मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के लिए मकर संक्रांति का त्यौहार बहुत महत्व रखता है। वे गोरखपुर के मठ में विधिवत खिचड़ी का त्यौहार मनाते हैं। इस बार भी मनाया गया। उसके बाद वे लखनऊ लौटे तो दूसरे दिन चुनिंदा पत्रकारों को तहरी भोज पर बुलाया। इसकी जानकारी एक वरिष्ठ पत्रकार ने बाकायदा लेख लिख कर दी। तभी अपने को भी पता चला। वैसे वे लिखते भी काफी सकारात्मक हैं और होना भी चाहिए। सकारात्मक पत्रकारिता भी सापेक्ष होती है।
खैर, मुद्दा दूसरा है। योगी सबसे मिले भोज दिया। पर उनकी ही पार्टी के एक नेता उनसे नहीं मिल पाए जिन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रदेश का राजकाज ठीक करने के लिए दिल्ली से लखनऊ भेजा है। पर वे राजकाज कितना ठीक करेंगे यह तो समय ही बताएगा।
फिलहाल ज्यादा जोगी मठ उजाड़ न हो जाए। यह कहावत इस समय उत्तर प्रदेश की राजनीति में चर्चा में है। क्यों, इसको समझने के लिए कुछ दिन पीछे चलते हैं।
उत्तरायण काल में मकर संक्रांति के दिन जब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ गोरखपुर के गोरखनाथ मंदिर में खिचड़ी दान दे रहे थे, उसी समय लखनऊ में स्थित बीजेपी मुख्यालय में राजनीतिक खिचड़ी पक रही थी। उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ दल के लिए सूर्य का दक्षिण से उत्तर दिशा की ओर गमन करना कितना शुभ होगा, यह तो समय बताएगा।
दरअसल, मकर संक्रांति के मौके पर दोपहर 12 बजे लखनऊ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भरोसेमंद पूर्व आईएएस अधिकारी अरविंद कुमार शर्मा बीजेपी में शामिल हो रहे थे। इस मौके पर प्रदेश बीजेपी के अध्यक्ष स्वतंत्रदेव सिंह और डिप्टी सीएम दिनेश शर्मा तो मौजूद थे पर योगी आदित्यनाथ नहीं थे।
फिर, अरविंद कुमार शर्मा जो प्रदेश की राजनीति में सत्ता के नए केंद्र के रूप में उभर रहे हैं उन्हें मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने तीन दिन तक मिलने का समय नहीं दिया। यह ख़बर सत्ता के गलियारों में मिर्च-मसाले के साथ चल रही है। यह कुछ अटपटा सा नहीं लगता है।
मोदी के भेजे हुए इस धाकड़ नौकरशाह को मुख्यमंत्री से मिलने का समय तक न मिल पाए। इससे उत्तर प्रदेश की राजनीति में जो गर्माहट बढ़ी है उसका अंदाजा सत्ता में बैठे लोग आसानी से लगा ले रहे हैं। क्या अरविंद कुमार शर्मा को यूपी की सत्तारूढ़ दल की ‘ठोक दो वाली राजनीति’ को ठीक करने के लिए भेजा गया है।
मोदी के ख़ास हैं शर्मा
भूमिहार बिरादरी से आने वाले 1988 बैच के गुजरात कैडर के आईएएस अफ़सर अरविंद कुमार शर्मा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ख़ास अफ़सर रहे हैं। गुजरात में वे उनके ख़ास थे तो दिल्ली भी लाए गए। फिर दिल्ली से सीधे उन्हें उस उत्तर प्रदेश में भेज दिया गया जहां छप्परफाड़ बहुमत वाले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हैं। योगी अब खुद हिंदुत्व की राजनीति का नया ब्रांड बन चुके हैं।
योगी आदित्यनाथ, जो पहले भी अपने आगे किसी को कुछ समझते नहीं थे, उनकी कार्यशैली को लेकर पार्टी में एक खेमा असंतुष्ट रहता था। उदाहरण, दोनों उप मुख्यमंत्री को ले लें। एक दिनेश शर्मा हैं जो पढ़ते-पढ़ाते राजनीति में आए पर मास पालटिक्स यानी जनाधार वाली राजनीति से कोई वास्ता नहीं रहा। उत्साही हैं, शिक्षक भी हैं और आरोप है कि साल में तीन बार जन्म दिन भी मनाते हैं।
दिनेश शर्मा क्यों हैं परेशान?
शर्मा के आने की ख़बर से अगर किसी का बीपी सबसे ज्यादा बढ़ा तो वे दिनेश शर्मा ही थे। पर न तो उन्हें कोई बाभन मानता है न ही नए शर्मा यानी अरविंद कुमार शर्मा बाभन हैं। इसलिए इनसे किसी गैर ब्राह्मण नेता का कोई छतीस का आंकड़ा नहीं हो सकता। योगी को भी कोई दिक्कत नहीं होती। पर जब यह संदेश गया कि अफ़सर से नेता बने शर्मा एमएलसी बनने के साथ न सिर्फ नौकरशाही को कंट्रोल करेंगे बल्कि राजनीति में भी दखल देंगे तो मामला बिगड़ गया। यहीं से तमाम चर्चाओं की शुरुआत हो गई।
योगी के कामकाज पर देखिए टिप्पणी-
योगी को चुनौती!
राज्यपाल से तो शर्मा की मुलाक़ात आसानी से हो गई गुजरात कनेक्शन के चलते लेकिन योगी ने मुख्यमंत्री वाला जलवा दिखा दिया। वैसे भी अरविंद शर्मा जैसे कद के दर्जन भर नौकरशाह योगी के आगे सिर उठा कर बात तक नहीं कर पाते। इसलिए अखरना स्वभाविक ही था। योगी तो पार्टी को छोड़िए संघ में भी अपनी पसंद के प्रचारक को गोरखपुर से लखनऊ ला चुके हैं। ऐसे में कोई अफ़सर दिल्ली से आकर सत्ता में बंटवारा करे यह आसानी से कोई कैसे मंजूर कर लेता।
उप मुख्यमंत्री बनेंगे अरविंद शर्मा?
वैसे भी अरविंद कुमार शर्मा का रिटायरमेंट वर्ष 2022 में होना था लेकिन दो साल पहले ही उनके वीआरएस लेने से अटकलें तेज हो गई। आखिर ऐसी भी क्या जल्दी थी क्योंकि राजनीति तो वह दो साल बाद रिटायर होने के बाद भी कर सकते थे। इसी वजह से उनके उप मुख्यमंत्री बनने और गृह विभाग को देखने की अटकलें लगने लगी। अगर योगी तैयार नहीं हुए तो यह आसानी से नहीं हो पायेगा, यह तय है।
बीजेपी के एक स्थानीय नेता ने कहा, मऊ के मुख्तार से अभी ठीक से निपटा भी नहीं गया था कि एक और सिरदर्द आ गए। शुरू वाले दिन याद हैं न मुख्यमंत्री बनाने की जब बात चली तो दिल्ली की सत्ता ने मनोज सिन्हा को आगे कर दिया था। वे भी मोदी की पसंद थे। पर हुआ क्या यह सबको पता है। वे भी भूमिहार ही थे और ये भी उसी बिरादरी के हैं।
ऐसे में उत्तर प्रदेश बीजेपी के लिए आने वाले दिन बहुत आसान तो नहीं दिखते।
दरअसल, योगी कुछ अलग किस्म के नेता हैं। ठीक कल्याण सिंह की तरह। बिना उन्हें भरोसे में लिए अगर कोई पहल की गई तो मुश्किल होगी। वैसे भी कोई मुख्यमंत्री सत्ता का एक से ज्यादा केंद्र नहीं चाहता है।
अखिलेश यादव जब मुख्यमंत्री थे तो कहा जाता था कि यूपी में ढाई मुख्यमंत्री सत्ता चला रहे हैं। मुलायम और शिवपाल के बाद अखिलेश को शुरू में आधा मुख्यमंत्री माना गया। बाद में विद्रोह कर जब वे पूरी तरह मुख्यमंत्री बने तो कार्यकाल ही साल डेढ़ साल का बचा था। अब योगी के साथ तो ठीक उल्टा हो रहा है।
यह भी कहा जा रहा है कि जब करीब डेढ़ साल का कार्यकाल बचा है तो सत्ता का एक और केंद्र बना देना कहां तक ठीक होगा। कल्याण सिंह के दौर में पार्टी यह सब देख भी चुकी है। राजनाथ सिंह, कलराज मिश्र, लालजी टंडन आदि-आदि। सत्ता के कितने केंद्र बन गए थे। दिग्गज नेता और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के लिए भी वह दौर सिरदर्द बन गया था।
सत्ता का कोई और केंद्र बने और योगी आदित्यनाथ इसे आसानी से मान जायेंगे, यह लगता तो नहीं है। वैसे रविवार को योगी से अरविंद कुमार शर्मा की मुलाक़ात हुई। यह सूचना दी गई है।
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