ताजा बजट में सरकार ने एक बार फिर बेरोजगार युवाओं के साथ छल किया है। स्किल विकास का गाना तो फिर गाया गया है, लेकिन असलियत यह है कि 2016 से 2022 के दौरान कौशल अर्जित करने वाले श्रमिकों में से केवल 18% को रोजगार मिला है। अर्थात मूल मामला यह है कि रोजगार है ही नहीं, 82% कुशल मज़दूर तो पहले से ही बेरोज़गार हैं। दरअसल, रोज़गार के अवसर अर्थव्यवस्था में पैदा होते हैं, सही अर्थनीति से। और अधिक लोग कौशल अर्जित कर भी लें तब भी उन्हें रोजगार कैसे मिल जायेगा जब अर्थव्यवस्था में रोजगार है ही नहीं, नए अवसर पैदा ही नहीं हो रहे।
जो मनरेगा ग्रामीण क्षेत्र में ग़रीब मज़दूरों का इकलौता सहारा है और जो कोविड के दौरान शहरों से विस्थापित अभागे बेसहारा मज़दूरों का सबसे बड़ा संबल बना था, उसकी उपेक्षा जारी है। इस वर्ष के लिए इसका बजटीय आवंटन 86,000 करोड़ रुपये है। पहले से बढ़ने को कौन कहे, यह पिछले वित्त वर्ष में खर्च किए गए धन से भी कम है। इस वित्तीय वर्ष के पहले चार महीनों में 41,500 करोड़ रुपये पहले ही ख़र्च हो जाने के बाद अगले आठ महीनों के लिए केवल 44,500 करोड़ रुपये ही बचे हैं। जाहिर है ग्रामीण भारत में बेरोज़गारी के गहरे संकट से निपटने के लिए यह राशि अपर्याप्त है और यह दिखाता है कि मोदी सरकार भारतीय समाज के आखिरी पायदान पर खड़े बेरोज़गार मज़दूरों के जीवन और आजीविका के प्रति कितनी संवेदनहीन है।
शहरी क्षेत्र में मनरेगा जैसी रोजगार गारंटी योजना की ज़रूरी और लोकप्रिय मांग को सरकार ने नहीं स्वीकार किया है, न ही मनरेगा मज़दूरों की मज़दूरी बढ़ाने की मांग को स्वीकार किया है।
इस समय देश में दिहाड़ी मजदूरों की औसत मजदूरी मात्र 7400/ - मासिक है। तमाम मजदूर संगठन मांग करते रहे हैं और विपक्ष ने वायदा भी किया था कि दिहाड़ी मज़दूरों को 400/- न्यूनतम दैनिक मजदूरी सुनिश्चित की जाएगी, लेकिन सरकार ने उसको कोई तवज्जो नहीं दी।
बजट में अमूर्त ढंग से कांग्रेस के घोषणापत्र की नकल करते हुए कह दिया गया है कि एक करोड़ युवाओं को एक साल की इंटर्नशिप/ अप्रेंटिसशिप दी जाएगी। कुछ नहीं पता कि ये एक करोड़ युवा कौन होंगे, इनके चयन का मानदंड क्या होगा?
सबसे बड़ी बात यह कि उनको अप्रेंटिसशिप कौन देगा, कहां देगा? रोजगार है कहां जहां उनको इंटर्नशिप के बाद खपाया जायेगा? इन हवा-हवाई वायदों से लगता है कि साल में दो करोड़ रोजगार की तर्ज पर यह मोदी सरकार का नया झुनझुना है जो विपक्ष के वायदों को काउंटर करने के लिए बेरोजगारों को थमाया जा रहा है।
कुल तीन तरह की योजनाओं के माध्यम से 2.9 करोड़ रोजगार पैदा करने का सरकार का दावा अतिरंजित है और यह दो करोड़ वाले वायदे की तरह एक और जुमला साबित होने जा रहा है।
अर्थशास्त्रियों ने बार-बार कहा है कि शिक्षा और स्वास्थ्य दो ऐसे क्षेत्र हैं जहां सरकार बड़े पैमाने पर निवेश करे तो भारी मात्रा में नया रोजगार सृजन होगा और लोगों के जीवनस्तर में सुधार होगा। लेकिन इस बजट में भी सरकार के कान पर जूं नहीं रेंगी। स्वास्थ्य का बजट पहले से भी कम हो गया और शिक्षा में न के बराबर वृद्धि हुई। यूजीसी के बजट में भारी कटौती हुई है।
दरअसल, रोजगार सृजन के सवाल पर सरकार की दिशा पूरी तरह प्रतिगामी है। प्रो. प्रभात पटनायक जैसे जाने माने अर्थशास्त्रियों ने सुझाव दिया था कि अर्थव्यवस्था में मांग बढ़ाने के लिए सरकार को बड़े पैमाने पर ख़र्च करना चाहिए और सार्वजनिक निवेश बढ़ाना चाहिए। प्रो. पटनायक का मानना है कि ऐसा करने में एक संप्रभु सरकार को वैश्विक वित्तीय पूंजी और देशी कॉर्पोरेट घरानों द्वारा वित्तीय घाटे ( fiscal deficit ) पर लगाई बंदिश की बिल्कुल परवाह नहीं करनी चाहिए और ऐसे किसी डिक्टेट को मानने से इंकार कर देना चाहिए। उन्होंने इस बात की जोरदार वकालत की है कि सरकार को वित्तीय घाटे की भरपाई कॉर्पोरेट तथा सुपर रिच यानी अति अमीर तबकों पर संपत्ति कर और उत्तराधिकार कर लगा कर करना चाहिए, ताकि समाज में आय की भयावह ढंग से बढ़ती गैरबराबरी को रोका जा सके। उन्होंने साफ़ किया है कि इससे निजी निवेश पर कोई प्रतिकूल असर नहीं पड़ेगा, वरना बाजार में मांग बढ़ने से वह और बढ़ेगा। उन्होंने यह भी साफ़ किया है कि इस कराधान से पूंजीपतियों की मूल संपदा भी कम नहीं होगी क्योंकि कर के बराबर मुनाफा सरकारी ख़र्च बढ़ने से वे कमा लेंगे।
लेकिन यहां हम उल्टा ही खेल देख रहे हैं। सरकार ने न सिर्फ चौतरफ़ा सार्वजनिक निवेश में कटौती की है, बल्कि कॉर्पोरेट घरानों पर टैक्स लगाने की बजाय उन्हें और छूट तथा सब्सिडी दे रही है।
जाहिर है ऐसी संकुचनकारी अर्थनीति का नतीजा यही होगा कि नया रोजगार सृजन नहीं होगा, दरिद्रीकरण बढ़ेगा और दुनिया का सबसे गैरबराबरी वाला भारतीय समाज थोड़ा और गैर बराबर हो जायेगा।
आज हालत यह है कि देश के 1% सुपर रिच तबकों का देश की 22.5% आय तथा 40.1% संपत्ति पर कब्जा है। भारत ब्राजील, द अफ्रीका, अमेरिका से भी ज्यादा गैर बराबरी वाला समाज बन गया है। हालात अंग्रेजों के राज से भी बदतर हैं। हमें थॉमस पिकेटी की इस चेतावनी को ध्यान में रखना चाहिए, "यह देखने की बात है कि इतनी भयावह गैर बराबरी भारत किसी सामाजिक राजनीतिक उथल पुथल के बिना कब तक बर्दाश्त कर सकता है।"
इस असाधारण गैर बराबरी के साथ 9.2% की अभूतपूर्व बेरोजगारी दर को जोड़ दिया जाय तो यह साफ़ हो जाता है कि भारत आज बांग्लादेश की तरह ही युवा आक्रोश के ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठा है।
यह स्वागत योग्य है कि तमाम छात्र युवा संगठन रोजगार के सवाल पर केंद्रित कर बड़े आंदोलन की तैयारी में हैं। वे मांग कर रहे हैं कि केंद्र तथा राज्य सरकारों के एक करोड़ खाली पद भरे जायँ, सबके लिए रोजगार और गरिमापूर्ण जीवन की गारंटी की जाय तथा इसके लिए सुपर रिच तबकों पर संपत्ति कर तथा उत्तराधिकार कर लगाया जाय। वे नागरिक समाज से भी समर्थन की अपील कर रहे हैं। उम्मीद है आने वाले दिनों में देश रोजगार के सवाल पर बड़े जनांदोलन का साक्षी बनेगा।
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