लोकसभा चुनाव में देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में भाजपा अपनी हार से नहीं उबर पा रही है। 80 लोकसभा सीटों में से भाजपा ने 75 सीटें जीतने का लक्ष्य रखा था। लेकिन भाजपा अपने पुराने सहयोगियों के साथ मिलकर भी लक्ष्य हासिल नहीं कर सकी। यूपी में एनडीए को कुल 36 सीटों पर जीत मिली जबकि कांग्रेस और सपा का इंडिया गठबंधन 43 सीटें जीतने में कामयाब हुआ। यह भाजपा के उसके अपने गढ़ में बहुत बड़ी हार है। वैसे तो भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए को महाराष्ट्र में भी बड़ा झटका लगा। वहां 48 में से 31 सीटों पर एनडीए को पराजय मिली लेकिन यूपी में भाजपा की हार ज्यादा मानीखेज है।
यही कारण है कि इन दिनों यूपी बीजेपी में घमासान जारी है। इस हार का जिम्मेदार कौन है? इसके लिए खींचतान अभी भी चल रही है। लेकिन इस पराजय ने नरेंद्र मोदी को एनडीए की सरकार बनाने के लिए मजबूर कर दिया। '56 इंच की छाती वाला' और 'एक अकेला सब पर भारी' कहने वाले नरेंद्र मोदी इस समय नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू की बैसाखियों के सहारे सरकार चला रहे हैं।
मूल प्रश्न यह है कि आखिर यूपी में बीजेपी की हार क्यों हुई और इस पराजय को इतना बड़ा क्यों माना जा रहा है? भाजपा जिस राम मंदिर आंदोलन के सहारे सत्ता के दरवाजे तक पहुंची, उसका केंद्र उत्तर प्रदेश है। 1980 में स्थापित भाजपा के राम मंदिर आंदोलन का पहला नतीजा 6 दिसंबर 1992 को आया, जब बाबरी मस्जिद ढहा दी गई। इसके करीब 27 साल बाद 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने हिंदू जन भावनाओं के आधार पर विवादित स्थल पर राम मंदिर बनाने का फरमान जारी कर दिया। 5 साल बाद 22 जनवरी 2024 को नवनिर्मित राम मंदिर का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किया।
भाजपा को यह उम्मीद थी कि राम मंदिर के जरिए 2024 का लोकसभा चुनाव आसानी से जीत लिया जाएगा। लेकिन चुनाव नतीजों ने भाजपा को ही नहीं बल्कि बड़े-बड़े विश्लेषकों को भी चौंका दिया। भाजपा उस फैजाबाद सीट पर भी चुनाव हार गई जहाँ अयोध्या स्थित है। ध्यातव्य है कि यहां जीतने वाले सपा प्रत्याशी अवधेश प्रसाद पासी दलित हैं। अयोध्या में बीजेपी की हार बेहद शर्मनाक साबित हुई। इसका एक परिणाम यह हुआ कि तब से नरेंद्र मोदी ने जय श्रीराम का नारा लगाना बंद कर दिया, जो राम मंदिर आंदोलन और भाजपा की राजनीति का सबसे तेजाबी नारा था।
उत्तर प्रदेश में भाजपा की हार की चर्चा इसलिए भी हो रही है क्योंकि इसके सबसे बड़े ब्रांड नरेंद्र मोदी बनारस से चुनाव लड़ते हैं। उनके अलावा हिंदुत्व के सबसे कट्टर छवि वाले योगी आदित्यनाथ पिछले 7 साल से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं। हिंदुत्व के दो सबसे बड़े फायर ब्रांड चेहरों के होते हुए भी यूपी में भाजपा का हारना बड़े सवाल खड़े करता है। लेकिन जिन विश्लेषकों को यूपी के नतीजे पर विश्वास नहीं हो रहा है, वे शायद यह भूल गए हैं कि उत्तर प्रदेश मान्यवर कांशीराम की भी कर्मभूमि है। 1970-80 के दशक में कांशीराम ने उत्तर प्रदेश में एक सांस्कृतिक आंदोलन के जरिए दलित, पिछड़ों और मुसलमानों के बीच बहुजन एकता स्थापित करने का प्रयास किया था। 1984 में उन्होंने बसपा जैसी राजनीतिक पार्टी बनाई।
बसपा एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में आज भी समादृत है। मायावती चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं। एक समय मायावती को राष्ट्रीय राजनीति में प्रधानमंत्री के रूप में भी देखा जाने लगा था। लेकिन 2012 में यूपी विधानसभा चुनाव हारने के बाद बसपा आगे कोई सफलता हासिल कर नहीं कर सकी। 2014 में केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद, 2017 में उत्तर प्रदेश भी भाजपा के हाथ में आ गया। भाजपा ने योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाया। इन वर्षों में मायावती की निष्क्रियता और खामोशी से दलित राजनीति हाशिए पर चली गई। लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि इस जमीन पर दलित चेतना का विकास निरंतर होता रहा।
लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में भाजपा की हार के पीछे यही दलित चेतना और अंबेडकरवादी चिंतन है। पिछले 10 साल में दलित या बहुजन राजनीति लगातार कमजोर होती गई। 2014 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद मुसलमानों के खिलाफ एक मुहिम चलाई गई। हिंदू सांप्रदायिक उन्माद बढ़ता गया। मुसलमानों के खिलाफ दलितों-पिछड़ों के बीच साम्प्रदायिक प्रचार का पूरा तंत्र झोंक दिया गया। लेकिन सच्चाई यह है कि भाजपा और आरएसएस की अंदरूनी राजनीति असल में दलितों-पिछड़ों के अधिकार और राजनीतिक प्रभाव के खिलाफ है।
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आरएसएस जानता है कि मुसलमान कभी उनके लिए चुनौती नहीं बन सकते। आरएसएस का हिंदुत्व नया ब्राह्मणवाद है। आरएसएस सामाजिक समरसता के नाम पर जातिगत असमानता को बरकरार रखना चाहता है।
उसके सामने असली चुनौती संवैधानिक व्यवस्था है। इसलिए दलित चेतना या मंडल की राजनीतिक एकता को ध्वस्त करने के लिए भाजपा-आरएसएस ने दलितों और पिछड़ों के स्वार्थी, चापलूस और अस्तित्वहीन नेताओं को चुना। इन मुखौटों के जरिए भाजपा और नरेंद्र मोदी की सरकार ने दलितों-पिछड़ों के आरक्षण, शिक्षा, नौकरी जैसे संवैधानिक अधिकारों को बेमानी बना दिया। बहुजन नायकों की मूर्तियों को प्रतीकों में बदलकर उन्हें महज वोट जुगाड़ने का माध्यम बना दिया। इस दरमियान रोहित वेमुला की आत्महत्या (17 जनवरी 2016) , 7 दलितों की सरेआम पिटाई वाला ऊना कांड (11 जुलाई, 2016) मामले में अत्याचारियों को कोई सजा नहीं मिली। यूपी के हाथरस में भी दबंग अपराधियों पर सरकार मेहरबान रही, जबकि पीड़ित परिवार न्याय के लिए आज भी भटक रहा है।
उत्तर प्रदेश में दलित उत्पीड़न की घटनाओं पर पुलिस प्रशासन कार्रवाई करने के लिए तैयार नहीं दिखता। उल्टे खुद पुलिस दलितों पर अत्याचार करने लगी। एक दरोगा कहता है कि दलित औरतें मजा लेने के लिए होती हैं। योगी आदित्यनाथ के प्रशासन में सवर्णों का बोलबाला हो गया। थानों में आमतौर पर ठाकुर दरोगा तैनात हो गए। एसपी, डीएम, तहसीलदार आदि सभी महत्वपूर्ण स्थानों पर सवर्णों का कब्जा हो गया। दलित, पिछड़े अधिकारी-कर्मचारी किनारे लगा दिए गए।
इसका परिणाम यह हुआ कि थानों से लेकर विश्वविद्यालयों तक दलितों को अन्याय और अपमान का रोज-रोज सामना करना पड़ा। अन्याय के खिलाफ पनप रही चेतना ने तमाम बुद्धिजीवियों, लेखकों, पत्रकारों को एक्टिविस्ट बना दिया। उन्होंने राजनीतिक दलों और नेताओं की तरफ देखना छोड़ दिया। समाज के बीच वे खुद सक्रिय हो गए और बाबा साहब के विचारों तथा संदेशों को लेकर समाज के बीच पहुंचे। इस बीच कुछ बड़ी घटनाएं भी हुईं। मसलन, जब सुप्रीम कोर्ट द्वारा एससी-एसटी एक्ट को कमजोर किया गया तो इसके पीछे केंद्र सरकार की मंशा छिपी हुई थी। इसके खिलाफ 2 अप्रैल 2018 को देशव्यापी आंदोलन हुआ। इस आंदोलन में दर्जनों दलित नौजवानों की शहादत हुई। बिना किसी राजनीतिक दल और नेतृत्व के महज सोशल मीडिया पर किए गए प्रचार के जरिए यह आंदोलन खड़ा हुआ। इस स्वतःस्फूर्त आंदोलन के सामने केंद्र सरकार को झुकना पड़ा।
इसके बाद मार्च 2019 में 13 प्वाइंट रोस्टर आरक्षण को लेकर भी आंदोलन हुआ। इसमें भी कामयाबी मिली। इन आंदोलनों ने दलित समाज के पढ़े-लिखे नौजवानों को संगठित होने और संघर्ष करके जीत हासिल करने का हौंसला दिया। डॉ अम्बेडकर के विचारों की यह सबसे बड़ी जीत साबित हुई। असल में, बाबा साहब के सपनों को जमीन पर उतारने का काम इस दशक के दलित बुद्धिजीवियों और नौजवानों ने किया। निहत्थे और नेतृत्वविहीन होकर विचार की ताकत से एक अहंकारी और बर्बर सत्ता से कैसे लड़ा जा सकता है, यह दलित एक्टिविस्टों ने दिखाया।
1925 में स्थापित आरएसएस भाजपा का पितृ संगठन है। आरम्भ से ही उसका लक्ष्य, भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना है। इसलिए कांग्रेस के नेतृत्व में चलने वाले स्वाधीनता आंदोलन में आरएसएस ने भाग नहीं लिया। बल्कि इसके उलट अंग्रेजों का सहयोग किया। आरएसएस ने स्वाधीनता आंदोलन के मूल्यों, विचारों और उससे उपजे संविधान को कभी ना तो पसंद किया और ना ही स्वीकार किया। वीडी सावरकर के हिंदुत्व और आरएसएस के हिंदू राष्ट्र के खतरे को डॉ. अंबेडकर ने 1940 में ही भांप लिया था। इसलिए उन्होंने सीधे तौर पर दलितों को आगाह किया था कि 'यदि हिंदू राष्ट्र बनता है तो यह दलितों के लिए सबसे बड़ी आपदा साबित होगा। इसलिए इसे किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।'
अंबेडकर ने संविधान के जरिए असमानता और भेदभाव मिटाकर दलितों, आदिवासियों को अवसर उपलब्ध कराने हेतु आरक्षण का प्रावधान किया। आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक एमएस गोलवलकर ने अपनी किताब 'बंच ऑफ थॉट्स' में वर्ण और जाति व्यवस्था का समर्थन किया। आरएसएस शुरू से ही आरक्षण का विरोधी, पुरुषवादी और समाज में ब्राह्मणों के वर्चस्व का हिमायती रहा है। कांग्रेस और वामपंथी दलों ने संघ और भाजपा की सांप्रदायिक राजनीति का तो विरोध किया लेकिन आरक्षण विरोध और जाति व्यवस्था के समर्थन का मजबूती से कभी प्रतिकार नहीं किया।
यही कारण है कि 1980 के दशक में पिछड़ा और दलित राजनीति का उभार शुरू हुआ। आरएसएस और बीजेपी ने इस चुनौती का मुकाबला करने के लिए एक तरफ कमंडल की राजनीति शुरू की तो दूसरी तरफ मौके के मुताबिक संविधान और आरक्षण पर प्रतिक्रिया दी। अटल बिहारी वाजपेई ने सत्ता में आने के बाद फरवरी 2000 में न्यायमूर्ति वेंकट चिलैया की अध्यक्षता में संविधान समीक्षा के लिए एक राष्ट्रीय आयोग बनाया। 2002 में इस आयोग ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की लेकिन विरोध होने के कारण वाजपेयी सरकार ने इन सिफारिशों को लागू करने की हिम्मत नहीं की।
नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद यह खतरा और बढ़ गया। बहुत शातिराना ढंग से भाजपा और आरएसएस इस पर चुप्पी साधे रहे। आरक्षण का विरोध करने के बजाय सरकारी नौकरियां खत्म करने का तरीका ज्यादा कारगर साबित हुआ। सरकारी शिक्षा व्यवस्था चौपट कर दी गयी।
जेएनयू जैसे विश्वविद्यालय को अर्बन नक्सल और अय्याशी का अड्डा बताकर बदनाम किया गया। जेएनयू से सामाजिक बदलाव और चेतना की एक बौद्धिक पीढ़ी निकलकर सामने आई है, जो लगातार भाजपा आरएसएस के ब्राह्मणवाद और साम्प्रदायिकता को कड़ी चुनौती पेश कर रही है। नरेंद्र मोदी के सत्तातंत्र ने ऐसे तमाम संस्थानों पर सुनियोजित हमले किए।
2019 का लोकसभा चुनाव जीतने के बाद खुले तौर पर हिंदू राष्ट्र बनाने की मुनादी की जाने लगी। दलितों पर होने वाला अत्याचार, अपमान और शोषण बढ़ने लगा। आरएसएस की स्थापना के 100वें वर्ष में हिंदू राष्ट्र घोषित करने का लक्ष्य स्थापित हो गया। इस खतरे को भांपकर दलित समाज का जागरूक तबका अपना सब कुछ दांव पर लगाकर सक्रिय हो उठा। बाबा साहब के विचारों और उनकी चिंताओं पर लगातार गोष्ठियां आयोजित की जाने लगीं। संविधान, आरक्षण,शिक्षा, सम्मान और स्वाभिमान को बचाने के लिए जागरूकता अभियान चलाया गया।
लंबे समय के बाद बाबा साहब के अधूरे सपने और छूटे हुए कामों को पूरा करने के लिए दलित-वंचित समाज आगे बढ़ा। महाराष्ट्र के बाहर किसी राज्य में यह पहली बार था कि बौद्ध धर्म के प्रति लोगों का झुकाव होने लगा। जगह-जगह बौद्ध सम्मेलन आयोजित किए गए। इन सम्मेलनों में खुलकर 22 प्रतिज्ञाएं दोहराई जाने लगीं। सरकारी स्तर पर आयोजकों को प्रताड़ित किया गया। आयोजन की अनुमति में बाधाएं पैदा की गईं।
दलित बुद्धिजीवियों की जबान बंद करने के लिए और उनके हौसले को तोड़ने के लिए हमले किए गए। उन पर मुकदमे दर्ज हुए। उन्हें पुलिस और कोर्ट की प्रताड़ना भी झेलनी पड़ी। दलितों पर जुल्म ज्यादतियां जितनी बढ़ती गयीं वे उतने ही अधिक मुखर होते गए। उनके सामने एक तरफ हिंदुत्व की गुलामी थी तो दूसरी तरफ संविधान की स्वतंत्रता। उनके जेहन में अपने समाज और आने वाली पीढ़ियों के भविष्य की चिंता थी। 2019 में राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा आए फैसले से लेकर 2024 के मंदिर उद्घाटन के बीच एक ऐसी लहर चल रही थी, जो दूसरों को शायद नहीं दिखाई दे रही थी। बहुजन समाज और उसमें भी खासकर दलितों ने बड़े पैमाने पर होली दीवाली जैसे हिंदू पर्व- त्योहारों को मनाना बंद कर दिया। उन्होंने हिन्दू देवी देवताओं को छोड़कर बहुजन क्रांतिधर्मी नायकों और आध्यात्मिक गुरुओं-संतों को अपनी आस्था बनाया।
बुद्ध, कबीर, रैदास से लेकर आधुनिक भारत के बहुजन नायक ज्योतिबा फुले, सावित्री बाई, रामास्वामी पेरियार, छत्रपति शाहूजी महाराज, बाबासाहेब आंबेडकर, संत गाडगे, रामस्वरूप वर्मा, पेरियार ललई सिंह, कर्पूरी ठाकुर महाराज सिंह कुशवाहा, झलकारी बाई , उदा देवी पासी जैसे तमाम महानायकों की जयंतियां उनके पर्व त्यौहार बन गए। जयंतियों पर होने वाली संगोष्ठियों में संविधान की प्रस्तावना का पाठ होता, बुद्ध वंदना होती और शपथ ली जाती थी कि हम भारत को हिंदू राष्ट्र नहीं बनने देंगे। हम संविधान की रक्षा करेंगे। बाबा साहब की जयंती का माह अप्रैल दलितों के लिए ईद और दिवाली से बढ़कर हो गया।
फाइनेंशियल टाइम्स के अनुसार 14 अप्रैल को पूरे देश में मनाए जाने वाली अम्बेडकर जयंती का खर्च 5000 करोड़ से ज्यादा है। बड़े-बड़े जुलूसों में डीजे और बाजे गाजे के साथ, हाथ में नीले झंडे लेकर दलित नौजवान निकलते हैं। पिछले 5 सालों में बहुजन नायकों की जयंतियां और जुलूस दलित अस्मिता, अस्तित्व और उनके अधिकारों को दर्ज करने का सबसे बड़ा माध्यम बन गए। पिछले 5 साल में इन गोष्ठियों, सम्मेलनों और सभाओं की तादाद कई गुना बढ़ गई। इन गोष्ठियों के मुख्य विषय संविधान की रक्षा, हिंदू राष्ट्र का विरोध और बाबा साहब अंबेडकर के विचार होते हैं। जाहिर तौर पर इनमें राजनीतिक रूप से भाजपा और आरएसएस पर जोरदार हमला होता था और बहुजनों की एकता का संकल्प बार-बार दोहराया जाता था।
संभवतया, बीजेपी दलित बहुजनों के बीच चल रहे इस आलोड़न को भांपने में सफल नहीं हुई अथवा इस नेतृत्वहीन ताकत का उसे कोई अंदाजा नहीं था। शायद भाजपा को अपने हिंदुत्व पर भरोसा था। इसलिए राम मंदिर के उद्घाटन (22 जनवरी 2024) के बाद नरेंद्र मोदी ने 'अबकी बार, 400 पार' का नारा दिया। इससे उत्साहित होकर दर्जनों भाजपा नेताओं ने संविधान बदलने की मंशा को उजागर कर दिया। इससे दलितों के बीच लगातार आगाह किए जा रहे खतरे की पुष्टि हुई।
चूंकि इस आलोड़न का नेतृत्व किसी राजनीतिक दल या व्यक्ति के हाथ में नहीं था, इसलिए राहुल गांधी और अन्य इंडिया एलाइंस के नेताओं ने जब संविधान हाथ में लेकर उसे बचाने की बात की तो दलितों ने अपनी पुरानी राजनीतिक प्रतिबद्धताओं को छोड़कर संविधान मिटाने की मुनादी करने वाली भाजपा को हराने की लिए कमर कस ली। पिछले 15 साल में यह पहली बार हुआ, जब दलितों के भीतर जाति की दीवारें टूट गईं, अंतर्विरोध खत्म हो गए। भाजपा से आने वाले अपनी जाति के प्रत्याशी को भी दलितों ने छोड़ दिया और बड़े पैमाने पर दलितों ने इंडिया गठबंधन के प्रत्याशी को वोट किया।
उत्तर प्रदेश में भाजपा की हार का सबसे बड़ा कारण दलितों की प्रतिक्रिया थी। 21.5 फीसदी वोट निर्णायक साबित हुआ। भाजपा के 'जय श्रीराम' के मुकाबले 'जय भीम' का नारा बुलंद हुआ। हिंदुत्व का डटकर मुकाबला अंबेडकरवाद ने किया। यूपी में दलितों ने भाजपा को ऐसी शिकस्त दी है जिसे वह लम्बे समय तक नहीं भूल सकती। इससे पूरे देश में अंबेडकरवाद की जड़ें और मजबूत हुई हैं।
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