पश्चिम बंगाल में इस बार बीजेपी को बड़ी कामयाबी मिली। पर कोई नहीं कह सकता कि वहाँ की मुख्यमंत्री और तृणमूल नेता ममता बनर्जी ने बीजेपी को रोकने में किसी स्तर पर कोताही की या उनकी बीजेपी या केंद्र सरकार से किसी तरह की कोई दुरभिसंधि थी। यह भी कोई नहीं कह सकता कि कुछ केंद्रीय संस्थाओं की राजनीतिक रूप से ‘निर्देशित कार्रवाइयों’ से वह डरी हुई थीं। बिहार में मुख्य विपक्षी दल- राजद के बारे में बहुत सारी बातें कही जा सकती हैं कि वह लोकसभा चुनाव में एक भी सीट क्यों नहीं पा सका? उसकी तरफ़ से क्या-क्या ग़लतियाँ हुईं? पर कोई यह नहीं कह सकता कि राजद नेता तेजस्वी यादव बीजेपी या केंद्र के मौजूदा निज़ाम से डरे-सहमे थे। डरने-सहमने के उनके पास कम कारण नहीं थे। उनके पिता लालू प्रसाद जेल में हैं और उनके परिवार के लगभग हर सदस्य के ख़िलाफ़ कोई न कोई मामला सीबीआई, ईडी या न्यायालयों में लंबित है। उधर, दक्षिण में आंध्र के मुख्यमंत्री रहे एन. चंद्रबाबू नायडू पूरी तरह उखड़ गए। उनकी पार्टी टीडीपी लोकसभा के साथ विधानसभा चुनाव भी बुरी तरह हारी। उनके बारे में भी कोई नहीं कह रहा कि वह ठीक से लड़े ही नहीं, यूँ ही हार गए। लेकिन उत्तर प्रदेश की दोनों प्रमुख विपक्षी पार्टियों-समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के अपने नेता- कार्यकर्ता भी दबी ज़ुबान में कह रहे हैं कि पिछले विधानसभा चुनाव की तरह इस लोकसभा चुनाव में भी उनकी पार्टियों को चलाने वाले दोनों ‘परिवार’ कहीं न कहीं केंद्र के निज़ाम और सत्ताधारी दल के शीर्ष नेतृत्व से डरे-सहमे थे।
ऐसा लग रहा था, मानो सपा-बसपा (दोनों मिलकर) हारने के लिए ही चुनाव लड़ रही हैं! इसका क्या मतलब निकाला जाए? क्या यह माना जाए कि सपा-बसपा की बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व के साथ किसी तरह की दुरभिसंधि थी?
2017 के विधानसभा चुनाव से लेकर लोकसभा चुनाव के कई अहम राजनीतिक घटनाक्रमों को देखें तो संदिग्ध-संधि या दुरभिसंधि की बात बिल्कुल निराधार नहीं लगती। आय से अधिक सम्पत्ति और भ्रष्टाचार के अनेक मामलों के आरोपी होने के चलते यूपी के 'दोनों परिवारों' पर लंबे समय से अलग-अलग सरकारी एजेंसियों की तलवार लटकी रहती है। इन पर पड़ने वाले राजनीतिक-प्रशासनिक दबावों से भला कौन इनकार करेगा? सपा के संस्थापक मुलायम सिंह यादव के एक ख़ास सलाहकार, जो कुछ सालों से बीजेपी के नज़दीक हो गए हैं, ने एक बार अनौपचारिक बातचीत में मुझसे कहा, 'आप लोगों का क्या मालूम कि नेता जी की नैया पार लगाने और परिवार को सत्ता तक पहुँचाने के लिए मुझे कैसे-कैसे पापड़ बेलने पड़ते हैं।' अब मुलायम-परिवार के पास वैसा कोई बिचौलिया भी नहीं है। ज़ाहिर है, जहाँ ज़रूरत हो, सीधा संपर्क करना होता है।
सैफई परिवार में कलह क्यों?
यूपी और सपा की अंदरुनी राजनीति के कई जानकार मानते हैं कि 2017 के विधानसभा चुनाव के ऐन पहले 'ख़ास दबाव' के चलते सैफई परिवार में कलह और विभाजन का विस्फोटक नज़ारा सामने आया। एक तरह की 'दुरभिसंधि' के तहत यूपी में बड़े आराम से बीजेपी की अभूतपूर्व जीत का रास्ता तैयार किया गया। उसके बाद तो समाजवादी पार्टी मानो विपक्ष की भूमिका ही भुला बैठी! इस राजनीतिक प्रक्रिया का चरम दिखाई पड़ा पिछली लोकसभा के अंतिम सत्र में, जब सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को फिर से जीतकर आने और देश का दोबारा प्रधानमंत्री बनने के लिए अपनी शुभकामना दी। संसदीय राजनीति में बेशक सौहार्द्र और शुभकामना आदि की औपचारिकता निभाई जाती है। पर ऐसा कभी नहीं देखा गया, जब देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टियों में से एक का पुरोधा सत्ताधारी दल के शीर्ष नेता और सरकार के प्रमुख को फिर से सत्ता हासिल करने की शुभकामना दे।
सपा-बसपा गठबंधन का मुख्य नारा क्या था?
विपक्षी खेमे के बहुतेरे लोग कह सकते हैं, दुरभिसंधि की बात गले नहीं उतरती। ऐसा होता तो सपा-बसपा के बीच लोकसभा चुनाव के लिए गठबंधन कैसे हो जाता, वह भी तब जब बीजेपी को हराने में गठबंधन बहुत समर्थ दिख रहा था? लेकिन ऐसे लोगों को इस विपक्षी गठबंधन की चुनावी रणनीति और चुनाव प्रचार अभियान का अध्ययन करना चाहिए। इस चुनाव में सपा-बसपा गठबंधन का मुख्य नारा क्या था? दोनों ने चुनाव जीतने के लिए मुख्य एजेंडा क्या सामने लाया? सपा के मुख्य नारों पर ग़ौर करे: 'जै जै जै अखिलेश', 'ये जवानी क़ुर्बान, अखिलेश भैया तेरे नाम', और तीसरे नारे को देखें: 'विकास की चाबी डिम्पल भाभी'! प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की ठोस चुनावी रणनीति, उनके पक्ष में बेजोड़ मीडिया अभियान और आरएसएस-बीजेपी कार्यकर्ताओं के विशाल नेटवर्क के आगे सपा का निजी-पारिवारिक एजेंडा आधारित चुनाव अभियान भला कहाँ टिकता? सपा की चुनावी रणनीति के सलाहकार कौन थे? वे कहाँ से आए थे? इन सवालों के जवाब में यूपी के मुख्य विपक्षी दलों के बीजेपी-समक्ष 'रणनीतिक समर्पण' की पूरी कहानी छिपी है।
चुनाव प्रचार अभियान
सपा-बसपा नेतृत्व ने चुनाव प्रचार अभियान की शुरुआत तब की, जब मोदी-शाह यूपी में लगभग नब्बे फ़ीसदी हिस्सा कवर कर चुके थे। दोनों दलों के चालीस फ़ीसदी से अधिक उम्मीदवारों की घोषणा नामांकन की आख़िरी तारीख़ के कुछ ही दिनों पहले हुई। बलिया संसदीय क्षेत्र में अपेक्षाकृत अच्छे और जीतने योग्य सपा उम्मीदवार के नाम की घोषणा तो नामांकन की आख़िरी तारीख़ के कुछ ही घंटे पहले की गई। अनेक सीटों पर कमज़ोर उम्मीदवार उतारे गए। गठबंधन में अगर किसी दल ने पूरी प्रतिबद्धता से चुनावी लड़ाई लड़ी तो वह रालोद था। पर पिता-पुत्र अजित सिंह और जयंत चौधरी, दोनों चुनाव हार गए।
कैसा दिलचस्प वाक़या है: लोकसभा चुनाव के अभी नतीजे भी नहीं आए थे। मतगणना के दो दिन पहले ही सीबीआई ने सपा नेतृत्व के परिवार के कई सदस्यों पर लंबित आय से अधिक सम्पत्ति के बारे मामलों में उन्हें निर्दोष बताती रिपोर्ट कोर्ट को सौंपने का फ़ैसला किया। इसका विधिवत एलान भी हो गया।
बसपा की चुनावी तैयारी
अब देखिए, बसपा का चुनावी अभियान। चुनाव से काफ़ी पहले 2017 के जुलाई महीने में बसपा सुप्रीमो मायावती ने एलान किया कि अब वह दलित उत्पीड़न के बढ़ते मामलों के विरुद्ध पूरे प्रदेश में अभियान चलाएँगी! राज्यसभा से अपने औचक इस्तीफ़े के कुछ ही घंटे बाद उन्होंने इस आशय का एलान किया था! राज्यसभा में उन्होंने सहारनपुर सहित दलित उत्पीड़न के अन्य मामलों को उठाना चाहा। पर संसदीय नियमों का हवाला राज्यसभा के तत्कालीन उपसभापति पी. जे. कुरियन ने उन्हें लंबा भाषण देने से रोक दिया था। मायावती इस क़दर नाराज़ हुईं कि उन्होंने सदन से अपने इस्तीफ़े का एलान कर दिया। कुछ ही घंटे बाद राज्यसभा के तत्कालीन सभापति हामिद अंसारी को उन्होंने अपना इस्तीफ़ा भेज भी दिया! मायावती जी के पास राज्यसभा में चर्चा कराने के और भी विकल्प थे! वह बीजेपी सरकार के ख़िलाफ़ सदन में स्थगन प्रस्ताव सहित कई अन्य संसदीय क़दमों के ज़रिए दलित उत्पीड़न पर बहस के लिए शासन को बाध्य कर सकती थीं। पर ऐसा कुछ नहीं, सीधे इस्तीफ़ा।
मायावती जी से उनकी पार्टी में आज किसकी पूछने की हिम्मत है कि उन्होंने इस्तीफ़ा देकर बसपा की एक संसदीय सदस्यता कम क्यों कराई? उसका फ़ायदा किस दल या सत्ता को मिला? इस्तीफ़े से किसका हित पूरा हुआ?
इस्तीफ़े के बाद उन्होंने दलित उत्पीड़न के विरुद्ध कितना और क्या अभियान चलाया? कोरेगाँव से लेकर एससी-एसटी एक्ट के मामले में सारी ज़मीनी लड़ाई तो जन संगठनों या ग़ैर पार्टी दलित-ओबीसी संगठनों और आम लोगों ने लड़ी। मायावती जी ने समय-समय पर सिर्फ़ समर्थन में बयान भर दिया। सहारनपुर के दलित युवा चंद्रशेखर आज़ाद की एनएसए के तहत गिरफ़्तारी मामले में उनकी खामोशी रहस्यमय ही नहीं, बेहद चौंकाने वाली रही। वह उन दिनों लगातार 'असुरक्षित' महसूस करती बताई गईं कि कहीं यूपी में नया दलित नेतृत्व सामने न आ जाए! सहारनपुर मामले में 'विक्टिम' होने के बावजूद समझ और सियासी हुनर के अभाव के चलते चंद्रशेखर आज़ाद यूपी में मायावती की जगह नहीं ले सकते थे। जिग्नेश मेवाणी जैसों के पास समझ तो थी पर यूपी में आधार और सक्रियता नहीं थी। इसलिए यूपी की दलित राजनीति में 'मायावती नाम केवलम' का सिलसिला बना रहा। उसे अगर अंदर ही अंदर बड़ी चुनौती दी तो वह थी कांशीराम जी के शब्द में एक 'मनुवादी पार्टी' यानी भारतीय जनता पार्टी।
आगरा से अयोध्या और गाज़ियाबाद से गोरखपुर तक ग़ैर-जाटव दलितों के बीच बीजेपी ने अपनी सत्ता और संघ के ज़रिए जबर्दस्त समर्थन जुटाया। चुनाव से कुछ ही समय पहले यूपी की सुगर मिलों आदि के निजी अधिग्रहण के मामले में कुछ और मुक़दमे दायर किए गए। सीबीआई ने अधिग्रहण की पूरी प्रक्रिया की पड़ताल के लिए एफ़आईआर दर्ज की। सुगर मिलों सम्बन्धी ये सारे फ़ैसले मायावती के मुख्यमंत्रित्व काल के हैं। दिल्ली और नोएडा स्थित मायावती के कुछ ख़ास समर्थक पूर्व अधिकारियों पर जमकर छापेमारी हुई। इससे पहले उनके भाई आनंद के ख़िलाफ़ धीमी गति से चल रहे मामलों में तेज़ी लाई गई। यह सब लोकसभा चुनाव के कुछ महीने पहले शुरू हुआ।
- किसी भी क़ीमत पर कांग्रेस को गठबंधन का हिस्सा न बनाने की मायावती जी की ज़िद भी गठबंधन के दोनों दलों की चुनावी रणनीति और सियासी मकसद को संदिग्ध बनाता है। कार्यकर्ताओं के अच्छी संख्या में होने के बावजूद ज़्यादातर क्षेत्रों में बूथ स्तरीय समितियों का न होना भी रहस्यमय लगता है।
अब गठबंधन की असमय मौत!
और लोकसभा चुनाव के बाद अब बसपा सुप्रीमो ने अचानक एलान किया कि विधानसभा के उप-चुनावों में बसपा अकेले लड़ेगी। बसपा लंबे समय से उप-चुनाव नहीं लड़ती लेकिन इस बार लड़ेगी। फिर मायावती ने सपा-बसपा गठबंधन की असमय मौत की घोषणा भी कर दी। पर यह बताना नहीं भूलीं कि अखिलेश-डिम्पल के परिवार से उनका रिश्ता बना रहेगा। भविष्य में गठबंधन की वापसी से भी इनकार नहीं किया।
राजनीति शास्त्र के किसी मर्मज्ञ की छोड़िए, राजनीति का एक अदना ज़मीनी कार्यकर्ता भी बता देगा कि यूपी में सपा-बसपा लोकसभा चुनाव में मानो हारने के लिए ही लड़ रही थीं। इनके कुछ उम्मीदवारों को तो जीतना ही था। कुछ अपने दम पर जीते, कुछ 'कृपा' से और कुछ जनता के ज़बर्दस्त समर्थन के चलते। इसमें गठबंधन के नेतृत्व की कोई भूमिका नहीं।
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