ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी ने रविवार को उत्तर प्रदेश में 100 सीटों पर विधानसभा चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है। ओवैसी का उत्तर प्रदेश में ओमप्रकाश राजभर की भारतीय सुहेलदेव समाज पार्टी के साथ गठबंधन है। इसके अलावा किसी और पार्टी से गठबंधन की बात नहीं हुई है। कुछ दिनों से चर्चा थी कि ओवैसी की पार्टी का बीएसपी के साथ गठबंधन हो सकता है लेकिन मायावती ने अकेले ही चुनाव लड़ने का ऐलान करके इन अटकलों को विराम दे दिया है।
किसकी पालकी ढोएंगे
असदुद्दीन ओवैसी के इस ऐलान के बाद यह सवाल उठना लाज़मी है कि उत्तर प्रदेश में वो किसकी पालकी ढोएंगे और किस के जनाज़े को कंधा देंगे। उत्तर प्रदेश में पिछले 4 साल से बीजेपी सत्ता में है लेकिन असदुद्दीन ओवैसी जब यूपी में कोई रैली करते हैं तो उनके निशाने पर मुलायम सिंह यादव और उनका परिवार होता है। इस साल की शुरुआत में जब उन्होंने उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ने की तैयारियाँ शुरू की थीं तब अपनी पहली ही रैली में आज़मगढ़ में मुलायम सिंह और उनके परिवार पर मुसलमानों के वोट झटक कर उन्हें धोखा देने का आरोप लगाया था।
निशाने पर सपा-बसपा क्यों?
ओवैसी के तेवरों से लगता है कि बीजेपी के बजाय सपा-बसपा ही उनके निशाने पर होंगी। दरअसल उनका मक़सद इन दोनों पार्टियों को मिलने वाले मुस्लिम वोटों को झटकना है। ओवैसी का जो पुराना रिकॉर्ड है बिहार के चुनाव में उनके निशाने पर नीतीश और बीजेपी के बजाय तेजस्वी और कांग्रेस थे, वहीं पश्चिम बंगाल के चुनाव में भी ममता बनर्जी ही ओवैसी के निशाने पर थीं। उत्तर प्रदेश में भी वो इसी परंपरा को आगे बढ़ाएँगे। इसमें जरा भी शक नहीं है।
क्या है असली एजेंडा?
सबसे पहले इस पर चर्चा होनी चाहिए कि आख़िर उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ने के पीछे असदुद्दीन ओवैसी का एजेंडा क्या है? ओवैसी हर राज्य में विधानसभा चुनाव से पहले दो मुद्दे मुख्य रूप से उठाते हैं। पहला विधानसभा में मुस्लिम विधायकों की संख्या में बढ़ोतरी और दूसरा सत्ता में उनकी वाजिब हिस्सेदारी।
हर पार्टी में मज़बूत मुस्लिम नेतृत्व
उत्तर प्रदेश में हर पार्टी में मुसलमानों का मज़बूत नेतृत्व रहा है। यहाँ सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस में सलमान ख़ुर्शीद दो बार पार्टी के अध्यक्ष रहे हैं। 1998 में उनके नेतृत्व में लोकसभा का चुनाव लड़ा गया। 2007 का विधानसभा चुनाव उन्हीं के नेतृत्व में लड़ा गया। उनके अलावा मोहसिना किदवई, जियाउर रहमान अंसारी और आरिफ़ मोहम्मद ख़ान जैसे क़द्दावर नेता और बड़े चेहरे संसद में मुसलमानों की नुमाइंदगी और रहनुमाई करते रहे हैं।
कई बार लोकसभा में मुस्लिम सांसदों की संख्या 10 से ज़्यादा रही है। ये कद्दावर नेता केंद्रीय मंत्रिमंडल का भी हिस्सा रहे हैं। लिहाज़ा यह नहीं कहा जा सकता कि उत्तर प्रदेश के मुसलमानों को संसद और विधानसभाओं में नुमाइंदगी और सत्ता में वाजिब हिस्सेदारी नहीं मिली है।
सपा-बसपा के प्रयोग
मुसलमानों की विधानसभा और संसद में नुमाइंदगी और सत्ता में हिस्सेदारी के लिए समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने अच्छे प्रयोग किए हैं। 1990 के बाद से इन दोनों पार्टियों का ही सत्ता से लंबा नाता रहा है। समाजवादी पार्टी में मुलायम सिंह के बाद सबसे क़द्दावर नेता आज़म ख़ान रहे। अहमद हसन अंसारी को भी आज़म ख़ान के बराबर की ही तवज्जो दी गई। वहीं बीएसपी में मायावती के बाद सबसे मज़बूत नेता नसीमुद्दीन सिद्दीक़ी और उनके बाद चौधरी मुनक़ाद अली रहे। समाजवादी पार्टी सत्ता में रही तो आज़म ख़ान 5-6 बड़े मंत्रालयों के साथ सबसे मज़बूत मंत्री रहे। बीएसपी सत्ता में रही तो नसीमुद्दीन सिद्दीक़ी लगभग इतनी ही ताक़त से मुस्लिम समाज की नुमाइंदगी और सत्ता में हिस्सेदारी भी करते रहे।
विधानसभा में नुमाइंदगी
बीजेपी बढ़ी, मुस्लिम विधायक घटे
2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी 2012 में जीती 47 सीटों से 312 सीटों पर पहुँच गई। अपने सहयोगी दलों के साथ उसने कुल मिलाकर 325 सीटें जीतीं। बीजेपी की इस बढ़ोतरी की वजह से विधानसभा में मुसलमानों की संख्या 65% कम हो गई। 2012 के मुक़ाबले सिर्फ़ 24 ही मुस्लिम विधायक जीत पाए। हालाँकि 2007 में 14% हिस्सेदारी के साथ 56 मुस्लिम विधायक जीते थे। 2002 के विधानसभा चुनाव में मुस्लिम विधायकों की हिस्सेदारी 11.7% थी। इससे पहले 1991 में जब बीजेपी पूर्ण बहुमत के साथ चुनाव जीतकर सत्ता में आई थी तब आज़ादी के बाद मुस्लिम विधायकों की हिस्सेदारी सबसे कम 4% थी।
ओवैसी के हक़ में नहीं समीकरण
पिछले 5 विधानसभा चुनाव के नतीजों के विश्लेषण से यह बात सामने आती है कि जब-जब बीजेपी की ताक़त विधानसभा में बढ़ी है तब-तब मुस्लिम विधायकों की संख्या कम हुई है। जब-जब समाजवादी पार्टी या बीएसपी चुनाव जीती है तो मुस्लिम विधायकों की संख्या भी बढ़ी है और इनकी सरकारों में मुसलमानों को हिस्सेदारी भी मिली है। इस हिसाब से देखा जाए तो असदुद्दीन ओवैसी के लिए विधानसभा चुनाव में कुछ ख़ास गुंजाइश नहीं दिखती।
असदुद्दीन ओवैसी न तो विधानसभा में मुसलमानों की नुमाइंदगी बढ़ाने की स्थिति में हैं और ना ही उन्हें सत्ता में हिस्सेदारी दिलाने की स्थिति में हैं। लिहाज़ा चुनाव में उनकी हालत बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना जैसी हो सकती है।
बंगाल से नहीं सीखा सबक़
लगता है असदुद्दीन ओवैसी ने पश्चिम बंगाल में हुई अपनी पार्टी की दुर्गति से कोई सबक़ नहीं सीखा है। पिछले साल बिहार विधानसभा में चुनाव में 5 सीटें जीतने के बाद ओवैसी ने पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में बड़े ज़ोर-शोर से चुनाव लड़ने का ऐलान किया था। दोनों ही राज्यों में उन्होंने तभी से तैयारियाँ शुरू कर दी थीं। पश्चिम बंगाल चुनाव में उनका सपना चकनाचूर हो गया। वहाँ पहले ओवैसी ने फ़ुरफुरा शरीफ़ दरगाह के सज्जादा नशीं मौलाना अब्बास सिद्दीकी के साथ मिलकर चुनाव लड़ने का ऐलान किया था। लेकिन बाद में मौलाना ने अपनी अलग पार्टी बना ली। असदुद्दीन ओवैसी ने अकेले 6 सीटों पर चुनाव लड़ा। उनके सभी उम्मीदवारों की ज़मानत ज़ब्त हो गई। 4 सीटों पर टीएमसी के मुस्लिम उम्मीदवार जीते। किसी भी सीट पर ओवैसी की पार्टी का उम्मीदवार 5000 वोट हासिल नहीं कर पाया।
बीजेपी की मदद का आरोप
2014 में असदुद्दीन ओवैसी ने हैदराबाद के बाहर अपनी पार्टी को चुनाव लड़ाना शुरू किया है। तभी से उन पर बीजेपी को मदद पहुँचाने का आरोप लग रहा है। पिछले साल हुए बिहार के विधानसभा चुनाव में यह आरोप पुख़्ता तरीक़े से लगा। ऐसा माना जाता है कि बिहार में उनके 24 सीटों पर चुनाव लड़ने से आरजेडी और कांग्रेस के महागठबंधन को काफ़ी नुक़सान हुआ। असदुद्दीन ओवैसी सिर्फ़ 5 सीट जीतने में कामयाब रहे। लेकिन उनकी मौजूदगी की वजह से बीजेपी को क़रीब 20 से 25 सीटों का फ़ायदा और महागठबंधन को इतनी सीटों का नुक़सान हुआ। 2014 और 2019 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में भी असदुद्दीन ओवैसी पर बीजेपी-शिवसेना गठबंधन को मदद पहुँचाने का आरोप लगा था।
क्या है हक़ीक़त?
आरोप अपनी जगह हैं और हक़ीक़त अपनी जगह। बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों का विश्लेषण करने से यह बात सामने आती है कि जो सीटें ओवैसी की पार्टी ने जीती हैं उनके अलावा बाक़ी सीटों पर उनकी पार्टी को बहुत कम वोट मिले हैं। उनकी पार्टी अगर चुनावी मैदान में नहीं होती तो उन वोटों से महागठबंधन को कोई ख़ास फ़ायदा होने वाला नहीं था। ठीक यही स्थिति महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों की भी है। लेकिन राजनीति में अंकगणित ही सब कुछ नहीं होता। असदुद्दीन ओवैसी की चुनाव मैदान में मौजूदगी का मनोवैज्ञानिक फ़ायदा बीजेपी को पहुँचता है।
ओवैसी की सभाओं में जुटने वाली मुसलमानों की भीड़ को देखकर बीजेपी की विचारधारा से प्रभावित लोग ना चाहते हुए भी बीजेपी की तरफ़ खिसक जाते हैं। इससे बीजेपी के वोटों में निश्चित तौर पर इज़ाफ़ा होता है।
क्या बीजेपी के एजेंट हैं ओवैसी?
मुस्लिम समाज में यह बात बड़े पैमाने पर उठती है कि क्या असदुद्दीन ओवैसी बीजेपी के एजेंट के तौर पर काम कर रहे हैं? हालाँकि इस बात से ओवैसी और उनके समर्थक पूरी तरह इनकार करते हैं। लेकिन कुछ राजनीतिक विश्लेषक और प्रेक्षक पुख्ता तौर पर इसे सही मानते हैं। इस दावे को बीजेपी सांसद साक्षी महाराज के बयान से बल मिला है। इसी साल जनवरी में जब असदुद्दीन ओवैसी ने उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ में बड़ी रैली करके मुलायम सिंह और उनके परिवार पर मुसलमानों को धोखा देने का आरोप लगाते हुए निशाना साधा था तब बीजेपी सांसद साक्षी महाराज ने कहा था कि ओवैसी बीजेपी के मित्र हैं। जैसे उन्होंने बिहार में बीजेपी को फायदा पहुँचाया है ठीक उसी तरह पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में भी फायदा पहुँचाएंगे।
यूपी में पहले भी हो चुके हैं प्रयोग
विधानसभा में मुसलमानों की नुमाइंदगी और सत्ता में हिस्सेदारी के नाम पर असदुद्दीन ओवैसी उत्तर प्रदेश में जो प्रयोग करना चाहते हैं वैसे उत्तर प्रदेश में पहले भी कई बार हो चुके हैं। 1967 में अंबेडकरवादी विचारधारा से प्रभावित डॉक्टर जलील फरीदी ने मुस्लिम मजलिस नाम से पार्टी बनाई थी। चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व वाले लोकदल के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ा था। तब उन्हें 12 सीटों पर जीत हासिल हुई थी। लेकिन बाद में मुस्लिम मजलिस ताश के पत्तों की तरह बिखर कर रह गई। 1995 में जब मायावती ने अपने सरकार में शिक्षा मंत्री रहे डॉक्टर मसूद को बाहर का रास्ता दिखाया तो उन्होंने असद खान के साथ मिलकर नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी बनाई। उन दोनों का इरादा मुस्लिम वोटों को एकजुट करके उत्तर प्रदेश की राजनीति में बड़ा उलटफेर करने का था। कई चुनाव लड़ने के बाद वह महज़ एक सांसद और एक विधायक ही जिता पाए। वक्त के साथ डॉक्टर मसूद कई पार्टियों में होते हुए गुमनामी के अंधेरों में खो गए हैं जबकि अरशद ख़ान समाजवादी पार्टी में महासचिव के तौर पर काम कर रहे हैं।
पीस पार्टी का भी था जलवा
नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी के चले जाने के बाद 2008 में पीस पार्टी वजूद में आई। 2009 के लोकसभा चुनाव और उसके बाद विधानसभा के दो उपचुनाव में अच्छा प्रदर्शन करने के बाद इस पार्टी ने जलवा बिखेरना शुरू किया। 2012 के विधानसभा चुनाव में पीस पार्टी का ज़बरदस्त जलवा था। यह पहला मौका था कि जब किसी मुस्लिम नेतृत्व वाली पार्टी के पीछे कई पूर्व आईएएस और आईपीएस अधिकारी भी राजनीति में कूद पड़े थे। लग रहा था कि यह पार्टी प्रदेश की सियासत में लंबी पारी खेलेगी। 2012 में इसने 4 विधानसभा सीटें जीतीं। 3 सीटों पर नंबर दो रही और सभी 25 सीटों पर अच्छे वोट भी हासिल किए। लेकिन 2017 का चुनाव आते-आते इसका भी वही हाल हुआ जो मुस्लिम मजलिस और नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी का हुआ था।
पुराने रास्ते पर ओवैसी
एक अमेरिकी चिंतक ने कहा है कि अगर आप कोई काम ठीक उसी तरह करते हो जैसे आप से पहले लोगों ने किया है, तो यक़ीन जानिए आपको वही नतीजे मिलेंगे जो आपसे पहले लोगों को मिले हैं। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में असदुद्दीन ओवैसी भी उन्हीं तौर-तरीक़ों के साथ उतर रहे हैं जैसा कि उनसे पहले डॉक्टर जलील फ़रीदी, डॉक्टर मसूद और डॉक्टर अयूब उतरे थे। लिहाज़ा ओवैसी का भी वही हश्र होना तय है जो इन लोगों का हुआ है।
2012 के चुनाव में पीस पार्टी का कुर्मियों के नेतृत्व में पिछड़ों की बात करने वाले अपना दल के साथ गठबंधन था। असदुद्दीन ओवैसी ने अति पिछड़ों की बात करने वाले राजभर के साथ गठबंधन किया है। यह गठबंधन अगर 5-10 सीटें जीत भी जाता है तो इससे प्रदेश की राजनीति पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा।
दरअसल, उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजे असदुद्दीन ओवैसी और उनके राजनीति का भविष्य भी तय करेंगे। बिहार विधानसभा चुनाव में 5 सीटें जीतने के बाद देशभर में असदुद्दीन ओवैसी का राजनीतिक कद बढ़ा था। पूरे देश भर के मुसलमानों का नेता और मसीहा माना जाने लगा था। लेकिन पश्चिम बंगाल के चुनाव उनकी पार्टी की हुई दुर्गति ने उनके इस बढ़ते हुए क़द को रोक दिया है। अगर ओवैसी उत्तर प्रदेश में बिहार वाला प्रदर्शन दोहराते हैं तो अगले एक-दो चुनाव में उनकी पार्टी अपनी भूमिका निभाएगी लेकिन अगर पश्चिम बंगाल वाला प्रदर्शन दोहराते हैं तो फिर उनकी राजनीति हैदराबाद तक ही सिमट कर रह जाएगी।
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