कहने को जितिन प्रसाद तीन पीढ़ी पुराने कांग्रेसी हैं। उनके दादा ज्योतिप्रसाद शाहजहांपुर में स्वतन्त्रता पूर्व के कांग्रेस कार्यकर्ता थे। वह काउन्सिल और लोकल बॉडी में भी निर्वाचित हुए थे। जितिन के पिता जितेंद्र प्रसाद भी कांग्रेस में बड़ी हैसियत और बड़े पद तक पहुँचने वाले नेता के रूप में उभरे थे। यूँ तो वह कुछ समय के लिए कांग्रेस अध्यक्ष राजीव गाँधी के राजनीतिक सचिव भी रहे हैं लेकिन 1990 के दशक के दौर में जब यूपी में कॉंग्रेस का लट्टू पूरी तरह से बुझने लगा था, कुछ समय के लिए जितेंद्र प्रसाद के राजनीतिक कैरियर का दीपक जल उठा था। वह किसी तरह पीवी नरसिंह राव के क़रीब आ गए। उनके प्रधानमंत्रित्व और पार्टी अध्यक्षता वाले काल में पहले वह पार्टी अध्यक्ष के राजनीतिक सचिव रहे और बाद में पीवी नरसिंहराव ने कुछ समय के लिए उन्हें उत्तर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष का पद भी सौंपा था।
इससे लेकिन प्रदेश में बड़ी सामाजिक हैसियत वाले क़द्दावर नेता के रूप में उनका आकलन करना राजनीतिक रूप से सही नहीं होगा। ग़ौरतलब है कि 1990 का दशक प्रदेश कांग्रेस के लिए राजनीतिक पतन का शुरुआती काल था।
सन 2000 में सोनिया गाँधी के नेतृत्व को ललकारने वाले शरद पवार, पीए संगमा, और राजेश पायलट के समूह में वह भी शामिल थे। दुर्भाग्य से राजेश पायलट इसी वर्ष एक सड़क दुर्घटना में चल बसे थे और जितेंद्र प्रसाद राजनीतिक महत्वाकांक्षा के पुदीने के पेड़ पर चढ़कर सोनिया गाँधी के ख़िलाफ़ अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ बैठे। सोनिया को मिले 7,542 वोटों के बदले उन्हें इस चुनाव में सिर्फ़ 94 वोट ही मिले थे। चुनाव का नतीजा आते ही उन्होंने सोनिया गाँधी पर ‘मैच फिक्स’ किये जाने का आरोप लगाया था। इसके तत्काल बाद 'इंडिया टुडे' को दिए इंटरव्यू में उन्होंने यह माना था कि यदि ऐसा (मैच फिक्सिंग) नहीं होता तो भी वह उनसे चुनाव नहीं जीत पाते। अपनी हार के 2 महीने बाद ही उन्हें हुआ गंभीर 'ब्रेनहैमरेज' उनके लिए प्राणघातक साबित हुआ।
पिता के गुज़र जाने के बाद जितिन प्रसाद के पास बहुत दिनों तक राजनीतिक शरण स्थली की तलाश में भटकने के अलावा दूसरा विकल्प ही क्या था? यूँ शिखर की राजनीति के सूत्र पकड़ने के कुछ-कुछ हुनर उन्होंने पिता से सीखे ही थे। सन 2001 में जोड़-तोड़ करके वह यूथ कांग्रेस महासचिव बनने में कामयाब हो गए।
सन 2004 में ही राहुल गाँधी की सिफारिश पर लोकसभा चुनावों में कांग्रेस ने जितिन प्रसाद को शाहजहांपुर से टिकट दिया। वह न सिर्फ़ चुनाव जीते बल्कि सन 2008 में मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल में भी शामिल कर लिए गये।
मनमोहन मंत्रिमंडल में वह सबसे कम आयु वाले सदस्य थे। सन 2009 में पुनर्सीमांकन के चलते उन्हें निकटवर्ती धौरारा (ज़िला लखीमपुर खीरी) से टिकट मिला। वह फिर चुनाव जीते। वह दूसरे मनमोहन मंत्रिमंडल में फिर राज्य मंत्री बन गए।
अभी तक उनकी गिनती कांग्रेस के 'युवा' नेताओं में होती थी। न तो उन्हें ब्राह्मण नेता बनने का शौक़ चर्राया था और न आलाकमान ने उन्हें ऐसा कोई दिशा निर्देश ही दिए थे। दरअसल, 2014 के लोकसभा चुनावों तक कांग्रेस के राजनीतिक एजेंडे के 'कोर' में उस ब्राह्मण की चिंता नहीं व्यापी थी जो आज़ादी के 5 दशकों बाद तक उनकी मतपेटियों में नतमस्तक होकर झड़ता था।
बीजेपी निजाम आने और ठाकुर अजय मोहन बिष्ट उर्फ़ योगी आदित्यनाथ के सत्तासीन होने के बाद जब पूरे प्रदेश में 'ठाकुरवाद' की तेज़ आंधी चली, ब्राह्मणत्व का बचा-खुचा 'तेज' और अधिक मलिन हो गया। आमफ़हम प्रचार यही चला कि 'योगी सरकार पर ठाकुरवाद हावी है।'
मुख्यमंत्री ने भी राजनीतिक और प्रशासनिक आचरण या वक्तव्य में स्वयं के जातिवादी न होने के किसी प्रकार के कोई संकेत देना ज़रूरी नहीं समझा। यही नहीं, योगी मंत्रिमंडल में एक उप मुख्यमंत्री, 2 काबीना और 5 राज्यमंत्री ब्राह्मण हैं। आरोपों के ऐसे शोरशराबे के बीच इन आठों ब्राह्मण राजनेताओं ने भी कभी आगे बढ़कर प्रदेश के ब्राह्मणों के बीच अपनी सरकार के ‘ठाकुरवादी' होने के आरोपों का न तो खंडन किया न सत्यापन। भाजपा के 50 से ज़्यादा ब्राह्मण विधायकों में भी किसी ने आम जनता के बीच जाकर अपनी सरकार के ब्राह्मण विरोधी होने के प्रचार का खंडन करने की कोई ज़रूरत नहीं समझी। न मुख्यमंत्री और न पार्टी आलाकमान ने ही उन्हें ऐसा करने की कोई 'नेक' सलाह दी। प्रदेश की राजनीति में ऐसा घालमेल पहले कभी देखने में नहीं आया। घालमेल की इस गंगा में विधायक से लेकर मंत्री, उपमुख्यमंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री सभी तब तक डूबते-उतराते रहे जब तक उस गंगा में मानव शवों के निकलने का सिलसिला न शुरू हो गया।
योगी सरकार पुलिस इनकाउंटर के लिए कुख्यात इसलिए भी रही क्योंकि उसे न सिर्फ़ "ठोक देने" का मन्त्र स्वयं मुख्यमंत्री ने दिया था बल्कि इन निर्मम हत्याओं के बाद उन्होंने ही पुलिस वालों की पीठ भी ठोकी थी। जब तक प्रदेश में होने वाली फर्जी मुठभेड़ों में मुसलमान और ग़ैर स्वर्ण जातियों से जुड़े लोग मारे जाते रहे, योगी पुलिस पर सांप्रदायिक या जातिवादी होने का लेबल चस्पा नहीं हुआ लेकिन ज्यों ही कुख्यात अपराधी विकास दुबे और उसके दूसरे ब्राह्मण गुर्गे मुठभेड़ों में हताहत हुए, 'ब्राह्मणों पर होने वाली ज़्यादत्तियों' का कोहराम मचना शुरू हो गया।
यूँ कांग्रेस के पास यूपी में अपेक्षाकृत बड़े जनाधार वाले प्रमोद तिवारी सरीखे वरिष्ठ ब्राह्मण नेता मौजूद थे लेकिन उनसे निजी नापसंदगी के चलते ब्राह्मण कार्ड खेलने के 'नेक काज' के लिए राहुल गांधी ने अपने चेले जितिन प्रसाद को ब्राह्मण चोले में विलीन होने की नसीहत दी और अपने गॉडफ़ादर के निर्देश के बाद जितिन प्रसाद सन 2020 में परशुराम के अवतार में प्रकट हो गए।
शंख-ढोल बजाकर जितिन ने 'ब्राह्मण संवाद' के नाम से एक तथाकथित संगठन खड़ा किया और ब्राह्मणवाद का नारा लगाते हुए पूरे प्रदेश में ब्राह्मण चेतना यात्रा' निकालने लग गए। ये यात्राएँ सूबे में विप्रजनों पर होने वाले 'अत्याचारों' के विरुद्ध थी।
यह वस्तुतः योगी आदित्यनाथ के 'ठाकुरवाद' की गूँज का चरम था और सभी विरोधी राजनीतिक दलों में इसके विरुद्ध ब्राह्मणों को संगठित करने की होड़ मची हुई थी। गत वर्ष बसपा सुप्रीमो मायावती ने घोषणा की कि उनकी पार्टी सत्ता में आयी तो महर्षि परशुराम की एक भव्य मूर्ति का निर्माण करवायेगी। उन्होंने ब्राह्मणों को यह भी जताया कि सन 2007 में ब्राह्मणों, दलितों और मुसलामानों के सहयोग के बल पर ही वह सत्ता में आयी थीं। उन्होंने टिकट देने के मामले में ब्राह्मणों को समुचित प्रतिनिधित्व देने का भी वादा भी किया। सपा सरकार में मंत्री रहे अशोक मिश्र ने भी सत्ता प्राप्ति के बाद परशुराम की विशालकाय मूर्ति के निर्माण की घोषणा के अलावा परशुराम जयंती के सरकारी अवकाश घोषित किये जाने के अखिलेश यादव के संकल्प का भी उल्लेख किया था।
2020 और 21 यूपी के राजनीतिक क्षितिज पर ब्राह्मणों की चिंताओं में डूबे साल साबित हुए। बीजेपी का आलाकमान इन्हें ज़्यादा गंभीरता से नहीं लेता यदि 2 अन्य घटनाएँ न घटित होतीं। पहला तो कोविड प्रबंधन में योगी प्रशासन का क्रूरता की सीमा तक असफल हो जाना और दूसरा था पंचायत चुनावों में काशी और अयोध्या जैसे हिंदुत्व के गढ़ों पर भाजपा का धराशायी होकर औंधे मुंह लुढ़क पड़ना।
भाजपा आलाकमान इन सारे दुःख दर्दों का इलाज ब्राह्मण मलहम में ढूंढ रहा है जो हर हालत में नाकाम साबित होगा।
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