जातियों की सियासत के लिए पहचाने जाने वाले उत्तर प्रदेश में बीएसपी ने ब्राह्मण सम्मेलन शुरू किए तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जनाधार रखने वाली राष्ट्रीय लोकदल (आरएलडी) ने इसके जवाब में भाईचारा सम्मेलन की शुरुआत की है। मंगलवार को मुज़फ्फरनगर के खतौली में भाईचारा सम्मेलन आयोजित किया गया।
बता दें कि बीएसपी के ब्राह्मण चेहरे सतीश चंद्र मिश्रा ने अयोध्या से ब्राह्मण सम्मेलन की शुरुआत की है और ऐसे सम्मेलन पूरे प्रदेश के कई जिलों में आयोजित किए जाने हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश में आरएलडी के साथ गठबंधन में शामिल एसपी के मुखिया अखिलेश यादव शायद इससे परेशान हुए हैं और रविवार को उन्होंने पार्टी के ब्राह्मण नेताओं की बैठक बुलाकर उन्हें भी बीएसपी की तर्ज पर बैठकें करने का निर्देश दिया था।
लेकिन जयंत ने किसी जाति का सम्मेलन करने के बजाय भाईचारा सम्मेलन पर जोर दिया है और इसे नज़दीक आ चुके 2022 के विधानसभा चुनाव से पहले आरएलडी के लगभग ख़त्म हो चुके जनाधार को फिर से वापस लौटाने की क़वायद माना जा रहा है।
आरएलडी के नेताओं के मुताबिक़, ये भाईचारा सम्मेलन दो महीने तक पूरे प्रदेश भर में चलेंगे। आरएलडी के प्रवक्ता अनिल दुबे ने आईएएनएस से कहा कि भाईचारा सम्मेलन का उद्देश्य अगड़े और पिछड़े समुदाय के लोगों को तो साथ लाना है ही, साथ ही हिंदू-मुसलिम एकता को भी बरकरार रखना है।
उन्होंने कहा कि आरएलडी अलग-अलग समुदायों के बीच में बैठक करेगी और ऐसे मुद्दों को उठाएगी जो आम लोगों से जुड़े हों। दो दिन पहले ही अखिलेश यादव पूर्व सांसद जयंत चौधरी के दिल्ली स्थित आवास पर आए थे।
जयंत पर है जिम्मेदारी
आरएलडी का आधार पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ही है और चौधरी चरण सिंह यहां से निकलकर प्रधानमंत्री बने और इस वजह से स्थानीय लोग उन्हें इस इलाक़े का गौरव बताते हैं। उनकी राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने का जिम्मा उनके बेटे चौधरी अजित सिंह के बाद पोते जयंत चौधरी के कंधों पर है। चौधरी अजित सिंह के निधन के बाद जयंत चौधरी को इस दिशा में आगे बढ़ना है।
किसान आंदोलन ने जगाई उम्मीद
2013 के मुज़फ्फरनगर दंगों के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पस्त हो चुकी आरएलडी को किसान आंदोलन से खासी उम्मीद है। कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हुई किसान महापंचायतों ने आरएलडी को जिंदा होने का मौक़ा दे दिया है।
कुछ महीने पहले मुज़फ्फरनगर से लेकर बाग़पत और बिजनौर से लेकर मथुरा और शामली तक हुई इन महापंचायतों में बड़ी संख्या में लोग उमड़े और इनमें जाट, मुसलमान और किसान बिरादरी फिर से साथ खड़ी दिखाई दी।
बता दें कि मुज़फ्फरनगर दंगों के बाद हिंदू मतों का जबरदस्त ध्रुवीकरण हुआ था और जाट और मुसलमान दोनों आरएलडी से दूर हो गए थे। नतीजा यह हुआ था कि चौधरी अजित सिंह और जयंत दोनों चुनाव हार गए थे।
लेकिन किसान आंदोलन में जिस तरह जयंत चौधरी की सक्रियता दिखी और लोग महापंचायतों में उमड़े, उससे लगता है कि आरएलडी अपनी ख़त्म हो चुकी राजनीतिक ज़मीन को फिर से हासिल कर सकती है। राकेश टिकैत के भावुक होने के बाद सबसे पहले उनसे मिलने जो लोग ग़ाज़ीपुर बॉर्डर पहुंचे थे, उनमें जयंत चौधरी प्रमुख थे।
बीजेपी नेताओं की मुश्किल
दूसरी ओर, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बीजेपी से जुड़े जाट नेता जैसे- केंद्रीय मंत्री संजीव बालियान, बाग़पत के सांसद सत्यपाल सिंह और तमाम छोटे-बड़े नेता जानते हैं कि किसान आंदोलन ने जाट-मुसलिम समुदाय को इकट्ठा कर दिया है और अगर यह आंदोलन लंबा चलता है तो उनके सियासी करियर के लिए मुश्किल खड़ी हो जाएगी।
2017 के विधानसभा चुनाव में आरएलडी को सिर्फ़ एक सीट पर जीत मिली थी और वह विधायक भी 2018 में बीजेपी में शामिल हो गया था। जबकि 2012 के चुनाव में उसे 9 सीटों पर जीत मिली थी।
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