उत्तर प्रदेश में सबसे ज़्यादा आदिवासी आबादी वाले ज़िले सोनभद्र में भूमाफियों ने ज़मीन पर कब्ज़े के लिए दस लोगों को हलाक कर डाला। पूरे ज़िले में दशकों से आदिवासियों की जोती-बोई जाने वाली ज़मीनें ख़रीद और कब्ज़ा रहे बेखौफ़ माफियाओं ने पूरे फ़िल्मी अंदाज़ में सैकड़ों की भीड़ के साथ धावा बोल दिया और दस आदिवासियों की गोली मार कर हत्या कर दी। इसके साथ ही उन्होंने दो दर्जन से ज़्यादा लोगों को घायल कर दिया।
प्रदेश में हुए इस जघन्य हत्याकांड पर क़ानून-व्यवस्था को लेकर सरकार पर सवाल उठाए जा रहे हैं। जहाँ प्रमुख विपक्षी दल ट्वीट और प्रेसनोट के ज़रिए कर्त्तव्य की इतिश्री कर रहे हैं वहीं स्थानीय पत्रकार आदिवासियों के संहार के मुद्दे पर सड़क पर उतर आए हैं। पत्रकारों का कहना है कि पूरे उत्तर प्रदेश में अकेला सोनभद्र ही ऐसा ज़िला है जहाँ दो विधानसभा सीटें आदिवासियों के लिए सुरक्षित हैं पर यहाँ इन्हीं मूल निवासियों का संहार हो रहा है। उनका कहना है कि पूरे ज़िले में आदिवासियों की ज़मीनें छीनी जा रही हैं और विरोध करने पर उन्हें मारा जा रहा है। हालात यह हैं कि बीते दस सालों में सोनभद्र में कई कंपनियाँ और उद्योग समूह भूस्वामी बन चुके हैं और आदिवासी लगातार बेदखल होते जा रहे हैं।
पत्रकारों ने की भूख हड़ताल, 'मजबूरी' में विपक्ष ने दिया समर्थन
सोनभद्र ज़िले के घोरावाल कोतवाली के उम्भा में हुए नरसंहार को लेकर विपक्षी दलों ने जहाँ प्रदर्शन किया वहीं ज़िला स्तर पर काफ़ी मज़बूत इंडियन फ़ेडरेशन ऑफ़ वर्किंग जर्नलिस्ट (आईएफडब्लूजे) की इकाई ने धरना दिया व भूख हड़ताल शुरू कर दी। श्रमजीवी पत्रकार यूनियन के सोनभद्र अध्यक्ष व स्थानीय पत्रकार विजय विनीत भी हड़ताल पर बैठ गए हैं। उनसे मिलने व माँगों को समर्थन देने के लिए कांग्रेस के पूर्व विधायक ललितेशपति त्रिपाठी, सपा पूर्व विधायक संजय यादव और यहाँ तक कि सत्ताधारी दल के नेता भी पहुँचे।
नक्सलवाद प्रभावित रहा है क्षेत्र
विजय विनीत ने बताया कि समूचा सोनभद्र सन 1996 से लेकर 2012 तक नक्सल आंदोलन से जूझता रहा है। इसके पीछे जल-जंगल-ज़मीन से दलितों-आदिवासियों व ग़रीबों की बेदखली प्रमुख कारण रहा है। जब नक्सलवाद अपने चरम पर था, तब भी इस तरह का जघन्यतम नरसंहार नहीं हुआ था। बुधवार को घोरावल के उम्भा गांव में भूमाफियाओं ने जो नरसंहार किया है वह किसी बड़ी साज़िश की तरफ़ इशारा करती है। समूचे जनपद में व्यापक स्तर पर ज़मीनों की हेराफेरी कर लोगों को लाभ पहुँचाने के लिए किया जाता है।
लगातार बेदखल किए जा रहे आदिवासी
इस आदिवासी बाहुल्य जनपद में सदियों से आदिवासियों के जोत-कोड़ को तमाम नियमों के आधार पर नज़रअंदाज़ किया जाता रहा है। तमाम सर्वे के बावजूद अधिकारियों की संवेदनहीनता उन्हें भूमिहीन बनाती रही है। घोरावल के मूर्तिया उम्भा गाँव में हुए खूनी संघर्ष के पीछे प्रशासनिक लापरवाही भी बड़ी दोषी रही है। इस गाँव में पिछले 70 वर्ष से ज़्यादा समय से खेत जोत रहे गोंड़ जनजाति के लोग प्रशासन से गुहार लगाते रहे लेकिन उन्हें उनकी ज़मीन पर अधिकार नहीं दिया गया।
यह मामला 1955 से चला आ रहा है। जानकारी के अनुसार बिहार के आईएएस प्रभात कुमार मिश्रा और तत्कालीन ग्राम प्रधान ने उम्भा की क़रीब 600 बीघा ज़मीन को अपने नाम कराने का प्रयास शुरू कर दिया था। जबकि गाँव के आदिवासी 1947 से पूर्व से ही इन ज़मीनों पर काबिज़ रहे हैं। उक्त आईएएस द्वारा तहसीलदार के माध्यम से 1955 में ज़मीन को आदर्श को-ऑपरेटिव सोसायटी के नाम करा लिया। जबकि उस समय तहसीलदार को नामान्तरण का अधिकार नहीं था। उसके बाद उक्त आईएएस ने पूरी ज़मीन को 6 सितम्बर 1989 को अपनी पत्नी और पुत्री के नाम करा दिया। जबकि क़ानून के अनुसार सोसायटी की ज़मीन किसी व्यक्ति के नाम नहीं हो सकती है। इसी ज़मीन में क़रीब 200 बीघा ज़मीन आरोपी यज्ञदत्त द्वारा 17 अक्टूबर 2010 को अपने रिश्तेदारों के नाम करा दिया गया। उसके बावजूद आदिवासियों का ज़मीन पर कब्ज़ा बरकरार रहा। नामान्तरण के ख़िलाफ़ ग्रामीणों ने एआरओ के यहाँ शिकायत दर्ज कराई थी, लेकिन 6 फ़रवरी 2019 को एआरओ ने ग्रामीणों के ख़िलाफ़ आदेश दिया। ग्रामीणों ने उसके बाद ज़िला प्रशासन को भी अवगत कराया, लेकिन उनकी एक नहीं सुनी गयी।
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