चुनाव-नतीजे और मंत्रिमंडल के शपथ ग्रहण के बाद उदार, प्रगतिशील और वामपंथी सोच के कुछ प्रमुख बुद्धिजीवियों और टिप्पणीकारों ने अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी की कई मुद्दों पर आलोचना की है। आलोचकों की मुख्य नाराज़गी इस बात को लेकर है कि शाहीन बाग़ जैसे बेमिसाल प्रतिरोध-मंच को लेकर केजरीवाल और 'आप' का नज़रिया सुसंगत क्यों नहीं रहा या कि वह वहाँ गए क्यों नहीं? चुनाव बीत जाने के बाद भी वह क्यों नहीं जा रहे हैं? कोई कह रहा है कि केजरीवाल ने बीते रविवार को जब मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली तो इस बार उनके सिर पर पार्टी की ख़ास पहचान वाली सफेद टोपी नहीं थी, उनके माथे पर बड़ा-सा टीका लगा हुआ था! क्या अब वह राजनीति में धर्म या धार्मिक प्रतीकों की दख़ल और दिखावेबाज़ी को ज़रूरी मानने लगे हैं? कोई उनकी जीत को 'सॉफ़्ट हिंदुत्व' की जीत बता रहा है तो कोई इसे एक हद तक 'हिन्दू तुष्टीकरण' की राजनीति की कामयाबी की संज्ञा दे रहा है! कुछ संजीदा टिप्पणीकार उनकी 'जीत में छुपी कायरता' को भी रेखांकित कर रहे हैं!