दिल्ली में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने संसद में विपक्षी सदस्यों के शोर-शराबे के बीच दावा किया कि ‘कर्नाटक में जो कुछ चल रहा है, उसमें बीजेपी या केंद्र सरकार का कोई हाथ नहीं है।’
न्यायपालिका और विधायिका विवाद!
इसी बीच 11 जुलाई को सर्वोच्च न्यायालय ने कथित बाग़ी विधायकों की तरफ़ से दायर एक याचिका की सुनवाई के बाद फ़ैसला सुनाया कि आज यानी 11 जुलाई का दिन बीतने से पहले कर्नाटक विधानसभा के अध्यक्ष याचिकाकर्ता विधायकों के इस्तीफ़े पर फ़ैसला लें। इस पर विधानसभाध्यक्ष के.आर. रमेशकुमार ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट को उन्हें ऐसा आदेश देने का अधिकार नहीं है।न्यायालय में 10 विधायकों की तरफ़ से भारत के पूर्व अटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने याचिका के पक्ष में दलीलें पेश की थीं। मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति अनिरूद्ध बोस की पीठ ने फ़ैसला सुनाया। कुछ ही देर बाद विधानसभाध्यक्ष रमेश कुमार की तरफ़ से भी याचिका दायर की गई कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय को उन्हें इस तरह का आदेश देने का अधिकार नहीं है।याचिका में तमाम दलीलें दर्ज थीं। लेकिन पीठ ने उस वक्त उक्त याचिका पर विचार नहीं किया और कहा कि इस बारे में एक फ़ैसला सुनाया जा चुका है। इस पर अब शुक्रवार को सुनवाई की जायेगी। लंबे समय तक संसदीय मामलों को ‘कवर’ कर चुके एक पत्रकार के नाते सर्वोच्च न्यायालय के 11 जुलाई के फ़ैसले पर मुझे भी हैरत हुई थी।
फ़ैसले में किया संशोधन
आख़िर न्यायपालिका की तरफ़ से इस तरह का आदेश विधायिका को कैसे दिया जा सकता है, जिसमें विधायिका को कहा जा रहा हो कि अमुक समय तक आप को इस विषय पर फ़ैसला करना होगा! संविधान के सम्बद्ध अनुच्छेदों और न्यायपालिका-विधायिका के रिश्तों की पारंपरिक व्यवस्था या संतुलन, दोनों दृष्टियों से उक्त फ़ैसले में मुझे जल्दबाज़ी दिख रही थी। मेरा आकलन सही साबित हुआ, जब माननीय न्यायाधीशों की पीठ ने अगले दिन अपने उक्त फ़ैसले में स्वयं ही संशोधन किया और 16 जुलाई तक यथास्थिति बनाए रखने का आदेश जारी किया। इस मामले में स्पीकर की तरफ़ से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी की बातों को सुनने के बाद पीठ ने एक तरह से अपने पूर्व के फ़ैसले में संशोधन किया।
कर्नाटक के मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी की तरफ़ से उक्त याचिका पर दलील देने के क्रम में एक अन्य वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन ने संविधान की 10वीं अनुसूची की रोशनी में कई प्रक्रियागत सवाल उठाए। शुक्रवार को जिरह के दौरान अनुच्छेद 32 की रोशनी में यह सवाल भी उठा कि विधायक जिस तरह सीधे सुप्रीम कोर्ट में यह मामला लाये हैं, क्या वह संवैधानिक तौर पर उचित प्रक्रिया है!
बहुमत-परीक्षण हुआ तो क्या होगा?
मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी के बहुमत परीक्षण के संभावित प्रस्ताव के मद्देनजर अब कर्नाटक के सियासी-नाटक में एक नया दृश्य सामने आयेगा। देखना होगा, बहुमत-परीक्षण का दिन अगर तय हो जाता है और वह सोमवार या मंगलवार होता है तो उस दिन इस्तीफ़ा देने का ऐलान करने वाले विधायक सदन में मौजूद होते हैं या नहीं? अगर वे उस वक्त सदन में आते हैं तो उनकी भूमिका क्या होगी? वे पार्टी ह्विप का पालन करेंगे या उल्लंघन? क्या न्यायालय बहुमत-पुरीक्षण से पहले विधायकों के इस्तीफ़े पर फ़ैसला लेने का विधानसभाध्यक्ष को निर्देश दे सकता है?देखने की बात यह भी है कि विधानसभाध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट से किसी अगले निर्देश का इंतजार करते हैं या 10 या इससे अधिक विधायकों की सदन-सदस्यता की ‘योग्यता-अयोग्यता’ या उनके इस्तीफ़े पर पहले ही फ़ैसला करते हैं? कर्नाटक और देश के हित में तो यही होगा कि न्यायपालिका और विधायिका में किसी तरह के टकराव की नौबत नहीं पैदा हो!
कर्नाटक में गठबंधन सरकार का पतन और नई बीजेपी सरकार का गठन अगर न्यायपालिका और विधायिका में टकराव की स्थिति के बीच होता है तो यह किसी के लिए बहुत अच्छी स्थिति नहीं होगी!
घोर-सामंती समाज और लोकतंत्र आज़माने की विडंबना!
क़ानून और विधानमंडलीय पेचीदगियों से अलग राजनीति की तसवीर बहुत साफ़ है। गोवा में किसी की सरकार नहीं गिरनी है और न किसी अन्य दल की सरकार बननी है। पर वहाँ भी बीजेपी ने कांग्रेस के 15 में 10 विधायकों को पटा लिया और बाक़ायदा अपने विधायक दल का हिस्सा बना लिया। क़ानून की नज़र से क्या यह दल-बदल पूरी तरह वैध है? 1985 में जब पहली बार दल-बदल रोकने के लिए विधायी कदम उठाए गए, क्या तब से आज के बीच तमाम संशोधनों के बावजूद उक्त विधेयक की कमजोरियाँ फिर से सामने आ रही हैं?क्या हमारे जन-प्रतिनिधियों के लिए जन-प्रतिबद्धता और राजनीतिक वैचारिकी की प्रतिबद्धता के कोई मायने नहीं रह गए हैं?
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