राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण राज्य यूपी में उपचुनाव के नतीजे लोकसभा में पार्टियों की संख्या में ज्यादा अंतर नहीं लाएंगे, लेकिन 2024 के आम चुनावों के नजरिए से सपा का अपने ही गढ़ में डूबना खास है। रामपुर और आजमगढ़ में हार दरअसल, अखिलेश की अपरिपक्वता, नादानियों और कमजोरियों की हार है। अखिलेश ही नहीं तमाम राजनीतिक दलों के नेता अगर सोचते हैं कि ट्वीट करके चुनावी लड़ाई जीत जाएंगे तो अभी भारतीय नेताओं को ट्वीट के जरिए ओपिनियन बनाने में कई दशक लगेंगे।
उत्तर प्रदेश की कुल 80 लोकसभा सीटों में से बीजेपी के पास पहले से ही 62 सीटें हैं। इस उपचुनाव में जीत से पार्टी की सीटों की संख्या बढ़कर 64 हो गई है, जबकि लोकसभा में अखिलेश की पार्टी की गिनती पांच से घटकर तीन हो गई है। यूपी में सपा मुख्य विपक्षी दल है। उपचुनाव के नतीजे ने बता दिया कि मुसलमानों और यादवों पर सपा और अखिलेश यादव की पकड़ खत्म हो चुकी है। रामपुर मुस्लिम मतदाताओं और आजमगढ़ यादव मतदाताओं का गढ़ है। राजनीति में जिसे "MY" (मुस्लिम-यादव) फैक्टर या गठजोड़ कहा जाता है, आजमगढ़ उसकी मिसाल था। बीजेपी ने सपा और अखिलेश के एमवाई फैक्टर को तार-तार कर दिया है।
रामपुर और आजमगढ़ में 23 जून को मतदान हुआ था, जिसमें आजमगढ़ में 49.43 फीसदी और रामपुर में 41.39 फीसदी वोट डाले गए। 2019 के लोकसभा चुनाव में, आजमगढ़ में 63.19 फीसदी वोट और रामपुर में 57.56 फीसदी वोट डाले गए थे।
कितना गंभीर थे अखिलेश
अखिलेश यादव ने रामपुर का चुनाव आजम खान के भरोसे छोड़ दिया और खुद आजमगढ़ भी नहीं पहुंचे। इस उपचुनाव को लेकर अखिलेश कितना गंभीर थे, उसका अंदाजा इस तथ्यात्मक उदाहरण से लगाइए। 14 जून को जब दोनों इलाकों में चुनाव चरम पर थे और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ आजमगढ़ में चुनावी सभाएं कर रहे थे तो उस दिन अखिलेश क्या कर रहे थे।
उस दिन बड़ा मंगल था। अखिलेश की पत्नी डिंपल यादव ने अखिलेश के घर के बाहर भंडारे का आयोजन किया था।
जिसमें अखिलेश ने सुबह हिस्सा लिया और उसके बाद वो बस्ती निकल गए। वहां उन्होंने बस्ती सदर विधानसभा से विधायक रहे स्वर्गीय जितेंद्र कुमार उर्फ "नन्दू चौधरी" के त्रयोदशी संस्कार में हिस्सा लिया।
यहां ये सब बताने का कतई यह अर्थ नहीं है कि दोनों कार्यक्रमों में हिस्सा लेकर अखिलेश ने कुछ गलत किया। यहां यह बताने की कोशिश की जा रही है कि अखिलेश की इस उपचुनाव के प्रचार के दौरान प्राथमिकताएं क्या थीं? यहां वो चिरपरिचित जुमला तो बनता है कि पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?
बात यहीं तक सीमित नहीं है। यूपी विधानसभा चुनाव 2022 में सपा को 111 सीटें मिलीं जो उसके पिछले प्रदर्शन (2017) के मुकाबले बहुत ज्यादा थीं। 2017 में उसे महज 47 सीटें मिली थीं। यह सार्वजनिक तथ्य है कि 2022 के विधानसभा चुनाव में मुसलमानों ने सपा को एकतरफा वोट दिया था। इस बार सपा से 31 मुस्लिम विधायक विधानसभा में पहुंचे। वैसे राज्य विधानसभा में कुल 34 मुस्लिम विधायक हैं।
अब सुनिए। 3 जून को जुमे की नमाज के बाद कानपुर में हिंसा होती है। 10 जून 2022 को इलाहाबाद में जुमे की नमाज के बाद हिंसा होती है। 11 जून को सहारनपुर में एक पुलिस स्टेशन में मुस्लिम युवकों को कमरे में बंद करके पीटा जाता है। अखिलेश यादव इससे संबंधित वायरल वीडियो को ट्वीट करते हैं, निन्दा करते हैं लेकिन न वो और न उनकी पार्टी के लोग उन युवकों को छुड़ाने की कोशिश करते हैं। पार्टी का काडर सहारनपुर से गायब मिलता है।
12 जून को इलाहाबाद में जेएनयू की स्टूडेंट एक्टिविस्ट आफरीन फातिमा की मां का घर सरकार बुलडोजर से गिरा देती है। तमाम पूर्व जज इसके खिलाफ गुस्से का जबरदस्त गुस्से का इजहार करते हैं। अखिलेश यादव उस मकान का फोटो ट्वीट करते हुए खुद को उसकी निन्दा तक सीमित रखते हैं। वो न इलाहाबाद जाने का साहस जुटा पाते हैं और न ही अपनी पार्टी को प्रदर्शन के लिए कहते हैं।
ये चंद घटनाएं उदाहरण मात्र हैं कि अखिलेश किस लापरवाही से उस वर्ग से जुड़ी घटनाओं को लेते हैं, जिसने अभी 2022 के विधानसभा चुनाव में उनका खुलकर साथ दिया था। जरूरी नहीं कि आप हर घटना पर बोलें, लेकिन यह जरूरी है कि आप नाइंसाफी वाली घटनाओं पर बोलें, सड़कों पर आएं। 2022 के चुनाव से पहले और अब बाद में अखिलेश यादव और उनकी पार्टी किसी बड़े धरना-प्रदर्शन या आंदोलन से दूर है।
रामपुर और आजमगढ़ का नतीजा आने के बाद मुसलमानों के अंडरकरंट को समझने के लिए मौलाना आमिर रशीदी का महत्वपूर्ण बयान आया है। मौलाना पूर्वी उत्तर प्रदेश में सक्रिय उलेमा काउंसिल के संस्थापक और राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। ये वही उलेमा काउंसिल है, जिसके लोग सीए-एनआरसी विरोधी आंदोलन में बड़ी तादाद में गिरफ्तार हुए थे।
मौलाना आमिर रशीदी ने बयान में कहा - सपा इस उपचुनाव में अपना गढ़ (आजमगढ़) और किला (रामपुर) दोनों गवां चुकी है। क्यों नई सपा न तो विपक्ष की सही भूमिका अदा कर पा रही है और न ही अपने बुनियादी वोटरों के साथ खड़ी हो पा रही है। 2022 में मुसलमानों का एकतरफा वोट लेने वाली सपा मुस्लिमों के मुद्दों पर अब बेरुखी दिखा रही है और खामोश है। ऐसे में मुसलमानों ने भी दोनों उपचुनाव में अपना पैगाम दे दिया है। मुसलमान अब गूंगी-बहरी सियासी कयादत का बोझ अपने कंधों पर नहीं उठाने वाला है।
आजमगढ़ में सपा प्रत्याशी धर्मेंद्र यादव को पूरे यादव वोट भी नहीं मिले। बड़ी तादाद में यादव वोट बीजेपी में चला गया है। कोई भी चुनाव मैदान में लड़ा जाता है। अखिलेश यादव उस चुनाव को जमीनी प्रचार से दूर रहकर और दिल्ली में एसी कमरे में सपा रणनीतिकार रामगोपाल यादव द्वारा बनाई गई रणनीति के आधार पर कभी नहीं जीत पाएंगे। लोकसभा चुनाव 2024 में एमवाई की खोई जमीन रामगोपाल यादव सपा के लिए कितना वापस ला पाएंगे, इसके लिए आगामी दिनों में सामने वाली सपा की जमीनी लड़ाई पर निर्भर करेगा।
बीएसपी प्रत्याशी गुड्डू जमाली
बीएसपी की रणनीति
आजमगढ़ उपचुनाव में जिस तरह बीएसपी ने मुस्लिम प्रत्याशी शाह आलम उर्फ गुड्डू जमाली को उतारा, वो भी अखिलेश भांप नहीं पाए। जबकि बीएसपी सुप्रीमो ने सबसे पहले अपने प्रत्याशी की घोषणा की थी। गुड्डू जमाली को 2 लाख 66 हजार वोट मिले जो बताता है कि मुस्लिमों और दलितों का वोट उन्हें सम्मानजनक स्थिति में ले आया। अगर गुड्डू जमाली मैदान में न होते तो यही मुस्लिम वोट सपा प्रत्याशी धर्मेंद्र यादव को जाते। यानी आजमगढ़ में मुस्लिम वोटों का बंटना बताता है कि बीजेपी ने सामने या पर्दे के पीछे जो दांव चले, वो उसमें कामयाब रही।
गुड्डू जमाली के मामले में भी अखिलेश की नादानी सामने आई है। जमाली आजमगढ़ के सड़कछाप कार्यकर्ता नहीं थे। उन्होंने नवंबर 2021 में बीएसपी छोड़ दी थी और मार्च 2022 में आजमगढ़ की मुबारकपुर विधानसभा सीट से चुनाव लड़ने के लिए सपा का टिकट मांगा था। लेकिन अखिलेश यादव ने उन्हें टिकट नहीं दिया। जमाली उस समय असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम का टिकट ले आए। जमाली मुबारकपुर से हारे लेकिन काफी वोट उन्हें तब भी मिले। आजमगढ़ लोकसभा उपचुनाव की घोषणा होते ही मायावती उन्हें बीएसपी में ले आईं और टिकट दे दिया। बेशक, जमाली किसी खेल का मोहरा बने हों लेकिन अखिलेश तो सीट गवां बैठे। अगर अखिलेश अपने चाचा के बेटे धर्मेंद्र यादव की जगह गुड्डू जमाली को टिकट की पहल कर देते तो शायद नतीजा कुछ और होता।
आजम खान
रामपुर में आजम खान फैक्टर
राज्य में जब बीजेपी की हिन्दू-मुस्लिम राजनीति स्पष्ट है तो ऐसे में रामपुर का किला जीतना सपा के लिए मुश्किल जरूर था। ऊपर गिनाए गए फैक्टर एक तरफ और रामपुर में अकेले आजम खान फैक्टर एक तरफ। अखिलेश को अच्छी तरह मालूम था कि रामपुर आजम का किला है। इसलिए उन्होंने रणनीतिक रूप से उन्हीं पर चुनाव छोड़ दिया। अखिलेश ने ऐसा जानबूझकर किया। बीमारी और जेल के दिनों में अखिलेश ने आजम से किनारा किये रखा, चुनाव आया तो राजनीतिक चाल चल दी।
आजम भी कम होशियार नहीं हैं। उन्होंने अपनी सीट से अपनी पत्नी ताजीन खान को ऐन मौके पर उतारने की बजाय अपने एक भरोसेमंद साथी आसिम रजा को टिकट दिलवा दिया। उधर, बीजेपी ने जिस घनश्याम लोधी को टिकट दिया, वो आजम के पुराने साथियों में से एक हैं। नवाब रामपुर और आजम खान का 36 का आंकड़ा कई दशक पुराना है। कांग्रेस के नवाब काजिम अली खान ने पार्टी से बगावत करते हुए इस चुनाव में सपा का खुला विरोध और बीजेपी के खुले समर्थन की घोषणा कर दी। हालांकि रामपुर में वोट प्रतिशत 41.39 ही था लेकिन वो रामपुर में इतना राजनीतिक बवाल मुस्लिम मतदाताओं को कन्फ्यूज करने में कामयाब रहा।
यह आरोप सही है कि तमाम मुस्लिम मतदाताओं को वोट डालने से सरकारी मशीनरी ने रोका लेकिन काफी मुस्लिम मतदाता वोट डालने ही नहीं आए और नवाब काजिम अली यानी कांग्रेस से जुड़े मतदाताओं ने बीजेपी प्रत्याशी को वोट दे दिया। बीजेपी यह बात सही कह रही है कि रामपुर में उसे मुस्लिम मतदाताओं के वोट भी मिले।
हालांकि आजम खान अपने लिए उपजी सहानुभूति लहर को वोट में बदलते देख रहे थे। योगी आदित्यनाथ सरकार ने उनके खिलाफ 80 से अधिक आपराधिक मामले दर्ज कराए थे। आजम जेल में 27 महीने की लंबी कैद के बाद जब रामपुर लौटे तो हीरो की तरह स्वागत हुआ था। लेकिन नतीजे आने पर उन्हें अपने जीवन का सबसे बड़ा झटका लगा है। 52 फीसदी मुस्लिम वोटों वाले रामपुर में सपा या आजम खान का हारना उन लोगों के लिए एक सदमे से कम नहीं होना चाहिए।
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