राजस्थान के नागौर ज़िले में दलितों की पिटाई का जो वीडियो सामने आया है, उसे देखकर यह नहीं कहा जा सकता है कि भारत की क़रीब 20 प्रतिशत आबादी भी 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्र हुई थी। 2014 में भारतीय जनता पार्टी यानी बीजेपी के सत्ता में आने के बाद से दलितों की बची-खुची स्वतंत्रता भी जाती रही है, जो भारत के संविधान के अनुच्छेद 17 में अस्पृश्यता के अंत की घोषणा के साथ की गई थी।
नागौर की घटना इकलौती नहीं है। बीजेपी के सत्तासीन होने के बाद से दलितों पर हमले बहुत तेज़ हुए हैं। जिन मामलों में वीडियो बन सके हैं या वीडियो सार्वजनिक हुए हैं, कोई भी सामान्य इंसान यह कल्पना कर सकता है कि वास्तव में दलितों के साथ होने वाले उत्पीड़नों के मामले कितना ज़्यादा होंगे। गुजरात से लेकर उत्तर प्रदेश और उत्तर भारत के जितने भी राज्य हैं, वहाँ से इस तरह के वीडियो आते रहते हैं। इस तरह के वीभत्स वीडियो स्वाभाविक है कि पिटाई कर रहे लोगों के परिचित ही बनाते हैं। पीड़ित पक्ष का कोई व्यक्ति तो वीडियो बनाने का साहस नहीं कर सकता है।
वीडियो जारी करने की दो मंशा हो सकती है। पहली, वीडियो बनाने वाले और उसे जारी करने वाले व्यक्ति में मानवता हो। संभव है कि वीडियो बनाने वाला व्यक्ति इस तरह की घटनाएँ देखते-देखते आजिज हो गया हो, लेकिन वह कुछ कर पाने में सक्षम न हो। और आख़िर में उसने फ़ैसला किया हो कि वीडियो बनाकर उसे सार्वजनिक कर देना है, जिससे इसका विरोध हो सके। हालाँकि महात्मा गाँधी के सिद्धांत को माना जाए तो इस तरह की घटना का विरोध इस कदर किया जाना चाहिए कि भले ही जान चली जाए, लेकिन पूरी ताक़त से इसका विरोध किया जाए। लेकिन स्वाभाविक है कि इतना साहस सबको नहीं होता।
वीडियो जारी करने की दूसरी मंशा यह हो सकती है कि पिटाई करने वाले ग्रुप का व्यक्ति ही वीडियो बना रहा हो और ख़ौफ़ फैलाने के लिए वीडियो जारी किया गया हो। यह स्थिति भयावह है। अगर ऐसा किया जा रहा है तो साफ़ है कि क़ानून अपने हाथ में ले चुके इन अमानुषिक गुंडों में क़ानून का रत्ती भर ख़ौफ़ नहीं है। वह मानकर चल रहे हैं कि पुलिस, न्यायालय, क़ानून-व्यवस्था उनकी रखैल है और वीडियो जारी होने, उनके चिह्नित हो जाने के बाद भी पुलिस, न्यायपालिका उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकतीं।
यह सच्चाई है कि लड़कियों को छेड़ने, उन्हें नोचने, लड़कों को पीटने के वीडियो गाहे-बगाहे लगातार जारी हो रहे हैं। इसमें एक बात आम है, चाहे वह लड़कियों पर यौन हमले के वीडियो हों या पिटाई के, पीड़ित पक्ष सामान्यतया दलित होता है।
‘किस तरह की आज़ादी’
नरेंद्र मोदी सरकार के समर्थक ही नहीं, उनके मंत्रिमंडल में बैठे कथित मंत्रियों और पार्टी से जीतकर आए सांसद सवाल उठाते रहते हैं कि आज़ादी तो 1947 में ही मिल गई है, अब किस तरह की आज़ादी चाहिए। सत्ता का यह शातिर खेल है। यह सत्ता का शातिर खेल तब और ज़्यादा लगता है, जब रविशंकर प्रसाद जैसे मंत्री यह सवाल उठाते हैं कि किस तरह की आज़ादी चाहिए। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भी डॉ. भीमराव आम्बेडकर को यह संदेह था कि अंग्रेज़ों के भारत के चले जाने से कोई आज़ादी नहीं मिलने वाली है। आम्बेडकर ने उस दौर में 1937 के चुनाव के बाद के मंत्रिमंडलों का विश्लेषण करते हुए बताया कि सभी प्रांतों में ग़ैर-हिंदू मुख्यमंत्रियों को छोड़कर सभी मुख्यमंत्री ब्राह्मण हैं। उन्होंने लिखा,
"ब्राह्मण मस्तिष्क से ग़ुलाम बनाता है और बनिया शरीर से। ये दोनों मिलकर शासन पर क़ब्ज़ा कर लेते हैं और उसे चाट जाते हैं। यदि कोई इस देश के आचरण, परंपराओं और दर्शन को समझता है तो क्या विश्वास कर सकता है कि स्वतंत्र भारत में कांग्रेसी शासन में आज की अपेक्षा स्थिति कुछ भिन्न होगी?"
(कांग्रेस और गाँधी ने अस्पृश्यों के लिए क्या किया, डॉ. बी. आर. आम्बेडकर, पेज 226)
आरक्षण का लाभ किसे मिला?
वंचित तबक़े को आरक्षण देकर उन्हें शासन सत्ता में प्रतिनिधित्व देने का काम स्वतंत्रता के बाद तेज़ किया गया। लेकिन अभी तक कि स्थिति यह है कि जितनी सीटें आरक्षित हैं, उतने प्रतिशत दलित पिछड़े भी सरकारी पदों पर नहीं पहुँच सके हैं।
मोदी सरकार बनने के बाद तो प्रतिनिधित्व देने का काम उलटी दिशा में चल पड़ा है और सरकार ने सवर्णों को ही आरक्षण देना शुरू कर दिया, जो पहले से ही शासन सत्ता व धन के स्रोतों पर काबिज़ हैं।
यह समझने में कहीं से कोई गड़बड़ी नहीं होनी चाहिए कि किस चीज की आज़ादी माँगी जा रही है। यह देश तभी ताक़तवर हो सकता है, जब सबको समान अवसर मुहैया कराए जाएँ और सभी को कम से कम जीने की आज़ादी हो। सरकार के समर्थक और मंत्री हक की माँग का यह कहकर मज़ाक उड़ाने में लगे हुए हैं कि स्वतंत्रता तो मिल गई है, अब किस तरह की आज़ादी चाहिए।
गूगल में दलित सर्च पर पिटाई, हत्या, रेप की ही ख़बरें क्यों?
दलित शब्द गूगल पर डालकर खोजने पर क़रीब 63 लाख 60 हज़ार रिजल्ट सामने आते हैं। जहाँ ब्राह्मण व क्षत्रिय लिखने पर सम्मान, पुरस्कार, सम्मेलन, गोष्ठी, मंत्री पद संभालने, प्रशासनिक पदों पर चयनित होने की ख़बरों के रिजल्ट आते हैं, दलित शब्द की खोज में इस समय नागौर छाया हुआ है। अगर आगे बढ़ते जाएँ तो दलित की शादी में घोड़ी पर च़ढ़ने को लेकर पिटाई, महिला को नंगा घुमाने, महिला को पेशाब पिलाने, चुड़ैल, डायन कहकर पीटने, लड़की के साथ छेड़छाड़ और बलात्कार जैसी ख़बरें सामने आती हैं। थानों पर जाकर वास्तविक मामले पता करने पर तो रोज़ाना बड़ी संख्या में रिपोर्ट की सूचना मिलेगी, लेकिन गूगल भी कम वीभत्स तसवीर नहीं पेश कर रहा है। इसमें गोरखपुर में पुलिस की वर्दी में दिनदहाड़े सड़क से लड़की को उठाकर बलात्कार कर देने और कानपुर में दलितों से पिटाई सहित देश के कोने-कोने की घटनाएँ सामने आती हैं। फ़िलहाल नागौर मामले की ख़बरें और वीडियो शीर्ष पर हैं। चूँकि उस मामले का वीभत्स वीडियो बन गया है, इसलिए जनता से लेकर मीडिया तक उस घटना से काफ़ी द्रवित है। दलितों की ख़बर पढ़कर कहीं से नहीं लगता कि अंग्रेज़ों के ज़माने की तुलना में स्थिति में कुछ सुधार हुआ है।
क्या है उपाय?
सरकार की धमक का असर क़ानून-व्यवस्था पर साफ़ दिखता है। केंद्र में बीजेपी के सत्तासीन होने से सामंती, जातिवादी लोगों में उत्साह आया है कि अब उनकी सरकार है। कांग्रेस दलितों को लेकर थोड़ी उदार भले रही है, लेकिन राजस्थान जैसे राज्य में बीजेपी/आरएसएस भी उतने ही ताक़तवर हैं। जब उत्पीड़कों को लगता है कि सरकार उन्हीं की है तो उत्पीड़न की घटनाओं में बढ़ोतरी स्वाभाविक है। अभी जिस तरह का माहौल है, यह लगता है कि भारत में विकास की रफ्तार उलटी दिशा में चल पड़ी है। देश किसी प्राचीन गौरव और स्वर्ण युग में पहुँच जाना चाहता है, जिसमें वंचितों के लिए जगह तो है, लेकिन उन्हें सामान्य ज़िंदगी जीने का भी अधिकार नहीं है। सरकार के ज़िम्मेदार पदों पर बैठे लोगों के ऐसे बयान आते हैं कि पीड़ित वर्ग अगर न्याय की माँग कर रहा है तो वह ग़लत कर रहा है। सरकार के समर्थक उसे इस स्तर पर ले जाते हैं कि अधिकारों की माँग करने वाले देशद्रोही हैं।
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