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आज़म को सज़ा से सुधर जाएगी उत्तर प्रदेश की राजनीति?

घृणा और धार्मिक भावना भड़काने वाला बयान देने के मुद्दे पर समाजवादी पार्टी के विधायक आज़म खान की सज़ा का उत्तर प्रदेश की राजनीति पर दूरगामी परिणाम पड़ सकता है। एक तरफ़ बीजेपी के नेताओं का मानना है कि अब बड़बोले नेताओं को ज़ुबान पर लगाम देना पड़ेगा, तो दूसरी तरफ़ समाजवादी पार्टी के नेता मानते हैं कि इस तरह की सज़ा विपक्षी नेताओं की आवाज़ बंद करने का एक नया हथकंडा है। क्या सचमुच अब बेलगाम बोलने वाले नेता सुधर जायेंगे? क्या चुनावों के समय धार्मिक नफ़रत फैलाने वाले बयानों से मुक्ति मिल जाएगी?

आज़म खान अकेले ऐसे नेता नहीं हैं जिनके बयानों पर लगातार आपत्ति की जाती रही है। बीजेपी के नेता संगीत सोम के बयान भी कम नफ़रती नहीं होते हैं। बीजेपी की ही प्रज्ञा ठाकुर एक धर्म के ख़िलाफ़ आग उगलने के लिए जानी जाती हैं। हैदराबाद के ओवैसी उत्तर प्रदेश में जड़ें ज़माने के लिए भड़काऊ भाषणों से परहेज़ नहीं करते। देश भर में ऐसे नेताओं की भरमार है जो धार्मिक भावना भड़काने और समाज में घृणा फैलाने वाले भाषण देते हैं। आज़म पर आए फ़ैसले का असर उन पर होगा या नहीं।

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डीएम से पंगा महँगा पड़ा

आज़म खान 10 बार विधायक और 3 बार सांसद चुने जा चुके हैं। लेकिन अक्सर असंसदीय बयानों के कारण चर्चा में रहते हैं। लोकसभा के 2019 के चुनावों के दौरान, खान ने रामपुर के डीएम और चुनाव अधिकारी के ख़िलाफ़ भी एक बयान दिया था। खान का आरोप था कि चुनाव अधिकारी के रूप में डीएम पक्षपात कर रहे हैं। इस बात को कहने के लिए ख़ान ने घटिया शब्दों का इस्तेमाल किया था। डीएम आंजनेय कुमार सिंह ने इसे गंभीरता से लिया और खान के ख़िलाफ़ धार्मिक भावना भड़काने (धारा 153) और विभिन्न समुदायों के बीच घृणा फैलाने (धारा 505) के साथ-साथ जन प्रतिनिधित्व क़ानून 125 के अंतर्गत मुक़दमा दर्ज कराया। इसी मामले में अब फ़ैसला आया है जिसके मुताबिक़ खान को 3 साल क़ैद और 25 हज़ार रुपए जुर्माना की सज़ा सुनाई गयी है।

चुनावों के समय नफ़रत करने वाले नेताओं की बाढ़ आ जाती है। ज़्यादातर मामले कोर्ट तक जाते ही नहीं। चुनाव आयोग को बड़ी संख्या में शिकायत मिलती है। आयोग बहुत कम मामलों में कार्रवाई करता है। कुछ ही मामलों में घृणपूर्ण बयान देने वाले नेताओं को सीमित समय के लिए चुनाव प्रचार करने से रोक दिया जाता है। तीन साल क़ैद की सज़ा का ये पहला ही मामला है।

क्या ये राजनीतिक बदला है?

खान को अभी ज़िला अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक अपील का अधिकार है। ऊपर की अदालतें फ़ैसले को बदल भी सकती हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार तो जैसे फ़ैसले के इंतज़ार में बैठी थी। फ़ैसला आने के दूसरे ही दिन ख़ान की विधानसभा से सदस्यता रद्द कर दी गयी। समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने आरोप लगाया कि ये राजनीतिक बदले की कार्रवाई है। बीजेपी सभी विपक्षी दलों की आवाज़ बंद करना चाहती है। समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता शफ़िक़ुर्र रहमान ने तो खुला आरोप लगाया कि बीजेपी के इशारे पर सज़ा सुनाई गयी है।

योगी सरकार बनने के बाद से ही आज़म खान निशाने पर हैं। 2019 के लोकसभा चुनावों तक खान पर 93 मुक़दमे दर्ज हो चुके थे। उनकी पत्नी और बेटों पर भी अनेक मुक़दमे दर्ज हैं।

खान और उनके बेटे लंबे समय तक जेल में रह चुके हैं। उन पर ज़मीन हथियाने से लेकर चोरी तक के मामले हैं। विपक्ष के नेताओं का ये भी आरोप है कि बीजेपी के नेताओं के नफ़रती बयान पर पुलिस रिपोर्ट तक लिखने के लिए तैयार नहीं होती है।

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सबक़ सीखेंगे नेता?

जन प्रतिनिधित्व क़ानून में 2002 और 2013 में किए गए संशोधन के मुताबिक़ दो साल से अधिक सज़ा होने पर सदन की सदस्यता तो ख़त्म होती ही है, सज़ा पूरी होने के बाद 6 साल तक चुनाव लड़ने का अधिकार भी ख़त्म हो जाता है। खान को इस मामले में अधिकतम, तीन साल क़ैद की सज़ा हुई है। इस हिसाब से वो 9 साल तक चुनाव नहीं लड़ सकते हैं। खान नफ़रती और अपमानजनक भाषा बोलने के लिए जाने जाते हैं , लेकिन सवाल ये है कि एक व्यक्ति को सज़ा देने से क्या राजनीति साफ़ हो जाएगी। बीजेपी में भी ऐसे नेताओं की भरमार है जो एक ख़ास धर्म के ख़िलाफ़ बोलते रहते हैं। क्या उनके ख़िलाफ़ भी करवाई होगी? अफ़सरों को अपशब्द बोलने और सरकारी कर्मचारियों से मारपीट करने वाले नेता बहुत सी पार्टियों में मौजूद हैं। राजनीति की सफ़ाई तभी हो सकती है जब इन सभी नेताओं के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई हो। लेकिन अभी ऐसी कोई सूरत दिखाई नहीं दे रही है। बहरहाल, इस फ़ैसले ने बड़बोले नेताओं को एक चेतावनी ज़रूर दे दी है। 

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शैलेश
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