सही सूचना का शासकों पर भारी दबाव होता है। महामारी या आपदा के दिनों में सूचना या ख़बर लोगों को बचाने का रास्ता खोलती है। दुर्भाग्यवश, अपने देश में लोगों का बड़ा हिस्सा काफी समय तक कोविड-19 या कोरोना वायरस के बारे में न सिर्फ अनजान रहा अपितु बेफिक्र भी। हमारी सरकार जिस वक्त चीन, इटली, अमेरिका, मालदीव और मेडागास्कर में पढ़ रहे या किसी काम से गए लोगों को ढो-ढोकर स्वदेश ला रही थी, उस समय भी देश में बेफिक्री का माहौल था।
13 मार्च तक भारत सरकार को कोरोना वायरस से किसी खास बड़े खतरे का अंदेशा नहीं नजर आ रहा था। सरकार की तरफ से एक उच्च अधिकारी ने कहा था कि कोरोना वायरस से भारत में किसी तरह की ‘मेडिकल इमरजेंसी’ जैसी स्थिति नहीं होने जा रही है। उस वक्त कोरोना वायरस को लेकर सरकार का ध्यानाकर्षण करती विपक्षी सांसद राहुल गांधी की टिप्पणियों और ट्वीट को भी नजरंदाज किया गया। यहां तक कि सत्ता-समर्थकों के कई समूहों में राहुल का मजाक भी उड़ाया गया।
अचानक कर दिया एलान
19 मार्च की शाम 8 बजे अचानक देशवासियों से कोरोना वायरस से लड़ने और बचने का आह्नान किया गया। 22 मार्च को सुबह 7 बजे से रात के 9 बजे तक जनता-कर्फ्यू लगाने और उसी शाम पांच बजे ताली-थाली बजाने का आह्वान स्वयं प्रधानमंत्री ने जनता से किया। फिर प्रधानमंत्री ने 24 मार्च को देशव्यापी लॉकडाउन का एलान किया। पूरी दुनिया में भारत जैसा ‘अचानक एलान-फौरन अमल’ का ऐसा दूसरा उदाहरण नहीं है।
‘कुप्रबंधन की आपदा’
इससे पहले जो गलतियां हुईं, वे सोच और दूरदर्शिता की कमी के चलते हुईं। समय रहते हुए अंतरराष्ट्रीय उड़ानों और इंटरनेशल कॉन्फ़्रेन्स में आवाजाही को न रोकना एक बड़ी गलती थी। ऐसी ही गलतियां इटली, स्पेन और अमेरिका ने भी की थीं। दलीय स्वार्थ और राष्ट्रीय हित का टकराव मध्य प्रदेश में खुलकर सामने दिखा। उससे एक हद तक कर्नाटक भी प्रभावित हुआ। ऐसी परिघटनाओं के चलते सिर्फ केंद्र और राज्यों के नेतृत्व की व्यस्तता और वरीयता ही नहीं प्रभावित हुई, नौकरशाहों का भी ध्यान बंटा।
प्रधानमंत्री के लॉकडाउन के एलान की शायद ही किसी ने आलोचना की। लेकिन कुछ ही घंटों बाद पंजाब-हरियाणा के विभिन्न हलकों, दिल्ली, मुंबई, सूरत, अहमदाबाद और गाजियाबाद-नोएडा आदि जैसे बड़े शहरों या औद्योगिक केंद्रों से मजदूरों का पलायन शुरू हो गया।
अचानक सड़क पर आ गये लोग
आर्थिक सुधारों के बाद की नव-उदार अर्थव्यवस्था में निजी उपक्रमों में बहुत कम वेतन और किसी सामाजिक या सेवा-सुरक्षा के बगैर काम करने वाले लाखों ग़रीब रातों-रात बेरोज़गारी की हालत में सड़क पर आ गए। उनमें ज्यादातर के मालिकों ने मार्च महीने में उनके अब तक किये काम का वेतन तक नहीं दिया। कइयों को तो फरवरी की तनख्वाह नहीं मिली थी। इन मजदूरों में ज्यादातर के पास कोई अपना मकान या घर नहीं था। ज्यादातर किराये के छोटे-छोटे कमरों, दड़बों या झुग्गियों में रहने के लिए अभिशप्त थे।
इस पूरे प्रसंग में केंद्र सरकार की भूमिका पर गंभीर सवाल उठते हैं। लॉकडाउन के एलान से पहले केंद्र ने इसे लागू करने की रणनीति और नतीजे पर राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ क्या उच्चस्तरीय विचार-विमर्श किया था?
जानकारी के मुताबिक़, अनेक राज्यों के मुख्यमंत्रियों को राष्ट्र के नाम संदेश से लॉकडाउन की सूचना मिली। क्या किसी लोकतंत्र में आपदा से निपटने की यह रणनीति कारगर हो सकती है?
समस्याओं से बेपरवाह सरकार
सरकार ने फ़ैसला लेने में स्वयं ही इतने सप्ताह लगा दिए तो जनता को दो-तीन दिन का वक्त क्यों नहीं दिया? रेलगाड़ियों, बसों और आवागमन के अन्य साधनों के अकस्मात ठप होने से आम लोगों की सामाजिक और निजी समस्याओं का सरकार को शायद अंदाजा ही नहीं था। इसी तरह, छोटे-मझोले कारोबार और निजी क्षेत्र के अन्य उपक्रमों में कार्यरत छोटे कर्मियों-मजदूरों पर देशव्यापी लॉकडाउन के द्वारा पड़ने वाले आर्थिक प्रभाव का भी पूर्व आकलन नहीं किया गया।
यूरोपीय देश हों, चीन हो या अमेरिका, इनके मुकाबले भारत की स्थितियां काफी अलग हैं। कोरोना वायरस से प्रभावित देशों में भारत की परिस्थितियां काफी हद तक दक्षिण अफ्रीका से मिलती-जुलती हैं। वहां न सिर्फ भारत की तरह गरीबी, बेरोज़गारी और असमानता है अपितु शासन और शासकों का मिजाज भी कुछ मिलता-जुलता है। दोनों ‘ब्रिक्स’ के सदस्य हैं। दोनों देश कोरोना वायरस के कहर से जूझ रहे हैं।
अफ्रीका ने दिया वक्त, भारत ने नहीं
दक्षिण अफ्रीका में भी पिछले सप्ताह लॉकडाउन हुआ। 23 मार्च को इस बारे में पूरे देश को बता दिया गया कि 26 मार्च से लॉकडाउन होगा। देश के कुल 5 करोड़ 90 लाख लोगों को कम से कम तीन दिनों का वक्त तैयारी के लिये मिला। पर अपने देश में तैयारी के लिए सिर्फ तीन-साढ़े तीन घंटे का वक्त मिला, वह भी रात को। इतनी कम देर में 130 करोड़ आबादी वाले देश के लोग कैसे और क्या तैयारी करते? आम आदमी को इससे निश्चित ही ख़ासी मुश्किल हुई है। ख़ैर, प्रधानमंत्री ने गरीबों से माफी माँग ली है।
मजदूर कसूरवार या सरकार?
मजदूरों के पलायन पर हाय-तौबा मचाने के बजाय हमें दो सवालों पर विचार करना चाहिए।
1- लॉकडाउन के एलान से पहले क्या सभी सम्बद्ध राज्य सरकारों और श्रम अधिकारियों से केंद्र की सरकार की तरफ से कोई संवाद हुआ था?
2- क्या मजदूरों को हर कीमत पर उनके कार्यस्थल पर ही बने रहने के लिए जरूरी संसाधन जुटाने के लिए सम्बद्ध उपक्रमों के मालिकों से किसी तरह की चर्चा की गई?
ताजा घटनाक्रम और उत्तर भारत में फैली अफरा-तफरी से साफ हो जाता है कि इन दोनों सवालों का ‘जवाब’ ना में है।
चीन जहां से कोरोना वायरस की शुरुआत हुई, उसने इस भयानक जानलेवा वायरस के प्रसार को अपने यहां न सिर्फ नियंत्रित कर लिया अपितु ऊहान शहर और इसके प्रांत हुबेई में आम जनजीवन को सामान्य कर लिया है।
चीन ने कभी भी भारत या दक्षिण अफ्रीका की तरह पूरे देश में लॉकडाउन नहीं किया। उसने सिर्फ एक प्रांत और उसके खास शहर तक इसे सीमित रखा। कोरोना वायरस के नियंत्रण में दूसरी कामयाबी दक्षिण कोरिया की है, उसने भी देशव्यापी लॉकडाउन का सहारा नहीं लिया।
इन दोनों देशों की कामयाबी की असल वजह है, उनका स्क्रीनिंग-टेस्टिंग-आइसोलेशन और उपचार पर ध्यान केंद्रित करना। दक्षिण कोरिया रोजाना 20 हजार से कुछ ज्यादा लोगों की टेस्टिंग करता रहा लेकिन भारत में 29 मार्च की शाम तक कुल मिलाकर 35 हजार लोगों की टेस्टिंग हो सकी है। कोरिया की आबादी 5 करोड़ है और हमारी 130 करोड़ से ज़्यादा।
इस संदर्भ में इस बात को भी नजरअंदाज नहीं करना चाहिये कि दुनिया में भूख-बेहाली से प्रभावित 113 मुल्कों में भारत इस वक्त 102वें नंबर पर है। इसी तरह खुशहाली के मामले में भारत 156 देशों की सूची में 144वें नंबर पर है, अपने पड़ोसियों-भूटान, पाकिस्तान, श्रीलंका, बांग्लादेश और नेपाल से भी नीचे।
टेस्टिंग पर ध्यान देना ज़रूरी
मजबूरी के इस लॉकडाउन को हम बचाव की रणनीति के तौर पर खारिज नहीं कर रहे हैं। यह जरूरी क़दम था। इसीलिए देश में शायद ही किसी जिम्मेदार व्यक्ति ने इस पर सवाल उठाया हो। सरकार को इस लॉकडाउन के दौर में अपनी स्वास्थ्य सेवा-संरचना को सर्वोच्च प्राथमिकता देकर पुर्नव्यवस्थित करना चाहिए ताकि विश्व स्वास्थ्य संगठन की सिफारिश पर अमल किया जा सके और वह सिफारिश है- टेस्टिंग, टेस्टिंग और टेस्टिंग!
देश में जन-स्वास्थ्य संरचना की भारी किल्लत के मद्देनजर सरकार ने स्वास्थ्य-संरचना निर्माण आदि के लिए 15 हजार करोड़ की घोषणा की है। पर यह नाकाफी है। इससे ज्यादा यानी 20 हजार करोड़ तो राजधानी के रायसीना हिल्स के सौंदर्यीकरण यानी सेंट्रल विस्टा के नवनिर्माण पर खर्च किये जा रहे हैं।
अस्पतालों में आईसीयू बेड, वेंटिलेटर, मास्क और पीपीई की अन्य जरूरी चीजों की भारी कमी के दौर में ही पिछले दिनों सरकार ने अमेरिका और इजराइल से अरबों रुपये का हथियार-सौदा किया है। एनपीआर और जनगणना के लिए क्रमशः 8754 करोड़ और 3941 करोड़ से ज्यादा रुपये आवंटित हो चुके हैं। ऐसे फ़ैसलों और नजरिये से कोरोना से जूझने और देश को उबारने के सरकार के संकल्प पर गंभीर सवाल उठते हैं। हमारे नेताओं और योजनाकारों की मंशा अच्छी होगी, देश को उबारने की होगी लेकिन जमीनी स्तर के कामों, नीतियों और फैसलों में वह कहां नजर आ रही है?
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