जितिन प्रसाद के बीजेपी में शामिल होने के मुद्दे पर प्रतिक्रिया जानने पर उपेक्षा के हाशिये के पार बैठे पूर्वांचल बीजेपी से जुड़े एक महत्वपूर्ण ब्राह्मण राजनेता ने जवाब दिया "चलिए बीजेपी में ब्राह्मणों की पूछ तो शुरू हुई। जितिन प्रसाद को शाहजहांपुर और लखीमपुर खीरी से बाहर का भले ही इक्को ब्राह्मण न जानता होय, लेकिन इससे यह तो साबित होता ही है कि उन दो-ढाई करोड़ ब्राह्मणों की नाराज़गी से बीजेपी घबराई हुई है जो पिछले 30 -32 सालों से उनकी चाकरी में लगे हुए थे लेकिन जिन्हें कभी पूछा नहीं गया।"
अगले साल होने वाले 5+2 राज्यों के विधानसभा चुनावों की पूर्व बेला में कांग्रेस के नेता जितिन प्रसाद को ब्राह्मण नेता के रूप में सजा-संवार कर पार्टी की झोली में समेट लेने से बीजेपी ढोल-टाँसे पीट कर एक तीर से तीन आखेट कर लेना चाहती है।
एक तीर से तीन शिकार
पहला: यूपी में योगी आदित्यनाथ के कथित 'ठाकुरवाद' के बरअक्स त्राहिमाम-त्राहिमाम का जाप करते उन 12% नाराज़ ब्राह्मण मतदाताओं को पुचकारना जो रामजन्म भूमि आंदोलन के 80 के दशक के प्रारंभिक काल से ही कांग्रेस के पाले से कूद कर उसकी गोद में जा बैठे थे।
दूसरा: इस फेरबदल के चलते अपने ही मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को बिलकुल किनारे करके यह जताना कि यूपी की सियासत में उनके बिना भी बहुत कुछ किया जा रहा है।
तीसरा और राष्ट्रीय स्तर पर सबसे महत्वपूर्ण यह कि पार्टी छोड़कर तृणमूली बनने की होड़ में पश्चिम बंगाल में पार्टी विधायकों और कार्यकर्ताओं में मची ज़बरदस्त भगदड़ की ओर से देश का ध्यान खींचकर यह जताना कि भगदड़ अकेले उसके यहाँ नहीं है, सर्वत्र है। सवाल यह है कि ‘शस्त्र कंजूसी’ से किये गए इस आखेट में बीजेपी सचमुच कितनी क़ामयाबी हासिल कर सकेगी?
आज़ादी के तत्काल बाद से ही यूपी की सत्ता के गलियारे ब्राह्मण नेतृत्व की चकाचौंध से जगमगाते रहे हैं। केंद्र में जवाहरलाल नेहरू और प्रदेश में गोविंदबल्लभ पंत ब्राह्मण दंड-ध्वजा को सहेजने वाले राज नेता के रूप प्रतिध्वनित होते रहे हैं।
यह कम आश्चर्य की बात नहीं है कि केवल 10 प्रतिशत की (प्लस/माइनस) आबादी वाला होने के बावजूद वे न सिर्फ प्रदेश की सामंती सामाजिक संरचना में राजपूतों के समानांतर बड़ी कृषि जोतों के मालिक बने रहे बल्कि शहरी समाज में भी उनकी हैसियत प्रभावशाली संप्रभुओं की थी।
उप्र की नौकरशाही में धमक
उप्र की उच्च पद नौकरशाही से लेकर शिक्षा के बड़े ‘आंगनों’ में दबंगई उन्ही की चलती थी। पंत के बाद भले ही संख्यावार कुल चार अन्य विभूतियाँ (कमलापति त्रिपाठी, हेमवतीनंदन बहुगुणा, नारायणदत्त तिवारी और श्रीपति मिश्र) ही ब्राह्मण समुदाय से उप्र के मुख्यमंत्री पद पर आसीन हुईं लेकिन अल्पमत का होने के बावजूद ब्राह्मणों के सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक और सांस्कृतिक दबदबे के चलते प्रदेश की सियासत में इन चारों की रंगत और रूतबा बाकी मुख्यमंत्रियों की तुलना में बड़ा विस्तृत, व्यापक और धमक तथा जलवा बिखेरने वाला था।
चौधरी चरण सिंह की सेंध
ब्राह्मण प्रभुत्व के इस सारे दौर में हालाकि 3 दशक बाद ही चौधरी चरण सिंह ने सेंध लगा दी थी और उन्होंने तमाम 'पिछड़ों' को अपने जाट छाते के भीतर समेटने का सिलसिला शुरू कर दिया था लेकिन स्वतन्त्रता आंदोलन के सामाजिक युग के दबाव में जन्मा चौधरी चरण सिंह का नजरिया, ब्राह्मणों के विरुद्ध प्रबल घृणा से परिपूर्ण नहीं था और यही वजह है कि प्रदेश की राजनीति में ब्राह्मण सम्प्रभुता का दबाव आज़ादी के 5 दशक बाद तक चल सका।
ब्राह्मण सम्प्रभुता की नींव के ढह जाने का असली दौर 1990 में 'मंडल कमीशन' के लागू होने के दौर में शुरू हुए दशक के ‘ओबीसी वाद’ के युग से शुरू हुआ।
80 के दशक में 'मंडल' के विरुद्ध 'राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ' ने जो 'कमंडल' अभियान छेड़ा, वह अयोध्या में राम जन्म भूमि के नए निर्माण के प्रति जितना संकल्पित था उससे ज़्यादा सवर्णवाद की डूबती नैया के खिवैया बनने की नीयत से था। ज़ाहिर है ब्राह्मण सम्प्रभुता का नायकत्व इसके मूल में था।
'मंडल' ने देश के राजनीतिक परिवेश में जिस गहरायी से हस्तक्षेप करके उसे बदला था, 'संघ' उससे अनभिज्ञ नहीं था। उसने कांग्रेस की तरह की वैसी राजनीतिक नासमझी का उदहारण पेश नहीं किया जैसा कि कांग्रेस बीते 3 दशकों से करती चली आ रही थी। उसने दोनों हाथों में लड्डू थामने की रणनीति बनायी।
दाहिने हाथ का लड्डू
जन्म से उसने ब्राह्मण सम्प्रभुता वाले सवर्णवाद का लड्डू अपने बाएं हाथ में थाम रखा था। अब अपने खाली दाहिने हाथ में उसने पिछड़ों, कतिपय दलितों और आदिवासियों के संयुक्त लड्डू को थाम लिया। कल्याण सिंह से लेकर विनय कटियार, उमा भारती, शिवराज सिंह चौहान और आगे चलकर मनोहर लाल खट्टर जैसे कार्यकर्ता इन्हीं मोतीचूर के लड्डुओं के मोती थे। नयी सदी में बर्फ में से निकाल कर गुजरात की राजनीति में नरेंद्र मोदी जैसे नेताओं की पुनर्निर्माण प्रतिष्ठा किया जाना दाहिने हाथ के इसी लड्डू का कमाल था।
आगे चलकर कैसे 'संघ' ने मोदी को पीएम पद का दावेदार बनाकर पेश किया और कैसे पीएम कैंडिडेट बनने और दो बार चुनाव जीतने के बाद के पिछले 8 सालों से मोदी अपने 'पिछड़े' पन का गान सारे देश को सुनाते रहे हैं, यह बात सर्वविदित है।
ब्राह्मणों को भुला दिया
दोनों हाथों में लड्डू थामे रखने की महत्वाकांक्षा का नतीजा 'संघ' और बीजेपी पर लगने वाले आरोप थे कि वे इस पिछड़े, दलित और दूसरे सवर्णों का हृ्दय जीतते-जीतते अपने मूल सवर्ण (ब्राह्मण) की तो जैसे सुध ही भूल गए हैं। आरोप लगाने वालों में सामान्य ब्राह्मण मतदाता से लेकर पार्टी के ब्राह्मण कार्यकर्ता और राज्यस्तर के ब्राह्मण नेता भी शामिल थे।
सबसे तीखी प्रतिक्रिया उत्तर प्रदेश में मिली जहाँ शत-प्रतिशत मतदातों ने 'घर-घर मोदी' गान गाया लेकिन मुख्यमंत्री बने ठाकुर अजय सिंह बिष्ट उर्फ़ योगी आदित्यनाथ। मुख्यमंत्री का 'ठाकुरवाड़ी हंटर' प्रशासन और सरकारी मशीनरी में सब जगह घूमने लगा था।
पहले मुसलमान और अब ब्राह्मण!
उप्र बीजेपी के 'पॉलिसी रिसर्च विभाग' की अपनी अध्ययन रिपोर्ट बताती है कि अपराधी विकास दुबे के एनकाउंटर ने राज्य में ऐसे ब्राह्मणों को भी अलगाव, अधिकारहीन और स्वयं के उत्पीड़ित होने का अहसास करा दिया जो अमूमन अपराधियों से घृणा करते थे। सोशल मीडिया पर यह पोस्ट लाखों लोगों ने फॉलो की-"फर्जी मुठभेड़ों का शिकार पहले मुसलमान और अब ब्राह्मण.! क्या ख़ूब बराबरी की है योगी जी! धन्यवाद !"
वस्तुतः सीएए उत्पीड़न, कोरोना से जन्मी व्यापक बेरोज़गारी, प्रशासन की बागडोर को 'अंधे' और 'बहरे' अधिकारियों के हाथ में सौंप देने की मुख्यमंत्री की राजनीतिक अकुशलता और इस आपाधापी में विधायकों और मंत्रियों की घनघोर उपेक्षा, कोविड प्रबंधन में ही अस्पतालों के बेड संकट, ऑक्सीजन के अभाव में होने वाली अनगिनत मौतों के जवाब में मुख्यमंत्री का भद्दा झूठ, गंगा में बहते शव, नदी की तलहटियों में दफन हिन्दू लाशों को परम्परागत पद्धति बता कर टालने की एक और झूठ से राजनीतिक ब्रह्मंड में उपजे भयानक नाराज़गी के स्वरों के साथ ब्राह्मण विरोध की ध्वनियाँ जा मिलीं और इस ज़बरदस्त विरोध का परिणाम यह हुआ कि योगी के खिसकने की हवा तेज हो गयी।
अब तक मोदी और योगी का यशगान करने वाला मीडिया इसे ब्राह्मणों से पंगा लेने के प्रतिशोध' के रूप में दिखाने लग गया।
सामने खड़े विधानसभा चुनावों से आतंकित 'संघ', पार्टी और प्रधानमंत्री इन सारी लाइलाज बीमारियों का इलाज मलहम के रूप में तलाशने लग गए और ब्राह्मण मलहम के बतौर उन्हें जितिन प्रसाद नाम का महत्वाकांक्षी युवा कांग्रेसी नेता मिला और वे उसे वे ले उड़े जबकि उनके ‘मेडिसिन बॉक्स' में पहले से ही लक्ष्मीकांत वाजपेयी और महेंद्र नाथ पांडे जैसे वरिष्ठ ब्राह्मण नेता पड़े थे।
वर्तमान के ब्राह्मण विरोध के 'हाहाकार' को यदि इतिहास से जोड़ कर देखें तो स्पष्ट होगा कि 'मंडल आयोग की सिफारिशों' ने एक ओर जहां ओबीसी को समूहबंद किया था, वहीं प्रतिक्रिया स्वरुप सवर्णों का बड़ा हिस्सा भी गोलबंद हुआ था।
श्रीप्रकाश शुक्ल का एनकाउंटर
यूपी में ब्राह्मणों की जातीय गोलबंदी तो इस हद तक हुई थी कि दुर्दांत अपराधी श्रीप्रकाश शुक्ल के एनकाउंटर के बाद जारी उसकी बहन के आंसू टपकाते मार्मिक वीडियो ने दुःख में डूबे यूपी के पढ़े लिखे और उच्च शिक्षित ब्राह्मण परिवारों की लाखों लड़कियों और महिलाओं को भी कई-कई दिन का उपवास रखने को प्रेरित किया था।
मज़ेदार बात यह है कि इस पूरी 'सिम्पेथी वेव' को उकसाने में 'संघ' परिवार की अग्रणी भूमिका थी जबकि ऐसा माना जाता है कि उक्त अपराधी ने 1998 में तत्कालीन बीजेपी मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की 6 करोड़ की सुपारी ली थी जिसकी एवज में प्रदेश पुलिस की एसटीएफ ने उसे मार गिराया था।
‘कमंडल आंदोलन’ का असर
बहरहाल, इससे बड़ी ताज्जुब की बात क्या होगी कि इस 'मंडल आयोग' की प्रतिक्रिया से उपजे ‘कमंडल आंदोलन’ ने पीढ़ियों से चली आ रही भारतीय समाज की पुरानी राजनीतिक प्रतिबद्धताओं को चकनाचूर कर दिया (जिसमें बाप-दादाओं के ज़माने से चले आ रहे राजनीतिक दल और उस सामाजिक-सांस्कृतिक सोच और चेतना के ध्वस्त हो जाने की विडंबनाएं छिपी थीं जो पुरखों के टाइम से 'चलताऊ' ज़बान में गंगा-जमुनी तहज़ीब कहलाती थी) और एक नयी राजनीतिक धारा का सृजन किया।
हिंदुत्व का बहाव
राजनीतिक-धार्मिक सम्मिश्रण से तैयार इस नयी धारा का केंद्र था हिंदुत्व! मज़ेदार बात यह है कि हिंदुत्व के इस बहाव में (जिसका उद्गम स्त्रोत ब्राह्मण संप्रभु नेतृत्व (ब्रह्मनिकल हेजिमनी) था और जो जातिवाद के क्रूर बँटवारे और जातीय घृणा की सैकड़ों-हज़ारों वर्षों पुरानी दीवारों की सदा से रक्षा करता आया था) पिछड़ों और दलितों को तो बहा कर अपने दामन में ले ही आया, यह उन आदिवासियों को भी अपने अंक में भर सकने में सोलहों आने क़ामयाब हुआ जिन्हें उसने अभी तक हिंदुत्व की मुख्यधारा का अंग ही नहीं माना था।
दुनिया के किसी भी राजनीतिक-धार्मिक सम्मिलन की विचार गंगा में यह एक नितांत नया प्रयोग था! यह सम्मिलन लेकिन कुछ ही सालों में अपने भीतर के जैविक विचारों की सड़ांध के चलते इसके भीतर विद्यमान तत्वों के लिए जातीय ऊब पैदा करने वाला बन गया।
इसमें सबसे अधिक नुक़सान मानने वालों में सवर्ण थे और इन सवर्णों में भी 'सब कुछ लुटा के होश में आये तो क्या हुआ’ वाली शिकायत ब्राह्मणों की थी। हक़ीक़त यह है कि लुटा उनका कुछ भी नहीं था, अलबत्ता सत्ता के विहंग बंटवारे के चलते लूटने की उनकी ख़ुद की क़ुव्वत ज़रूर कम हो गयी थी।
जैसे-जैसे समय गुज़रता गया, राजनीति में शामिल ब्राह्मणों की यह 'व्यग्रता' बढ़ती चली गयी। बीजेपी चूँकि या तो सत्ता में थी या सत्ता के निकट पहुँचने की तैयारी में दिखती थी इसलिए यह व्यग्रता यहाँ और भी भड़काऊ तरीके से दिखने लगी।
यूपी क्योंकि बीजेपी की धार्मिक आस्थाओं और राजनीतिक समर का प्रतीक केंद्र था और समूचे सवर्णों सहित ब्राह्मण पिछले कई दशकों से सत्ताच्युत चले आ रहे थे जिनके लिए इससे भी अधिक ‘शर्मनाक’ बात यह थी कि यहाँ वे ओबीसी या दलितों की हुकूमत के 'झेलते' रहने पर बेचैन थे।
(कल के अंक में जारी...)
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