कहा कि आप आशुतोष जी को फोन कर घोड़ाखाल में रहने वाले पूर्व आईजी शैलेंद्र प्रताप सिंह को संदेश दें कि वे मुझे यहां से अपनी गाड़ी भेज कर निकाल लें।
प्रभाकर का फिर फोन आया कि उनका नंबर उनके पास नहीं है तब मैंने कहा कि शीतल सिंह या विभूति नारायण राय साहब से बात कर लें क्योंकि यहां से कोई नंबर नहीं लग रहा है।
बहरहाल, किस्मत ठीक थी राय साहब का फोन आया कि आपको लेने गाड़ी आ रही है। इस बीच शीतल सिंह का भी मैसेज आ गया। इस बीच जो रास्ता डाक बंगला की तरफ जाता है, हम उस पर निकल पड़े ताकि आसपास का हाल लिया जा सके। पर जहां देवदार के पेड़ गिरे थे, उन्हें काट तो दिया गया था पर गीली मिट्टी का ढेर पार करना बहुत मुश्किल था। बरसात हो रही थी और पहाड़ से काफी तेजी से पानी सड़क पर आ रहा था।
धंस गई सड़क
राय साहब के घर की तरफ बढ़े तो करीब डेढ़ फलांग तक की सड़क धंसी हुई नजर आई। दरअसल यह पहाड़ी ही कुछ धंस रही है। इसी तरफ रहने वाले बच्चू बाबू शाम को ही अपना घर छोड़ कर दूसरी जगह चले गए थे। पहाड़ी में दरार आ गई थी।
नीचे का हाल और खराब था पर ज्यादा नीचे जाने का कोई रास्ता भी नहीं था। अब हमें अपने निकलने की व्यवस्था भी करनी थी क्योंकि पानी पूरी तरह बंद हो चुका था।
हम किस तरह बाजार तक पहुंचें, यह भी समस्या थी। घर के आगे कुछ दूर पर मलबा था और वहां से पैदल निकलना भी संभव नहीं था। अपने पास एक अटैची, दो बैग थे जो भारी थे पर पहिये वाले थे जिन्हें लेकर हम करीब एक किलोमीटर तक चले।
फिर पहाड़ का कच्चा रास्ता भी। चढ़ाई पर सामान के साथ चलने पर सांस फूल चुकी थी। किसी तरह रुक-रुक कर ऊपर बस स्टेशन पहुंचे। डर यही था कि फोन संपर्क न होने पर गाड़ी वापस चली गई तो हमें फिर नीचे आना पड़ेगा।
खैर बाजार में कृष्णा जोशी की दुकान पर सामान रखवा कर अखबार के बारे में पूछा तो पता चला कोई वाहन ही नहीं आ रहा है, अखबार क्या आएगा। इसी बीच वहीं पर शैलेंद्र जी दिख गए जो अपने मित्र के साथ आए हुए थे। उन्हें देख कर जान में जान आई कि अब यहां से निकल सकते हैं। हम निकले घोड़ाखाल के लिए।
रास्ते में जगह-जगह पहाड़ का मलबा गिरा हुआ था। पेड़ भी कई जगह गिरे हुए थे। इन्हें काट कर रास्ता साफ किया गया था।
तबाही वाली बारिश
उत्तराखंड में हाल की भारी बरसात ने सौ साल का रिकॉर्ड ही नहीं तोड़ा, बल्कि पहाड़ के इस अंचल को तबाह भी कर दिया है। पहले तो हमें भी यही लगा कि बादल फट गया। तकनीकी रूप से इसे अतिवृष्टि ही बताया गया है। इस आपदा का सबसे ज्यादा असर नैनीताल जिले के भीमताल, भवाली, रामगढ़, नथुआखान, तल्ला रामगढ़ से लेकर भीमताल में हुआ है। रामगढ़ में तो हमारे सामने का ही पहाड़ दरक गया।
बेतरतीब निर्माण से मुसीबत
करीब तीन दशक से इस अंचल से अपना नाता रहा है, लेकिन ऐसी आपदा और तबाही पहले कभी नहीं देखी। दरअसल, पानी के परंपरागत स्रोत बंद कर बेतरतीब निर्माण भी इस नुकसान की एक वजह रही है। दूसरा, जिस तरह जेसीबी मशीन लगाकर कच्चे पहाड़ पर रास्ता बनाया गया, वह भी बहुत खतरनाक है।
अपनी राय बतायें