सावरकर के बारे में राहुल गांधी के बयान को लेकर भारतीय राजनीति में तूफ़ान मचा हुआ है। राहुल ने कोई नयी बात नहीं कही है। सावरकर के बारे में ये सारे तथ्य इतिहास में दर्ज हैं। भारत जोड़ो यात्रा के दौरान महाराष्ट्र से गुज़रते समय उन्होंने कुछ दस्तावेज़ दिखा कर ये बताने की कोशिश की कि अंडमान में काला पानी की सज़ा के दौरान सावरकर ने अंग्रेज़ सरकार से माफ़ी माँग ली थी।
शायद राहुल और उन्हें सलाह देने वाले लोगों को लगा होगा कि सावरकर के बारे में बोल कर वो बीजेपी का नुक़सान कर देंगे। राहुल और उनके सलाहकार यहीं चूक गए।
जो लोग सावरकर को जानते हैं उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि अंग्रेज़ों ने सावरकर को क्यों छोड़ा था और उसके बाद सावरकर ने क्या-क्या किया। सब कुछ जानते हुए भी आरएसएस और बीजेपी सावरकर को अपना आदर्श मानती है।
महाराष्ट्र और देश के अन्य हिस्सों में सावरकर के समर्थक और विरोधी मौजूद हैं। सवाल ये है कि राहुल को इस समय सावरकर पर बात करने की जरुरत क्या थी? क्या राहुल कोई नयी बात कर रहे थे? क्या इससे उनको या कांग्रेस को कोई राजनीतिक फ़ायदा होगा?
बीजेपी और सावरकर में क्या रिश्ता है?
सावरकर कभी भी आरएसएस के सदस्य नहीं थे। आज़ादी के पहले बीजेपी या उसके पूर्ववर्ती जन संघ का तो वजूद भी नहीं था। लेकिन आरएसएस के प्रभाव के चलते बीजेपी भी सावरकर को अपना आदर्श और हिंदुत्व का प्रतीक मानती है। अंडमान से बाहर आने के बाद सावरकर हिंदुत्व के प्रवक्ता बन गए। सावरकर ने धर्म के आधार पर देश के विभाजन की वकालत उसी तरह की जिस तरह मुस्लिम लीग और जिन्ना करते थे। अंडमान से छूटने के बाद सावरकर अंग्रेज़ सरकार के सहयोगी बन गए थे, यह बात भी किसी से छिपी नहीं है।
आरएसएस जो आज़ादी की लड़ाई से हमेशा दूर रहा, सावरकर को हिंदुत्व का झंडाबरदार मानता है। यही स्थिति बीजेपी की भी है। ज़ाहिर है कि सावरकर के बारे में अपने विचारों से बीजेपी पीछे नहीं हटेगी। बीजेपी इस समय तो यही चाहती है कि देश में सावरकर पर बहस हो, हिंदुत्व पर बहस हो, ज्ञानवापी मस्जिद और कृष्ण जन्म भूमि पर बयानबाज़ी होती रहे।
ग़लती से भी नहीं सीखती कांग्रेस
2019 के लोकसभा चुनावों से पहले राहुल गांधी ने ख़ुद को हिंदू साबित करने की कोशिश की। उन्होंने अपना जनेऊ दिखाया और गोत्र बता कर ख़ुद को कश्मीरी ब्राह्मण कहा। लेकिन चुनाव पर इसका क्या असर पड़ा। कांग्रेस की हार का सिलसिला नहीं थमा। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की टिप्पणी बहुत महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि जनेऊ पहन कर राहुल ने ख़ुद को हम लोगों से भी अलग कर लिया। नीतीश का इशारा दलित और पिछड़ी जातियों की तरफ़ था।
देश की आबादी के क़रीब 70 फ़ीसदी के इस समूह को जनेऊ पहनने का अधिकार ही नहीं है। जनेऊ मुख्य रूप से ब्राह्मण और कुछ इलाक़ों में राजपूत पहनते हैं। यह सही है कि एक समय तक ब्राह्मण कांग्रेस की ताक़त थे, लेकिन अब वो पूरी निष्ठा के साथ बीजेपी के साथ हैं। धर्म के नाम पर बीजेपी ब्राह्मणों को जो फ़ायदा पहुँचा रही है, ऐसी किसी और पार्टी से उम्मीद नहीं की जा सकती है। संभवतः राहुल अभी इस सोच से बाहर नहीं निकले हैं।
हिंदुत्व की पिच पर खेलकर राहुल बीजेपी से नहीं जीत सकते हैं। उन्हें किसानों, ग़रीबों, आदिवासियों, दलितों और पिछड़ों पर ध्यान केंद्रित करना होगा। महँगाई बड़ा मुद्दा है। बहुत कम आमदनी वाले लोग, जिन्हें ग़रीबी रेखा से नीचे माना जाता है, उनकी संख्या बढ़ती जा रही है। रोज़गार घटते जा रहे हैं। युवा निराशा की स्थिति में हैं। किसान को खाद और पानी दोनों संकटों से गुज़रना पड़ रहा है।
सावरकर जो थे वो थे। आज उन पर बहस करना बुद्धिजीवी लोगों का शग़ल हो सकता है। लेकिन रोज़ की ज़रूरतों से जूझ रहे लोग उस पर क्यों ध्यान देंगे। देश बीजेपी का विकल्प चुन सकता है लेकिन हिंदुत्व के मोर्चे पर नहीं बल्कि बुनियादी ज़रूरतों के मोर्चे पर।
अतीत से बाहर नहीं निकली कांग्रेस
आज़ादी के बाद क़रीब नब्बे के दशक तक कांग्रेस ब्राह्मण, दलित और मुसलमानों के समर्थन से सत्ता पर क़ाबिज़ रही। नब्बे के बाद कांग्रेस के ये तीनों स्तंभ टूटने लगे। देश के अलग-अलग हिस्सों में पिछड़ी जातियों के नए नेतृत्व का उदय हुआ जिसने धीरे-धीरे सत्ता के समीकरण को बदलना शुरू किया। 2014 में राष्ट्रीय राजनीति में आने के साथ ही नरेंद्र मोदी ने पिछड़ों ख़ासकर अति पिछड़ों की ताक़त को पहचान लिया था। बीजेपी की राज्य दर राज्य और चुनाव दर चुनाव जीत में पिछड़ों का बड़ा हाथ है।
पिछड़ों को बीजेपी से अलग नहीं किया जा सकता है। ब्राह्मणों ने कांग्रेस को छोड़ दिया, लेकिन कांग्रेस ब्रह्मणवादी सोच से बाहर नहीं निकल पा रही है। राहुल के सलाहकार ही उनका नुक़सान कर रहे हैं। राहुल जी अब तो मान लीजिए कि आपके ब्राह्मण होने का सुबूत या सावरकर की भूमिका पर सवाल उठाने से लोग कांग्रेस से नहीं जुड़ेंगे।
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