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अहमदाबाद में रविवार को वेस्टइंडीज़ के ख़िलाफ़ 3 मैचों की वन-डे सीरीज़ का पहला मुक़ाबला रोहित शर्मा के लिए काफ़ी मायने रखता है। कोच राहुल द्रविड़ के लिए भी क्योंकि एक तरह से देखा जाए तो आधिकारिक तौर पर भारतीय क्रिकेट में विराट कोहली का युग ख़त्म होने के बाद ये एक नये युग की शुरुआत है। लेकिन, इत्तेफाक़ देखिये कि ये मैच भारतीय वन-डे के इतिहास का 1000वाँ मुक़ाबला है।
चूँकि, मौजूदा दौर मार्केटिंग का दौर है तो अचानक से ही इस आँकड़े को ज़रूरत से ज़्यादा सुर्खियाँ मिल रही हैं। आम-तौर पर क्रिकेट के संवेदनशील मुद्दे पर अपनी राय रखने से दूर रहने वाले इस फॉर्मेट के महानतम बल्लेबाज़ सचिन तेंदुलकर ने भी दिल-खोलकर कर इंटरव्यू देना शुरू कर दिया तो वन-डे क्रिकेट का इतिहास फिर से चर्चा में आ गया।
अब आप सोशल मीडिया को ही उठाकर देख लें। क्रिकेटर से लेकर आम फैन तक अपनी महानतम भारतीय टीम और भारतीय इलेवन के बारे में अपनी पसंद बताते दिख रहे हैं। लेकिन, हर कोई इस बात को भूल रहा है कि भारत भले ही पिछले 5 दशक के भीतर 1000 वन-डे मैच का आँकड़ा छू रहा है लेकिन इसके बाद क्या वो आने वाले 5 दशक में इसके आधे मैच भी खेल पायेगा इसकी कोई गारंटी नहीं है।
टेस्ट क्रिकेट 1877 से खेला जा रहा है और इस फॉर्मेट के अंत की भविष्याणी न जाने कितने जानकारों ने की लेकिन यह अब भी ज़िंदा है और बेहतर हालात में है। टी20 के बारे में तो आपको कुछ कहने की ज़रूरत ही नहीं। लेकिन, वन-डे क्रिकेट को अब कोई पूछने वाला नहीं दिख रहा है। दो मुल्कों के बीच खेली जाने वाली सीरीज़ को तो बिलकुल ही नहीं। हर चार साल पर होने वाले वन-डे वर्ल्ड कप का रोमांच तो अब भी बरकरार है लेकिन पिछले एक दशक में इतने ही ज़्यादा ऊबाऊ और बेमतलब के वन-डे मैच टीम इंडिया ने खेल लिए हैं कि पता नहीं चलता है कि इस फॉर्मेट में जब तक रोहित शर्मा दोहरा शतक ना लगायें, आपका ध्यान नहीं जाता।
ईमानदारी से सोच कर बोलियेगा कि आखिरी मौक़ा कब था जब आपने किसी वन-डे सीरीज़ का इंतज़ार किया था। वेस्टइंडीज़ के बाद भारत को श्रीलंका के ख़िलाफ़ तीन मैचों की वन-डे सीरीज़ खेलनी है और फिर आईपीएल के बाद जून के महीने में साउथ अफ्रीका की टीम यहाँ 5 वन-डे खेलेगी। लेकिन, इससे हासिल क्या होगा, कुछ भी नहीं।
वेस्टइंडीज़ की टीम तो पिछले महीने अपने घर में ऑयरलैंड तक को नहीं हरा पायी तो वो क्या भारत को भारत में हरा पायेगी? श्रीलंका की दावेदारी भी कौन सी तगड़ी होगी। भारत में पिछले एक दशक में सिर्फ ऑस्ट्रेलिया और एक बार साउथ अफ्रीका ने वन-डे सीरीज़ में जीत हासिल की है।
अगर भारत को वाक़ई में वन-डे क्रिकेट की परवाह करनी है तो उन्हें एक नया नज़रिया अपनाना होगा। अब भी भारत वन-डे क्रिकेट उसी माइंडसेट से खेल रहा है जैसा कि कोच राहुल द्रविड़ के दौर में हुआ करता था। भारत के पास फिलहाल असीमित प्रतिभा है लेकिन अब भी आपको नब्बे के दशक वाले सनत जयसूर्या-रोमेश कालूवितराना जैसी विस्फोटक सलामी जोड़ी की तलाश है जो पहले ही गेंद से हमला बोलती थी।
इंग्लैंड की टीम जिसे अक्सर पारंपरिक क्रिकेट और बेहद रुढ़ियवादी नज़रिया रखने के लिए जाना जाता था वो अब पहले गेंद से लेकर पारी के 50वें ओवर तक वही तेवर बरकरार रखती है। 2019 में वर्ल्ड कप चैंपियन बनना इसी सोच की बदौलत मुमकिन हुआ था। लेकिन, टीम इंडिया अब भी सचिन तेंदुलकर-सौरव गांगुली-वीरेंद्र सहवाग वाले दौर की मानसिकता से गुज़र रही है। शुरू में भी विकेट बचाओ और संभलकर खेलो। एक बल्लेबाज़ को बड़ा शतक ज़रूर बनाना चाहिए। रोहित शर्मा और शिखर धवन ने इसी अंदाज़ में बल्लेबाज़ी की है और उनके बाद दुनिया के सबसे धाकड़ बल्लेबाज़ विराट कोहली का भी अंदाज़ कुछ ऐसा ही है। शुरू में गुरु थोड़ा संभल के... लेकिन, अगर आप भारतीय टीम के वन-डे क्रिकेट पर 2011 वर्ल्ड कप जीत के बाद नज़र दौड़ायेंगे तो पायेंगे कि हर टूर्नामेंट में टॉप ऑर्डर की ये तिकड़ी खूब रन बटोरती है लेकिन सेमी-फाइनल या फाइनल जैसे दबाव वाले लम्हें में चूक जाती है। इस दौरान सिर्फ़ 2013 की चैंपियंस ट्रॉफी इकलौता अपवाद वाला अध्याय है।
1000वें वन-डे का जश्न मनाने की बजाए बीसीसीआई को ये सोचना चाहिए कि अब तक उनकी टीम ने सिर्फ़ 2 और ऑस्ट्रेलिया ने 5 वर्ल्ड कप क्यों जीते हैं? आज भी कंगारुओं ने भारतीयों से ज़्यादा वन-डे मैच क्यों जीत रखे हैं? बीसीसीआई को ये सोचना चाहिए कि अगले साल फिर से जब भारत में विश्व कप का आयोजन होगा तो क्या रोहित शर्मा की टीम महेंद्र सिंह धोनी की टीम की तरह कप जीत पायेगी?
सिर्फ़ भारत में कप आयोजित होने से जीतने की गारंटी नहीं मिलती है। अगर ऐसा होता तो 1987 में कपिल देव और 1996 में मोहम्मद अज़हरुदीन के हाथों भी वर्ल्ड कप होता। अगर भारत ने 2011 में वर्ल्ड कप जीता तो निश्चित तौर पर उसे वन-डे इतिहास की महानतम टीम का दर्जा मिल सकता है। 1983 की टीम में कपिल देव को छोड़ दिया तो शायद किसी और खिलाड़ी को टीम इंडिया की सर्वकालिक महानतम टीम में जगह नहीं मिले वहीं अगर इसकी तुलना 2011 की टीम से करें तो तेंदुलकर, सहवाग, युवराज, धोनी, हरभजन, ज़हीर ख़ान, विराट कोहली और सुरेश रैना लगभग हर महानतम प्लेइंग इलेवन का हिस्सा हो सकते हैं।
कुल मिलाकर देखा जाए तो अहमदाबाद में पहला वन-डे सिर्फ़ एक ऐसा मुक़ाबला है जिसमें न तो क्रिकेट के गंभीर प्रेमियों को दिलचस्पी है और न ही नई पीढ़ी को। जो गंभीर है वो अभी तक साउथ अफ्रीका के ख़िलाफ़ टेस्ट सीरीज़ के सदमे से उबर नहीं पाये हैं और नई पीढ़ी आईपीएल तो दूर की बात फ़िलहाल आईपीएल के ऑक्शन को लेकर ही इतनी रोमांचित है कि उसे इस बात की शायद ही फिक्र हो ये 1000वाँ मुक़ाबला है!
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