मुज़फ़्फ़रनगर दंगे में 60 से ज़्यादा हत्या के मामलों में आरोपी तो बरी हुए ही, गैंगरेप के किसी आरोपी को भी सज़ा नहीं हुई। गैंगरेप के 4 मामलों में भी फ़ैसला उसी तरह से आया। एक के बाद एक गवाह और पुलिस अधिकारी मुकरते गए, पीड़ित खुलेआम डराए-धमकाए जाने का आरोप लगाते रहे, गैंगरेप के मामलों में मेडिकल जाँच में देरी हुई, डॉक्टरों या पुलिस की कोई ज़िरह नहीं… और ऐसे में ही सभी आरोपी बरी हो गए। दंगे करने के किसी मामले में भी किसी अभियुक्त पर दोष साबित नहीं हुआ। इन मामलों में 168 लोगों को बरी किया गया। बरी होने वाले ये सभी मामले मुसलमानों पर हमले से जुड़े हैं। जिस तरह हत्या के 10 मामले थे, उसी तरह कथित गैंगरेप के चार मामले और दंगा भड़काने के 26 मामले भी सामने आए थे। दंगे से जुड़े कुल 41 मामले दर्ज हुए थे जिसमें से 40 मामलों में सभी आरोपी बरी हो गए।
एक तो दंगे की दहशत, अपनों की हत्याएँ और ऊपर से गैंगरेप जैसी हैवानियत। क्या ऐसी वेदना को झेलने के बाद भी न्याय के लिए लड़ने की हिम्मत बची रह सकती है? और यदि वह लड़ने में सक्षम नहीं हो तो क्या न्याय नहीं मिलना चाहिए?
ऐसे में सवाल उठता है कि क्या उत्तर प्रदेश सरकार उनको न्याय दिलाने के लिए प्रयास करेगी? यूपी सरकार का कहना है कि वह अपील करने के पक्ष में नहीं है। ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ से बातचीत में मुज़फ़्फ़रनगर डिस्ट्रिक्ट गवर्नमेंट काउंसल के वकील दुष्यंत त्यागी ने कहा, ‘हम 2013 के मुज़फ़्फ़रनगर दंगों के किसी भी मामले में अपील दायर नहीं कर रहे हैं, जो बरी हो गए हैं, क्योंकि सभी मामलों में मुख्य गवाह अदालत के सामने मुकर गए हैं।’
पूरे देश को शर्मसार कर देने वाले इस दंगे में लोगों को कितना न्याय मिला, इसी को पड़ताल करने के लिए अंग्रेज़ी अख़बार ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ ने अदालत के रिकॉर्ड, शिकायतकर्ताओं व गवाहों की गवाही और इससे जुड़े अधिकारियों के साक्षात्कार का विश्लेषण किया है।
अख़बार ने क्या निकाला निष्कर्ष
‘द इंडियन एक्सप्रेस’ ने गैंगरेप के चार मामलों में निष्कर्ष निकाले हैं जिस आधार पर अदालत ने उन्हें बरी किया है-
एक मामले में पीड़िता ने बताया कि उसका मेडिकल परीक्षण तीन महीने के बाद किया गया था। डॉक्टर ने अदालत से कहा, ‘मेडिकल जाँच के दौरान हमें कोई शारीरिक चोट नहीं मिली। यह पाया गया कि वह 17 सप्ताह की गर्भवती है।’ देरी का कोई उल्लेख नहीं है। देरी को समझाने के लिए न तो डॉक्टर और न ही जाँच अधिकारी से ज़िरह की गई।
दूसरे मामले में पीड़िता के शिकायत दर्ज कराने के एक हफ़्ते बाद जाँच की गई। हालाँकि, बरी करने का आदेश डॉक्टर के अंतिम मत का उल्लेख नहीं करता है और केवल यह बताता है कि उसने अदालत के समक्ष चिकित्सा परीक्षण दस्तावेज़ों की प्रामाणिकता साबित की है। उनके निष्कर्ष क्या थे, इस पर कुछ नहीं कहा गया है।
तीसरे मामले में केवल एक ‘मेडिकल जाँच रिपोर्ट’ का उल्लेख है। उस रिपोर्ट के निष्कर्ष पर भी कुछ नहीं कहा गया है। अदालत के दस्तावेज़ बताते हैं कि डॉक्टर को गवाह के रूप में सूचीबद्ध नहीं किया गया था। यह क़ानून के तहत प्रक्रिया का साफ़ तौर पर उल्लंघन है।
चौथे मामले में निर्णय बताता है कि पीड़ित के शिकायत दर्ज करने के 40 दिन बाद जाँच की गई थी। डॉक्टर ने दर्शाया कि पीड़िता ‘पाँच बच्चों की माँ है और उसका मेडिकल परीक्षण करना उचित नहीं है... और बलात्कार का कोई संकेत नहीं है।’ देरी के लिए या उसके निष्कर्ष की व्याख्या करने के लिए डॉक्टर से ज़िरह नहीं की गई।
पीड़िता के रिश्तेदार ही मुकर गए
अख़बार के अनुसार, चार मामलों में कुल सात गवाह (सभी पीड़ितों के रिश्तेदार) अदालत में मुकर गए और उन्होंने पुलिस को दिए अपने बयान वापस ले लिए। उन्होंने कहा कि वे भीड़ से बचने के लिए भाग गए और उन्होंने कुछ नहीं देखा। दो मामलों में पीड़ितों के रिश्तेदार गवाहों ने बताया कि पुलिस ने उनका बयान दर्ज नहीं किया, बल्कि दंगा राहत शिविरों में किसी और ने बयान दर्ज किया।
रिपोर्ट के अनुसार, कथित गैंगरेप के दो मामलों में पीड़ितों ने अदालत को बताया कि उन्हें आरोपियों के नाम बताने के लिए पुलिस द्वारा ‘प्रताड़ित’ किया गया था। इसके बावजूद पुलिस ने इस पर ज़िरह नहीं की। पीड़ितों ने अदालत से कहा कि मुआवजा पाने के लिए व आरोपियों का नाम लेने के लिए उन्हें पुलिस द्वारा प्रताड़ित किया गया था। दो अन्य लोगों ने गवाही दी कि उन्हें दंगा राहत शिविरों में एक अनाम अधिकारी द्वारा कोरे कागज पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा गया था।
अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि गैंगरेप के सभी चार मामलों में चारों पीड़ितों द्वारा धारा 164 सीआरपीसी के तहत दर्ज कराए गए बयान ‘कोई ठोस सबूत नहीं है।’
‘गैंगरेप करने वालों को अभी भी पहचान सकती हूँ’
एक गैंगरेप का मामला 26 सितंबर, 2013 को फुगाना पुलिस स्टेशन में दर्ज किया गया है। पीड़िता ने ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ को बताया, ‘मुझे उस दिन घटित हुआ सब कुछ याद है। मैं पहली मंज़िल पर थी और मेरा परिवार ग्राउंड फ़्लोर पर था। हथियारों से लैस 50 से अधिक लोगों की भीड़ लगातार नारे लगा रही थी और फिर गोलीबारी शुरू कर दी। ग्राउंड फ़्लोर पर हर कोई बच निकला और मैं अकेली रह गयी। आरोपियों ने मुझे रोक लिया और घसीटा। मैंने विरोध करने की कोशिश की। उनमें से तीन ने सामूहिक दुष्कर्म किया। मैं अभी भी उनमें से प्रत्येक को पहचान सकती हूँ। वास्तव में मेरी सास ने भी उन्हें देखा। वह उनकी पहचान भी कर सकती है। वे अदालत में मौजूद वही लोग थे।’
अख़बार के अनुसार, वह कहती हैं कि उन्होंने कहा कि उन्होंने शुरू में दिल्ली का एक वकील रखने के लिए मुआवज़े के 5 लाख रुपये का इस्तेमाल किया था, लेकिन बाद में दूसरे गाँव में एक घर ख़रीदने के लिए इन रुपयों का इस्तेमाल कर लिया। वह कहती हैं कि इसके बाद भी उन्हें डराया-धमकाया जाता था।
मेरे लिए सिर्फ़ यही न्याय है...
अख़बार से उन्होंने कहा, ‘कुछ महीनों के बाद, मैं वकील नहीं रख सकती थी और पुलिस या अदालत द्वारा मुझे कोई सुरक्षा नहीं दी गई थी। मुक़दमे के दौरान भी आरोपियों को मेरे बगल में खड़ा किया गया था। मुझे धमकियाँ मिलती रहीं और आख़िरकार, मेरे परिवार ने मामले को आगे नहीं बढ़ाने का फ़ैसला किया। पुलिस ने मुझसे कहा कि मैं तभी जीत सकती हूँ जब मेरे पास केस लड़ने के लिए एक निजी वकील हो। और जब हम आठ लोगों को खिलाने के लिए 15,000 रुपये कमाते हैं, तो हम किसी भी मामले में कहाँ लड़ेंगे? मैं चाहती हूँ कि मेरा परिवार सुरक्षित महसूस करे, बिना किसी घमकी के। मेरे लिए सिर्फ़ यही न्याय है।’
दंगों के 26 मामलों में भी कोई दोषी नहीं
‘द इंडियन एक्सप्रेस’ की रिपोर्ट के अनुसार दंगों के 26 मामलों में उचित प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया। दो मामले सामने हैं- दोनों मामले हिंसा के दौरान पुलिस अधिकारियों द्वारा ड्यूटी पर दर्ज किए गए थे। ट्रायल के दौरान उन्हीं अधिकारियों ने अदालत से कहा कि वे अभियुक्तों की पहचान नहीं कर सकते।
अख़बार का निष्कर्ष
‘द इंडियन एक्सप्रेस’ ने दंगों के मामलों में फ़ैसले पर यह निष्कर्ष निकाला है-
10 मामलों में एक भी पुलिस अधिकारी की जाँच नहीं की गई और 13 गवाहों ने कहा कि ‘कुछ अधिकारियों’ ने कोरे कागज पर अपने हस्ताक्षर या अँगूठे के निशान लिए। अन्य 52 गवाह दंगों से पहले भाग जाने की बात कहकर मुकर गए।
मुज़फ़्फ़रनगर ज़िले के नई मंडी थाने में एफ़आईआर में पुलिस ने तीन आरोपियों के ख़िलाफ़ दंगा करने का मामला दर्ज किया। सब-इंस्पेक्टर (एसआई) काली चरण द्वारा प्राथमिकी में कहा गया है, ‘बचन सिंह कॉलोनी में लगभग 75 लोग, धार्मिक नारे लगाते हुए, दुकानों में आग लगाते हैं... मैं हिंसा में शामिल लोगों को साफ़ तौर पर पहचान सकता हूँ।’
लेकिन मुक़दमे के दौरान चरण ने अदालत से कहा कि ‘वह अंधेरे में आरोपी के चेहरे को नहीं पहचान सका।’ अदालत ने पुलिस की खिंचाई की और कहा कि उसने ‘उन गवाहों की जाँच नहीं की जिनकी दुकानों पर हमला किया गया था’।
उसी पुलिस स्टेशन में एक पुलिस अधिकारी द्वारा नौ आरोपियों के ख़िलाफ़ मामला दर्ज किया गया। एसआई रघु राज सिंह ने एफ़आईआर में कहा, ‘मैंने फ़ायरिंग सुनी... और पाया कि भीड़ यह कहते हुए नारे लगा रही थी कि वे कर्फ्यू को तोड़ देंगे। उनमें से एक ने पुलिस पर गोलीबारी शुरू कर दी। हमने आरोपी को गिरफ्तार कर लिया और कुछ लोग मौक़े से भाग गए।’
लेकिन अदालत में उन्होंने कहा, ‘मैं गोलीबारी का गवाह नहीं था। हमने आरोपियों को पकड़ने की कोशिश की, लेकिन जिस जगह पर घटना हुई वहाँ अराजकता थी।’ एक अन्य अधिकारी एसआई रघुराज भाटी ने कहा, ‘आरोपी मौक़े से भाग गए और पड़ोसियों ने हमें उनकी पहचान के बारे में कुछ नहीं बताया।’
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