पंजाब और हरियाणा को अब भूल जाइए। अब ख़बर देश के बड़े हिस्से से आ रही है। यह आंदोलन देश का अबतक का सबसे बड़ा आंदोलन बन चुका है। इसके प्रभाव में देश का बड़ा हिस्सा आ चुका है। आज दिल्ली की और हर राज्य से जाने वाली सड़क का हाल लीजिएगा तब अंदाजा लग पाएगा यह कितना बड़ा और ज़मीन से जुड़ा आंदोलन बन चुका है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में वे लोग जो पिछले तीन चुनाव से बीजेपी के बड़े समर्थक थे वे इस आंदोलन को हर तरह की मदद दे रहे हैं। वैसे भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब के जाट, पंजाबी इस आंदोलन की धुरी बने हुए हैं। आर्य समाज आंदोलन के असर वाला यह इलाक़ा दिल्ली से बुरी तरह नाराज़ हो चुका है। सिर्फ़ किसान और आढ़तिये ही नहीं नाराज़ हैं बल्कि मज़दूर और खेती किसानी से जुड़े सभी तबक़े नाराज़ और परेशान हैं। छोटे व्यापारी भी।
जबसे यह साफ़ हुआ है कि दो-तीन बड़े उद्यमी-उद्योगपति कृषि क्षेत्र पर अपना दबदबा बनाएँगे छोटे व्यापारी भी आशंकित हैं। भले ऐसा न हो पर एक डर तो बैठ ही गया है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ गाँव का हाल लीजिए तो पता चलेगा किस तरह घर-घर से चंदा इकट्ठा हुआ है। इसमें दलित और पिछड़ी जातियों के लोग भी शामिल हैं। ये नए क़िस्म का सांस्कृतिक आंदोलन भी है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा व पंजाब की राजनीति पर नज़र रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार अनिल त्यागी ने कहा, ‘जिस तरह यह आंदोलन खड़ा हो गया है उसके विभिन्न पहलुओं पर नज़र डालनी चाहिए। मैंने टिकैत से लेकर कई बड़े किसान आंदोलन देखें है। चौधरी चरण सिंह से लेकर देवीलाल तक की बड़ी किसान रैली भी देखी। पर ऐसा किसान आंदोलन नहीं देखा। यह समाज का आंदोलन बन चुका है, परिवार का आंदोलन बन चुका है। और व्यापक हो रहा है। यह केंद्र सरकार के लिए बड़ी चुनौती हैं।'
यह बात सही भी है। महाराष्ट्र में कल जो किसान रैली हुई उसका राजनीतिक संदेश यही है। कर्नाटक में रैयत संघ जिस तरह से अपनी ताक़त दिखा रहा है वह बहुत महत्वपूर्ण है।
मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान से बड़ी संख्या में किसान इस आंदोलन में शामिल हो चुके हैं। उड़ीसा से पाँच सौ किसानों का दल जेपी आन्दोलन से जुड़ी ताक़तों के नेतृत्व में जिस तरह जगह-जगह दमन उत्पीड़न के बावजूद दिल्ली की सीमा पर जाकर डट गया है वह देखने वाला है। बिहार, असम, उत्तर प्रदेश और बंगाल से आम दिनों जैसी रेलगाड़ी नहीं चल रही है। इसलिए दूर राज्यों के किसान भले इस आंदोलन में न पहुँचें पर वे ज़िला मुख्यालयों पर लगातार प्रतिरोध दर्ज करा रहे हैं। ऐसे बहुत से राज्य हैं जहाँ किसान और नौजवान इस आंदोलन की धार तेज़ कर रहे हैं। जिसका असर दस-पंद्रह दिन में ठीक से सामने आएगा।
वैसे भी किसान संगठनों ने एक फ़रवरी को फिर संसद कूच का नारा तो दे ही दिया है। जब संसद चल रही हो और दिल्ली की दहलीज पर बैठे लाखों किसान संसद कूच का नारा दे दें तो उस राजनीतिक गर्मी का अंदाजा सरकार तो लगा ही सकती है। छब्बीस जनवरी को किसान रैली को देश का ही नहीं विदेश का मीडिया भी कवर कर रहा है। वह एक फ़रवरी को भी यह आंदोलन कवर करेगा। इसकी जानकारी सरकार को भी है। जो डेढ़ साल तक इन नए कृषि क़ानून को ठंढे बस्ते में डालने की घोषणा कर चुकी है।
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