कानपुर के बिकरू में हिस्ट्रीशीटर विकास दुबे गैंग द्वारा जिस तरह आठ पुलिसकर्मियों की हत्या की गई वैसा हमला यूपी में शायद पहले कभी नहीं हुआ! ऑटोप्सी रिपोर्ट में पता चला है कि सिर धड़ से अलग कर दिया गया, पैरों की अंगुलियाँ काट दी गईं, शरीर को क्षत-विक्षत किया गया। एक और बात कि जिस तरह से रात में रास्ते को रोक कर घात लगाकर गुरिल्ला हमला किया गया, ऐसा उत्तर प्रदेश में माफ़िया या गुंडे नहीं करते रहे हैं। यह पूरा हमला और सर को धड़ से अलग करने की प्रवृत्ति माओवादियों में दिखती रही है। पुलिस भी इस बात को मानती है। हालाँकि इस बारे में सबूत नहीं मिले हैं कि विकास दुबे के माओवादियों से संपर्क हैं या नहीं।
माओवादी गुरिल्ला हमले के लिए जाने जाते हैं। यानी वे छिपकर हमले करते हैं। पुलिस या सुरक्षा बलों की पूरी जानकारी लेने के बाद पहले से घात लगाए बैठे होते हैं। रास्तों को रोक देते हैं। अँधाधुंध फ़ायरिंग करते हैं और अधिकतर मामलों में मृतकों के शरीर को क्षत-विक्षत कर देते हैं। पुलिस के हथियार छीन लेते हैं। बिल्कुल ऐसा ही कानपुर के बिकरू में भी हुआ।
मृत पुलिसकर्मी की ऑटोप्सी रिपोर्ट में पता चला है कि सर्किल अफ़सर देवेंद्र मिश्रा के सिर और पैर की ऊँगलियों को कुल्हाड़ी से काटा गया था। उनके शव को बुरी तरह क्षत-विक्षत किया गया था। एक सब-इंस्पेक्टर को प्वांट-ब्लैंक रेज की गोलियों से छलनी किया गया था। एक कॉन्स्टेबल को एके-47 से भून दिया गया था। यह एके-47 पुलिस वालों से ही छीना गया था।
सब इंस्पेक्टर अनुप सिंह के शरीर से 7 गोलियाँ निकाली गई हैं। शिवराजपुर के स्टेशन अफ़सर महेश यादव के चेहरे, सीने और कंधे से गोलियाँ निकाली गई हैं। जाँचकर्ताओं ने कहा है कि गोलियाँ विशेष रूप से सिर और कंधों पर लगी हैं जिसका साफ़ मतलब यह है कि हमलावर ऊँचाई पर थे और घात लगाए बैठे थे। आधी रात मुठभेड़ के दौरान गैंगस्टर विकास दुबे ने पुलिस टीम की घेराबंदी करने के लिए छतों पर स्नाइपर तैनात किए थे।
एक और बात जो सामने निकलकर आई है वह है विकास दुबे गैंग में बड़ी संख्या में बदमाश थे। फॉरेंसिक एक्सपर्ट, स्पेशल टास्क फ़ोर्स तथा अन्य जाँचकर्ताओं को लगता है कि विकास दुबे और उसके क़रीब 60 गुर्गों ने पुलिस पर हमला किया था।
एक रिपोर्ट में कहा गया है कि हमले में घायल एक पुलिस कर्मी ने कहा है कि हमला करने वालों में कम से 60 बदमाश थे। उनका कहना है कि पुलिस वाले क़रीब 30 की संख्या में थे और वे कम पड़ गए।
अब सामान्य तौर पर गुंडे या बदमाश इतनी बड़ी संख्या में नहीं होते हैं। इतनी बड़ी संख्या में अपराध का तरीक़ा माओवादियों का रहा है। अक्सर ऐसे माआवादी यह पता लगा लेते हैं कि पुलिस कर्मियों की संख्या कितनी है और उनके पास क्या-क्या हथियार होंगे। इसी के आधार पर माओवादी हमले की साज़िश रचते हैं।
माओवादी के तरीक़े से हमले की बात कानपुर रेंज के पुलिस महानिरीक्षक मोहित अग्रवाल भी स्वीकार करते हैं। टीओआई से बातचीत में मोहित अग्रवाल ने कहा, 'उत्तर प्रदेश में इस तरह की छापामार शैली का माहौल अभूतपूर्व है। पहले धूल उड़ने वाली सड़क पर जेसीबी मशीन लगाकर जाल बिछाया गया और फिर गिरोह के सदस्यों ने छत से फ़ायरिंग कर चौंका दिया। यह माओवादियों द्वारा अपनाई गई सामान्य रणनीति है।'
वैसे, विकास दुबे उस क्षेत्र में कोई छोटा-मोटा अपराधी नहीं है। वह काफी समय से गैंग बनाकर लूटपाट और हत्याएँ कर रहा है और इसीलिए उसका एक लंबा आपराधिक इतिहास है।
दुबे का नाम पहली बार चर्चा में तब आया था, जब उसने 2001 में उत्तर प्रदेश सरकार के तत्कालीन राज्यमंत्री संतोष शुक्ला की पुलिस थाने के अंदर हत्या कर दी थी। शुक्ला राजनाथ सिंह की सरकार में मंत्री थे। विकास दुबे पर 60 आपराधिक मुक़दमे दर्ज हैं। दुबे के ख़िलाफ़ उत्तर प्रदेश के कई ज़िलों में मुक़दमे दर्ज हैं। पुलिस ने दुबे के बारे में जानकारी देने वाले को 25 हज़ार रुपये का ईनाम देने की घोषणा भी की थी। पुलिस को कई मामलों में दुबे की तलाश है।
दुबे का कानपुर के आसपास के इलाक़ों में ख़ौफ़ माना जाता है और कहा जाता है कि उसके पास बदमाशों की एक अच्छी-खासी टीम है। दुबे को कानपुर के रिटायर्ड प्रिंसिपल सिद्धेश्वर पांडे की हत्या में उम्र क़ैद की सजा हो चुकी है।
दुबे के बारे में कहा जाता है कि उसकी सभी राजनीतिक दलों में अच्छी पकड़ है और वह ज़िला पंचायत का सदस्य भी रह चुका है। कई पार्टियों के नेता पंचायत और स्थानीय निकाय के चुनावों में दुबे की मदद लेते रहे हैं।
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