अयोध्या में राम जन्मभूमि पर बननेवाले भव्य मंदिर के भूमिपूजन के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भाषण के निहितार्थों पर पर्याप्त चर्चा होनी चाहिए। अगर गंभीरता से विचार किया जाए तो पाँच अगस्त को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सिर्फ़ मंदिर के विधिवत निर्माण की शुरुआत ही नहीं की, उन्होंने भारतीय संस्कृति के बारे में व्याप्त भ्रांतियों को दूर करने की नींव भी डाली। भारतीय संस्कृति को राम से जोड़कर नरेन्द्र मोदी ने उन उदारवादियों की सोच को भी सही दिशा में लाने की कोशिश की जो राम को धर्म से जोड़कर देखते और व्याख्यायित करते रहे हैं। प्रधानमंत्री मोदी का अयोध्या में दिया गया भाषण कई मायनों में ऐतिहासिक है। मोदी ने जय श्रीराम के नारे के स्थान पर ‘सियावर रामचंद्र की जय’ या ‘जय सियाराम’ का उद्घोष करके एक और संदेश दिया। ऐसा संदेश जो अपेक्षाकृत समावेशी है।
राम जन्मभूमि आंदोलन के समय ‘जय श्रीराम’ का उद्घोष किया जाता रहा था, बाद में भी ‘जय श्रीराम’ का ही नारा लगता रहा। कुछ लोगों को प्रधानमंत्री का सियावर रामचंद्र कहना प्रतीकात्मक लग सकता है, लेकिन संस्कृति के सवालों से जब मुठभेड़ होती है तो प्रतीकों का भी बहुत अधिक महत्व हो जाता है।
अपने पूरे भाषण के दौरान नरेन्द्र मोदी ने राम के सांस्कृतिक पक्ष को सामने रखा और स्पष्ट रूप से यह संदेश दिया कि भारत में किसी भी व्यक्ति का धर्म कुछ भी हो सकता है लेकिन हम सबकी संस्कृति तो राम ही है। मर्यादा पुरुषोत्तम राम। वो कहते हैं कि ‘राम हमारे मन में गढ़े हुए हैं, हमारे भीतर घुल-मिल गए हैं। कोई काम करना हो, तो प्रेरणा के लिए हम भगवान राम की ओर ही देखते हैं। आप भगवान राम की अद्भुत शक्ति देखिए। इमारतें नष्ट कर दी गईं, अस्तित्व मिटाने का प्रयास भी बहुत हुआ, लेकिन राम आज भी हमारे मन में बसे हैं, हमारी संस्कृति का आधार हैं। श्रीराम भारत की मर्यादा हैं, श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं।’
अपने भाषण में प्रधानमंत्री मोदी साफ़ तौर पर संस्कृति और धर्म को अलग करके देखते हैं। जब वो विदेशों का उदाहरण देते हैं तो यह और भी स्पष्ट होता है,
“दुनिया में कितने ही देश राम के नाम का वंदन करते हैं, वहाँ के नागरिक, ख़ुद को श्रीराम से जुड़ा हुआ मानते हैं। विश्व की सर्वाधिक मुसलिम जनसंख्या जिस देश में है, वो है इंडोनेशिया। वहाँ हमारे देश की ही तरह ‘काकाविन’ रामायण, स्वर्णद्वीप रामायण, योगेश्वर रामायण जैसी कई अनूठी रामायणें हैं। राम आज भी वहाँ पूजनीय हैं। कंबोडिया में ‘रमकेर’ रामायण है, लाओ में ‘फ्रा लाक फ्रा लाम’ रामायण है, मलेशिया में ‘हिकायत सेरी राम’ तो थाईलैंड में ‘रामाकेन’ है! आपको ईरान और चीन में भी राम के प्रसंग तथा राम कथाओं का विवरण मिलेगा। श्रीलंका में रामायण की कथा जानकी हरण के नाम सुनाई जाती है, और नेपाल का तो राम से आत्मीय संबंध, माता जानकी से जुड़ा है। ऐसे ही दुनिया के और न जाने कितने देश हैं, कितने छोर हैं, जहाँ की आस्था में या अतीत में, राम किसी न किसी रूप में रचे बसे हैं! आज भी भारत के बाहर दर्जनों ऐसे देश हैं जहाँ, वहाँ की भाषा में रामकथा, आज भी प्रचलित है।”
उनके वक्तव्य के इस अंश के निहितार्थ को अगर समझें तो यह साफ़ होता है कि राम और राम का चरित्र उन देशों में भी संस्कृति का आधार हैं जिन देशों का धर्म या मज़हब अलग है। इसलाम को मानने वाले देशों में भी राम वहाँ की संस्कृति के आधार हैं।
कहना न होगा कि प्रधानमंत्री ये साफ़ कर रहे हैं कि किसी का धर्म इसलाम हो सकता है, कोई ईसाई धर्म में विश्वास रख सकता है लेकिन अगर वो भारत में रहता है तो उसकी संस्कृति राम है। राम को सिर्फ़ धर्म विशेष से जोड़ना उचित नहीं है वो तो भारत के हर धर्म के लोगों से जुड़े हैं, उनके जीवन में हैं। और यही तो संस्कृति है। कहा भी गया है कि संस्कृति को हम लक्षणों से जान सकते हैं, उसको परिभाषित करना जरा मुश्किल है।
यह भी कहा गया है कि संस्कृति वह गुण है जो हम सब में व्याप्त है जबकि सभ्यता वह चीज है जो हमारे पास है। तो राम तो हर भारतवासी के अंदर व्याप्त है, अपने अलग-अलग रूपों में चाहे वो राम की मर्यादा हो, राम की नीति हो या फिर राम का नाम। दैनिंदिन अभिवादन से लेकर आचार-व्यवहार तक में।
जब वो वाल्मीकि के रामायण से लेकर कबीर के निर्गुण राम तक आते हैं या फिर बापू के राम की बात करते हैं तो वो एक परंपरा को रेखांकित कर रहे होते हैं। वाल्मीकि का राम अलग है जो समय और काल के अनुरूप तुलसी के यहाँ बहुत अलग दिखाई देता है। यह अकारण नहीं है कि तुलसीदास शम्बूक वध और सीता परित्याग की घटना रामचरित मानस में नहीं लिखते हैं। अलग-अलग कालखंड में राम का चरित्र चित्रण इस तरह से हुआ है कि वो समकालीन चुनौतियों से मुठभेड़ करता दिखता है।
राम का चरित्र देश काल और परिस्थिति के अनुसार इतना लचीला है कि वो अपने अंदर तमाम तरह के बदलावों को समाहित कर लेता है। अपने युग के धर्म का पालन भी करता है।
राम की व्याप्ति के इतने गवाक्ष खोलकर प्रधानमंत्री ने उनको लोक से जोड़ दिया। जब हम लोक की संस्कृति की बात करते हैं तो हमें रामधारी सिंह दिनकर के एक लेख ‘रेती के फूल’ की पंक्तियाँ याद पड़ती हैं जिसमें वो कहते हैं कि ‘असल में संस्कृति ज़िंदगी का एक तरीक़ा है और यह तरीक़ा सदियों से जमा होकर उस समाज में छाया रहता है जिसमें हम जन्म लेते हैं। ...संस्कृति वह चीज मानी जाती है जो हमारे जीवन को व्यापे हुए है तथा जिनकी रचना और विकास में अनेक सदियों के अनुभवों का हाथ है। संस्कृति असल में शरीर का नहीं आत्मा का गुण है और सभ्यता की सामग्रियों से हमारा संबंध शरीर के साथ ही छूट जाता है, तब भी हमारी संस्कृति का प्रभाव हमारी आत्मा के साथ जन्म-जन्मांतर तक चलता रहता है।’
हमारे राम ऐसे ही तो हैं, उनका प्रभाव भी तो हमारे देश में पीढ़ियों से चला आ रहा है। प्रधानमंत्री के इस भाषण के बाद बहुत संभव है कि उन बुद्धिजीवियों के मानस पर वर्षों से जमा वो भ्रम का जाला भी साफ़ होगा जिसमें वो भारत को विविध संस्कृतियों का देश मानते और बताते रहते हैं। विविध संस्कृतियों का देश बतानेवाले सिद्धांतों का निषेध होगा क्योंकि यह तो साफ़ है कि भारत की संस्कृति तो एक ही है, लेकिन हम इस एक संस्कृति में विविधता का उत्सव मनाते हैं।
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