यूपी में ओबीसी राजनीति फिर से गरमा उठी है। इस राजनीति को समझने के लिए इसकी तह में जाना जरूरी है।समाजवादी पार्टी ने संकेत दिए हैं कि वो इस मुद्दे पर बड़ा आंदोलन खड़ा करने जा रही है। यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि सपा समेत सारे गैर बीजेपी दल निकाय चुनाव में ओबीसी आरक्षण खत्म होने पर इतने सक्रिय क्यों हो उठे हैं।
इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने मंगलवार को अपने एक फैसले में निकाय चुनाव में ओबीसी आरक्षण खत्म कर दिया है। यानी यूपी में निकाय चुनाव बिना ओबीसी आरक्षण के होंगे। मंगलवार को इस फैसले के आते ही ओबीसी नेताओं ने बीजेपी को घेर लिया और इसे सरकारी साजिश करार दे डाला। हालांकि फैसला कोर्ट ने सुनाया। लेकिन विपक्ष ने सत्तारूढ़ बीजेपी पर आरोप लगाया कि वो जानबूझकर ओबीसी आरक्षण से खिलवाड़ कर रही है। मामला बढ़ता देख मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सरकारी प्रेस नोट जारी करके कहा कि सरकार एक आयोग गठित कर ट्रिपल टेस्ट के जरिए ओबीसी लोगों को आरक्षण की सुविधा उपलब्ध कराएगी और उसके बाद ही चुनाव कराएगी।
यूपी सरकार का बयान साफ बता रहा है कि निकाय चुनाव अभी कुछ दिन के लिए हर हालत में टलेंगे। अब राज्य सरकार कब आयोग बनाएगी और कब फिर से चुनाव की अधिसूचना जारी करेगी, इसके बारे में तत्काल कुछ नहीं कहा जा सकता लेकिन 2024 के आम चुनाव की बिसात अभी से बिछना शुरू हो गई है। हो सकता है कि यूपी सरकार इसमें काफी समय ले और अंत में आयोग वगैरह बनाकर अस्थायी रूप से आरक्षण देकर मामले को टाल दे। तमाम ओबीसी नेता इस चालाकी को समझ रहे हैं।
ओबीसी के बिना यूपी में क्या हैः ओबीसी आरक्षण का मामला सीधे वोट बैंक से जुड़ा है। यूपी सामाजिक न्याय रिपोर्ट 2001 के मुताबिक राज्य में ओबीसी आबादी करीब 54 फीसदी है। मंडल कमीशन ने भी यूपी में ओबीसी आबादी 50 फीसदी माना है। यूपी पिछड़ा वर्ग आयोग के मुताबिक कुल 79 ओबीसी जातियां लिस्ट में शामिल हैं।
2014 से बिगड़ा गणितः बीजेपी ने 2014 से खेल को बदल दिया। उसने ओबीसी के अंदर गैर यादव जातियों का वोट काटा। कुछ फीसदी यादव वोट काटे और सपा का गणित फेल कर दिया। सपा के सिर्फ चंद यादव और मुस्लिम वोटर ही उसके खैरख्वाह बने रहे। बीजेपी ने बीएसपी में गैर जाटव दलित वोटों में भी इसी तरह सेंध लगाकर उधर के वोट भी हासिल किए। यह खेल 2014 के बाद 2017 और 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव में दोहराया गया।
लोकनीति-सीएसडीएस के सर्वे के मुताबिक पिछले एक दशक में बीजेपी ने ओबीसी वोटरों में जबरदस्त पैठ बनाई है। 2009 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को सिर्फ 22 फीसदी ओबीसी ने वोट दिया था। 42 फीसदी वोट क्षेत्रीय दलों को गया था। लेकिन एक दशक बाद 2014 में बीजेपी को 34 फीसदी ओबीसी वोट मिले और 2019 में तो कमाल ही हो गया, 44 फीसदी ओबीसी ने बीजेपी को वोट दिया। 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में सपा और बाकी क्षेत्रीय दल सिर्फ 27 फीसदी वोट पा सके। इन आंकड़ों से साफ है कि बीजेपी ओबीसी राजनीति में बाकी दलों से आगे निकल गई है। यही वजह है कि निकाय चुनाव में ओबीसी आरक्षण को अगर योगी सरकार बहाल नहीं करा पाई तो उसे सौदा महंगा पड़ सकता है। बाकी दल भी इस स्थिति को भांप रहे हैं, इसलिए आंदोलन खड़ा करना चाहते हैं।
सपा इसलिए करेगी आंदोलन
सपा नेता शिवपाल यादव ने कहा- उत्तर प्रदेश निकाय चुनावों में ओबीसी आरक्षण की समाप्ति का फैसला दुर्भाग्यपूर्ण है। सामाजिक न्याय की लड़ाई को इतनी आसानी से कमजोर होने नहीं दिया जा सकता है। आरक्षण पाने के लिए जितना बड़ा आंदोलन करना पड़ा था, उससे बड़ा आंदोलन इसे बचाने के लिए करना पड़ेगा। कार्यकर्ता तैयार रहें। सपा नेता का यह बयान स्पष्ट रूप से सपा कार्यकर्ताओं को इशारा है कि इस मुद्दे पर पार्टी आंदोलन खड़ा करने जा रही है।
उत्तर प्रदेश निकाय चुनावों में ओबीसी आरक्षण की समाप्ति का फैसला दुर्भाग्यपूर्ण है। सामाजिक न्याय की लड़ाई को इतनी आसानी से कमजोर होने नहीं दिया जा सकता है। आरक्षण पाने के लिए जितना बड़ा आंदोलन करना पड़ा था, उससे बड़ा आंदोलन इसे बचाने के लिए करना पड़ेगा। कार्यकर्ता तैयार रहें।
— Shivpal Singh Yadav (@shivpalsinghyad) December 27, 2022
इसी तरह कभी बीजेपी में ओबीसी राजनीति करने वाले और अब सपा में आ चुके पूर्व मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य ने कहा - नगर निकाय चुनाव अधिसूचना में जानबूझकर की गई अनियमितता के फलस्वरुप पिछड़ी जातियों को आरक्षण से हाथ धोना पड़ा। आखिर पिछड़े वर्ग के लोग भाजपा की आरक्षण विरोधी नीति को कब समझेंगे।
नगर निकाय चुनाव अधिसूचना में जानबूझकर की गई अनियमितता के फलस्वरुप पिछड़ी जातियों को आरक्षण से हाथ धोना पड़ा। आखिर पिछड़े वर्ग के लोग भाजपा की आरक्षण विरोधी नीति को कब समझेंगे।
— Swami Prasad Maurya (@SwamiPMaurya) December 27, 2022
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