उत्तर प्रदेश में एक और परिवार ने आरोप लगाया है कि पुलिस की पिटाई से उनके परिवार के युवक की मौत हो गई। मामला कानपुर का है, जहां 35 साल के जितेंद्र श्रीवास्तव को पुलिस ने चोरी के एक मामले में पूछताछ के लिए उसके घर से बीते रविवार को उठा लिया था। लेकिन मंगलवार सुबह उसकी मौत हो गई। परिवार वालों का कहना है कि जितेंद्र की मौत पिटाई की वजह से हुई है।
जितेंद्र कानपुर के माधवपुरा का रहने वाला था। पुलिस उसे 14 लाख रुपये रुपये की चोरी के एक मामले में पूछताछ के लिए ले गई थी।
सोमवार की रात को जितेंद्र को उसके परिजनों को सौंप दिया गया था लेकिन उस वक़्त उसकी हालत बेहद ख़राब थी। जितेंद्र की बहन मानसी ने कहा कि उसके भाई की पीठ और पांव में चोट के निशान थे।
जितेंद्र के भाई किन्ना ने कहा कि रात में उसकी हालत बिगड़ती गई और अस्पताल ले जाते वक़्त उसकी मौत हो गई। किन्ना ने कहा कि जितेंद्र के शरीर पर जो चोट के निशान हैं, वे पुलिस की बर्बरता को बताते हैं।
उन्होंने कहा कि जितेंद्र की पूरी पीठ काली पड़ चुकी थी और चोटों के निशान को देखकर पता चलता था कि उसे डंडों और बेल्ट से पीटा गया।
परिवार वालों का कहना है कि पड़ोसी ने बदला लेने के लिए जितेंद्र का नाम एक झूठी शिकायत में डाल दिया था। लेकिन पुलिस उनके घर में घुसी और बिना कुछ बताए जितेंद्र को ले गयी।
पुलिस का कहना है कि वह परिजनों के आरोपों की जांच कर रही है, इसे लेकर मुक़दमा दर्ज करेगी और दोषी पाए जाने वाले पुलिसकर्मियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई भी करेगी।
पुलिस की पिटाई से या हिरासत में होने वाली मौतें मोदी, शाह और योगी सरकार के उत्तर प्रदेश में सुशासन का राज कायम होने के तमाम दावों की सही तसवीर पेश करती हैं।
अंतहीन दास्तां
उत्तर प्रदेश में पुलिस की पिटाई से या हिरासत में होने वाली मौतों की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। बीते दिनों उत्तर प्रदेश के कासगंज में हुई अल्ताफ़ की मौत हो, आगरा में अरुण वाल्मीकि, गोरखपुर में मनीष गुप्ता की या फिर सुल्तानपुर में राजेश कोरी की। पुलिस के बेलगाम और निरंकुश होने के आरोप आम हो गए हैं।
कैसे मिलेगा इंसाफ़?
ऐसे मामलों में इंसाफ़ भी मिलना मुश्किल है क्योंकि नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े बताते हैं कि बीते 20 साल में देश भर में पुलिस हिरासत में 1,888 मौतें हुई हैं, पुलिस वालों के ख़िलाफ़ 893 मुक़दमे दर्ज हुए और 358 पुलिस वालों के ख़िलाफ़ चार्जशीट दायर की गई। लेकिन हैरानी की बात है कि सिर्फ़ 26 पुलिस वालों को ही दोषी ठहराया जा सका है। साफ है कि पीड़ित परिवारों को इंसाफ़ नहीं मिल पाया।
पुलिस के रवैये में सुधार को लेकर भी तमाम तरह की बहस अब बेमानी होती दिखती हैं और उत्तर प्रदेश पुलिस के डंडे के जोर के सामने लोग बेबस दिखते हैं।
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