सदी की शुरुआत में सचिन तेंदुलकर ने घर में साउथ अफ्रीका के ख़िलाफ़ 2-0 की हार के बाद मायूस होकर बेहद भारी मन से कप्तानी छोड़ दी। 5 साल बाद सौरव गांगुली को विवादों के बीच कप्तानी से हटा दिया गया। राहुल द्रविड़ को जब ये लगा कि वो ड्रेसिंग रुम की राजनीति को संभालने में नाकाम हो रहे हैं और उनके बल्ले से रन भी सूख रहे हैं तो उन्होंने 2007 में इंग्लैंड दौरा ख़त्म होने के बाद अचानक कप्तानी को अलविदा कह दिया।
अनिल कुंबले कुछ ही वक़्त के लिए कप्तान बने लेकिन बढ़ती उम्र और अपनी फिटनेस को ध्यान में रखते हुए उन्होंने भी अचानक ही सीरीज़ के बीच में कप्तानी छोड़ दी। और महेंद्र सिंह धोनी का कप्तानी छोड़ने का क़िस्सा तो अपने आप में लाजवाब है। साउथ अफ्रीका के ख़िलाफ़ टेस्ट सीरीज़ में हार के बाद जब विराट कोहली ने भी नाटकीय अंदाज़ में कप्तानी छोड़ने की घोषणा की तो उसमें तेंदुलकर से लेकर धोनी तक सारे फैक्टर मौजूद रहे।
अगर तेंदुलकर की ही तरह कोहली एक और सीरीज़ हार के बाद मायूस थे तो गांगुली की ही तरह मैदान के बाहर विवाद उनका पीछा नहीं छोड़ रहे थे। द्रविड़ की ही तरह ड्रेसिंग रुम की खामोशी उन्हें परेशान कर रही थी तो बल्ले से रन भी सूख रहे थे। कुंबले की तरह उम्र और फिटनेस को लेकर भी अब सवाल दबी ज़ुबा में ही सही उठने शुरू हो रहे थे तो धोनी की ही तरह उन्होंने सबसे पहले अपने साथी खिलाड़ियों को इस ख़बर की सूचना दी।
लेकिन, टीम इंडिया के पूर्व कप्तानों के साथ कोहली की कप्तानी यात्रा का अध्याय ख़त्म होने के समय ही कुछ समानतायें लेकर आया वरना कोहली तो अनूठे थे। आँकड़ों के लिहाज से तो कोई भी टेस्ट कप्तान उनके आस-पास भी नहीं है। धोनी भी नहीं। टेस्ट क्रिकेट की हम बात कर रहे हैं। लेकिन, आँकड़ों से भी बढ़कर जो बड़ी बात है वो ये कि कोहली ने विदेशी ज़मीं पर टीम इंडिया को फेवरिट का तमगा दिलाया।
भले ही एशियाई उप-महाद्वीप के बाहर उनकी टीम बहुत ज़्यादा सीरीज़ जीत नहीं पायी हो लेकिन हर सीरीज़ से पहले मुश्किल टीमों के ख़िलाफ़ कोहली की टीम के दावे को मेज़बान के बराबर या उससे बेहतर माना गया, ये अपने आप में भारतीय क्रिकेट की एक सुखद दास्तां है। क्योंकि विदेशी ज़मीं पर मज़बूत से मज़बूत भारतीय टीमों को अतीत में जीत का प्रबल दावेदार नहीं माना जाता था।
आज साउथ अफ्रीका के ख़िलाफ़ भारत फिर से टेस्ट सीरीज़ नहीं जीत पाया तो इसे अपसेट माना जा रहा है जबकि इतिहास को खंगालें तो कभी भी किसी भारतीय टीम ने वहां सीरीज़ नहीं जीती थी।
5 गेंदबाज़ों के साथ हर टेस्ट में उतरना और हर हाल में पहले 20 विकेट हासिल करने की कवायद ने कोहली को स्टीव वॉ और रिकी पोटिंग जैसे कप्तानों की आक्रामकता के साथ खड़ा किया। लेकिन, कोहली की अति-आक्रामकता ने उनका नुक़सान भी किया। हर समय लड़ाकू नज़रिया अपनाने वाले कोहली अपने बोर्ड अध्यक्ष सौरव गांगुली से टकरा गये। कोहली ने गांगुली के साथ टकराने का ग़लत वक़्त चुना क्योंकि अब वो न तो बल्लेबाज़ के तौर पर विराट थे और ना ही कप्तान के तौर पर बोर्ड में उनका बोलबाला रहा। इतना ही नहीं, भारतीय क्रिकेट में कप्तानी के विकल्प के तौर पर ना सिर्फ़ रोहित शर्मा और के एल राहुल बल्कि ऋषभ पंत जैसे युवा का नाम भी उछलने लगा।
कुल मिलाकर देखा जाए तो कप्तानी के आखिरी लैप में कोहली बिलकुल अकेले पड़ गये थे। रवि शास्त्री की विदाई के बाद ड्रेसिंग रुम में कोहली के अहं को संतुष्ट करने वाला कोई भी एक शख्स नहीं था। जिस ड्रेसिंग रुम में कोहली किंग थे उसी ड्रेसिंग रुम में अब राहुल और पंत जैसे युवा राजकुमार दिखने लगे थे तो रोहित को देर से ही सही लेकिन सीनियर स्टेट्समैन का दर्जा मिलना शुरू हो गया था। अपनी आखिरी सीरीज़ में तो कोहली बिलकुल ही बदल चुके थे। क्रिकेट के फ़ैसले अब वो खुद लेने की बजाए कोच राहुल द्रविड़ को ये अधिकार दे चुके थे। यहाँ तक कि टीम के चयन को लेकर वो उप-कप्तान की मंशा तक का ज़िक्र प्रेस कॉन्फ्रेंस तक में करने लगे थे। और तो और जब वो प्रेस से बातचीत करने के लिए कप्तान के तौर पर आख़िरी बार सामने आये तो वो पुराने कोहली तो थे ही नहीं। पत्रकारों से उलझना और आक्रामकता से वहाँ भी पेश आना कोहली के लिये सामान्य था लेकिन इस बार वो विनम्र कोहली की भूमिका में नज़र आये। यह विनम्रता एक स्वाभाविक लचीलानापन ना होकर एक ज़बरदस्ती थोपा हुआ नज़रिया दिख रहा था। कोहली तो ऐसे अपनी यात्रा को बरकरार नहीं रख सकते थे।
कोहली जानते थे कि सौरव गांगुली और बीसीसीआई को जिस नाकामी का इंतज़ार था वो अब उन सभी के सामने होगा। कोहली को दिख चुका था कि अगला वार कहां और कैसे होने वाला है। श्रीलंका के ख़िलाफ़ अगले महीने 2 टेस्ट मैच खेले जाने हैं जहां नये खिलाड़ियों को मौक़ा दिया जायेगा और उसी बहाने एक नये कप्तान को भी आजमाया जाता।
अपने 100वें टेस्ट की दहलीज़ पर खड़े कोहली शायद ये भांप चुके थे अगर इस बार भी फ़ैसला लेने में उन्होंने थोड़ी देर की या फिर नई ज़िद की तो बोर्ड और गांगुली बेहद निर्ममता से उनकी विरासत को ठेस पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे।
अगर कोहली के बयान को आप देखेंगे तो उसमें शास्त्री, जो उनके कोच थे, इसके अलावा सिर्फ धोनी का जिक्र है। अगर शास्त्री ने कोहली को वो हर खुली छूट दी तो धोनी ने कोहली की कमियों को नज़रअंदाज़ करते हुए उनकी खूबियों को ही देखा और तराशा। इसलिए, अपने करियर के सबसे भावनात्मक लम्हों के दौरान कोहली ने माही भाई को ही याद किया। बहरहाल, सफेद गेंद के क्रिकेट में भले ही ना सही लेकिन लाल गेंद के क्रिकेट में कोहली ने कप्तान के तौर पर जो हासिल किया उस पर माही भाई तो क्या भारतीय क्रिकेट के हर फैन को नाज़ होगा।
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