केरल के सबरीमला में महिलाओं के प्रवेश को लेकर न्यायालय में चल रही बहस के बीच सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि किसी व्यक्ति का मंदिर में प्रवेश पूरी तरह अप्रतिबंधित अधिकार नहीं है यानी ऐसा अधिकार नहीं है, जिस पर प्रतिबंध या रोक न लगाई जा सके। अधिकार व परंपरा को लेकर चली बहस में सरकार का यह तर्क देश को कई दशक पीछे ले जाने वाला है, जब हिंदू धर्म के मुट्ठी भर परंपरावादियों ने महिलाओं, दलितों के अधिकार छीन लिए थे तब देश के स्वतंत्रता सेनानियों को इन अधिकारों के लिए भी समानांतर लड़ाई लड़नी पड़ी थी।
महिलाओं को मंदिर में प्रवेश दिलाने की इस लड़ाई में 1933 में सेंट्रल असेंबली में चुने हुए सदस्य रंगा अय्यर द्वारा पेश किए गए विधेयक के बारे में चर्चा ज़रूरी है। अय्यर ने दो विधेयक पेश किए थे। पहला दलितों के ख़िलाफ़ भेदभाव को प्रतिबंधित करने को लेकर था। दूसरा विधेयक परंपरावादी अल्पसंख्यकों द्वारा दलितों को मंदिर में घुसने न देने पर रोक लगाने को लेकर था। केरल में लंबे समय से गुरुवायूर मंदिर में अछूतों के प्रवेश को लेकर चल रहे आंदोलन और उसके परिणाम न निकलने के कारण दूसरा विधेयक पेश किया गया था।
उस समय सरदार वल्लभभाई पटेल ने महात्मा गाँधी को बताया कि मदनमोहन मालवीय रंगा के विधेयक का विरोध कर रहे हैं और आम्बेडकर ने कहा है कि अछूतों को मंदिर में प्रवेश करने या न करने के मसले से दरअसल कोई लेना देना नहीं है। महादेव देसाई ने कहा कि हम पोंगापंथी हिंदुओं और आम्बेडकर के समर्थकों के बीच पिस रहे हैं। इस पर पटेल ने गाँधी को सलाह दी कि दोनों को लड़ने के लिए छोड़ देना चाहिए और हमें इनके बीच में नहीं पड़ना चाहिए।
16 फरवरी 1933 को गाँधी ने पटेल और देसाई से असहमति जताते हुए कहा कि लाखों दलितों को यह सोचने के लिए नहीं छोड़ा जा सकता कि उन्हें उनकी क़िस्मत पर छोड़ दिया गया है। (मोहनदासः ए ट्रू स्टोरी ऑफ़ ए मैन, हिज पीपुल एंड एन अंपायर, लेखक- राजमोहन गाँधी प्रकाशकः पेंग्विन बुक्स इंडिया, 2006, पृष्ठ 377)
सिर्फ़ मंदिर में प्रवेश का मसला नहीं, बल्कि महिलाओं के अधिकार की भी लंबी लड़ाई लड़ी गई और देश के स्वतंत्रता सेनानियों ने हर नागरिक को समान अवसर की लड़ाई को स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ा।
उस दौर में भी परंपरावादी लोगों का कुछ ऐसा ही मानना था कि लड़कियों को स्कूल न जाने देना, बाल विवाह, विधवा विवाह, जौहर, सती प्रथा जैसी चीजें हमारी परंपराएँ हैं और हिंदुओं की इन परंपराओं में सरकार को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
परंपरावादियों और परंपराओं के मुताबिक़ स्वतंत्रता और अधिकारों को सीमित रखने के इच्छुक लोगों ने महिलाओं की शिक्षा का भी विरोध किया। जब लड़कियों का पहला विश्वविद्यालय 1915-16 में खोले जाने की दोन्धो केशव करवे की कवायद का बाल गंगाधर तिलक ने ज़ोरदार विरोध किया था। 20 फ़रवरी 1916 को उन्होंने अपने मराठा अख़बार में इंडियन वीमेन यूनिवर्सिटी शीर्षक से लिखे लेख में कहा,
"हमें प्रकृति और सामाजिक रीतियों के मुताबिक़ चलना चाहिए। पीढ़ियों से घर की चहारदीवारी महिलाओं के काम का मुख्य केंद्र रहा है। उनके लिए अपना बेहतर प्रदर्शन करने के लिए यह दायरा पर्याप्त है। एक हिन्दू लड़की को निश्चित रूप से एक बेहतरीन बहू के रूप में विकसित किया जाना चाहिए। हिन्दू औरत की सामाजिक उपयोगिता उसकी सिम्पैथी और परंपरागत साहित्य को ग्रहण करने को लेकर है। लड़कियों को हाइजीन, डोमेस्टिक इकॉनमी, चाइल्ड नर्सिंग, कुकिंग, बुनाई आदि की बेहतरीन जानकारी उपलब्ध कराई जानी चाहिए।"
(फ़ाउंडेशंस ऑफ़ तिलक्स नैशनलिज़्म, डिस्क्रिमिनेशन, एजुकेशन ऐंड हिंदुत्व – परिमाला वी राव पेज 104, 115, 116, 262, 263)
परंपरा के नाम पर अधिकार सीमित करने की कवायद
महिलाओं, अछूतों और वंचित तबक़े को समाज की मुख्यधारा में शामिल करने की लड़ाई ब्रिटिश शासन में स्वतंत्रता के आंदोलन के समानांतर चली। देश के स्वतंत्र होने के बाद संविधान के मूल अधिकारों में स्वतंत्रता और समानता के अधिकार के प्रावधान कर हर नागरिक को समान अवसर देने की कवायद की गई। वहीं उच्चतम न्यायालय में सबरीमला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर सरकार ने जो तर्क रखे हैं, उसने भारत को एक बार फिर 100 साल पीछे के युग में धकेल दिया है, जब महिलाओं और अछूतों को समान अवसर देने के लिए लड़ाई लड़ी जा रही थी और परंपरा के नाम पर अधिकारों को सीमित रखने के लिए हिंदुओं का एक बड़ा तबक़ा तरह-तरह के तर्क दे रहा था।
आरएसएस और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के प्रतिनिधि ख़ुद को हिंदूवादी, हिंदुओं में विभाजन के ख़िलाफ़ बताते हैं। तुषार मेहता के तर्क से लगता है कि सरकार हिंदुओं को महिला-पुरुष में बाँट देना चाहती है। परंपरा के नाम पर महिलाओं का प्रवेश सीमित करने का तर्क अजीब है।
मेहता ने उच्चतम न्यायालय की पीठ के सामने यह भी तर्क दिया कि मंदिर में किसी भी ड्रेस कोड का समर्थन किया जाना चाहिए। लेकिन यह भी ध्यान में रखने की बात है कि भारत में ही केरल में पिछड़ी जातियों की महिलाओं को स्तन ढकने की मनाही थी और स्तन ढकने पर उन्हें कर देना पड़ता था। त्रावणकोर के राजा को तब इस परंपरा पर प्रतिबंध लगाना पड़ा जब एक अछूत महिला ने इस क़ानून के ख़िलाफ़ अपने दोनों स्तन काटकर सरकार के कर अधिकारियों को दे दिए। परंपरा और प्रबंधन समिति के अधिकारों के नाम पर ऐसे प्रतिबंध लगाना, जो महिला, पुरुष, विभिन्न जातियों को सार्वजनिक स्थानों पर जाने से प्रतिबंधित करता हो, वह निश्चित रूप से हिंदू धर्म को कमज़ोर करने वाला फ़ैसला होगा।
केरल के सबरीमला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को यह कहकर नहीं रोका जा सकता कि मंदिर में प्रवेश उसके “ट्रस्टियों द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों” को ध्यान में रखा जाना चाहिए। यह तर्क हिंदुओं को विभाजित करने वाला है।
मदन मोहन मालवीय ने भी कुछ इसी तरह का तर्क देकर मंदिर में अछूतों के प्रवेश का विरोध किया था। महिलाओं की उच्च शिक्षा का विरोध भी परंपराओं का तर्क देकर ही किया गया।
धन की बर्बादी का तर्क
इस समय जिस तरह से सरकार द्वारा ग़रीबों को कल्याणकारी योजनाओं के ज़रिये लाभ देने को धन की बर्बादी कहा जाता है वैसा ही तर्क अंग्रेज़ों के समय में परंपरावादी हिंदूवादियों ने दिया था। तिलक ने कहा था कि कुनबी बच्चों को शिक्षा देना धन की बर्बादी है। वह धन बर्बाद किया जा रहा है जो करदाताओं से लिया जाता है। तिलक ने महार, धाडस बच्चों को ब्राह्मण बच्चों के साथ बिठाकर पढ़ाए जाने की आलोचना की। उन्होंने लिखा,
"अछूत बच्चों की शिक्षा को दिया जाने वाला सरकारी समर्थन ब्रिटिश महारानी की उस घोषणा के विरुद्ध है जिसमें उन्होंने गारंटी दी है कि धार्मिक मान्यताओं में किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं किया जाएगा"
(फाउंडेशंस ऑफ़ तिलक्स नैशनलिज़्म, डिस्क्रिमिनेशन, एजुकेशन ऐंड हिंदुत्व – परिमाला वी राव पेज 139, 140, 143)
अब सरकार को यह तय करना है कि परंपराओं और कुतर्कों के माध्यम से वह भारत के हिंदू समाज को किस दिशा में ले जाना चाहती है?
क्या सौ साल से ऊपर चली स्वतंत्रता की लड़ाई और देश के नागरिकों को मिले विभिन्न अधिकार परंपराओं के नाम पर छीने जाएँगे और व्यापक हिंदू समाज को विभाजित कर उन्हें कबीलों और टुकड़े-टुकड़े में बाँट दिया जाएगा?
गाँधी ने 5 नवंबर 1932 को अछूतों के बारे में लिखा,
“सामाजिक रूप से वे कुष्ठ रोगियों की तरह हैं। आर्थिक रूप से वे दासों से भी बुरे हाल में हैं। धार्मिक रूप से उन्हें उन जगहों पर जाने से रोका जाता है, जिन्हें ईश्वर का घर कहा जाता है। जातिवादी लोग उन्हें सार्वजनिक सड़कों, सार्वजनिक अस्पतालों, सार्वजनिक कुओं, सार्वजनिक नलों, सार्वजनिक पार्कों के इस्तेमाल से रोकते हैं। मुझे आश्चर्य होता है कि ऐसी हालत में भी वे हिंदुओं के बीच बने हुए हैं। वह इतने बुरे हालात में हैं कि अपने उत्पीड़न के ख़िलाफ़ विद्रोह भी नहीं कर पाते।”
आज की स्थिति देखें तो तमाम महिलाएँ भी सबरीमला मंदिर में प्रवेश को लेकर सरकार और मंदिर प्रबंधन के तर्कों के साथ हैं कि रजस्वला महिलाओं को मंदिर में प्रवेश नहीं करने देना चाहिए। गाँधी के शब्दों में कहा जाए तो युगों से किसी न किसी तरह पुरुष ने स्त्री पर अपना प्रभुत्व रखा है और इसलिए स्त्री अपने को पुरुष से नीचा समझने लगी है। उसने पुरुष की इस स्वार्थपूर्ण सीख की सच्चाई में विश्वास कर लिया है कि वह पुरुष से कमतर है। (सर्वोदय, लेखक- महात्मा गाँधी, प्रकाशक- नवजीवन प्रकाशन, अहमदाबाद, अक्टूबर 2015, पेज- 64)
परंपराओं व ट्रस्टियों के विवेक पर मानवता को छोड़ देना देश को पीछे ढकेलने जैसा ही होगा। अगर महिलाएँ अपने तार्किक हक की लड़ाई में किसी तरह से कमज़ोर पड़ती हैं तो ज्ञानी और समझदार सवर्ण हिंदू पुरुषों को सामने आकर लड़ाई संभालनी पड़ेगी, जिससे अमानवीय तरीक़े से अधिकारों का हनन न होने पाए।
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