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बांग्लादेश में छात्र आंदोलन और सत्ता परिवर्तन का संदेश क्या?

बांग्लादेश के राजनीतिक घटनाक्रम ने पूरी दुनिया को चौंकाया है। छात्र आंदोलन स्वतः स्फूर्त ढंग से शुरू तो हुआ था आरक्षण के सवाल पर, लेकिन देखते देखते उसने राजनीतिक आयाम ग्रहण कर लिया और अंततः प्रधानमंत्री शेख हसीना को इस्तीफा देकर देश छोड़कर भागना पड़ा। दस अगस्त को छात्रों के दबाव में मुख्य न्यायाधीश को भी इस्तीफा देना पड़ा। ऐसा लगता है कि छात्र पुराने सत्ता प्रतिष्ठान के सारे चिह्न मिटा देने पर आमादा हैं। लेकिन इस प्रक्रिया में आंदोलन को अराजकता के रास्ते पर जाने का ख़तरा भी है।

दुनिया आज यह अद्भुत नजारा बांग्लादेश में देख रही है कि छात्रनेता सीधे कैंपस से जेल होते हुए देश की कैबिनेट में पहुंच गए। छात्र नेताओं ने सरकार के मुखिया के चयन में भी अहम भूमिका निभाई है। ढाका विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र के छात्र नाहिद इस्लाम टेलीकम्युनिकेशन और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय तथा भाषा विज्ञान के छात्र आसिफ महमूद युवा मामलों और खेल मंत्रालय के कैबिनेट मंत्री बने हैं। दोनों की उम्र मात्र 26 साल है। नाहिद गणतांत्रिक छात्रशक्ति के सदस्य सचिव तो आसिफ उसके संयोजक थे। नाहिद ने एक वक्तव्य में कहा है कि, ‘देश में जनता का मताधिकार खत्म हो गया था। सारी संस्थाओं पर सत्तारूढ़ दल का कब्जा हो गया था। फासीवाद का अंत कर लोकतंत्र की पुनर्स्थापना करना हमारा लक्ष्य है।’

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दरअसल, 1971 में बांग्लादेश की आज़ादी के आंदोलन के स्वतंत्रता सेनानियों के वंशजों को, जो जाहिर तौर पर सत्तारूढ़ अवामी लीग से जुड़े थे, 30% आरक्षण के खिलाफ छात्रों की लड़ाई शुरू हुई। लेकिन छात्रों से वार्ता करने के बजाय शेख हसीना ने दमन का सहारा लिया जिसमें अनेक छात्र मारे गए। इसने आग में घी का काम किया और आंदोलन और भड़क उठा।

दरअसल, आरक्षण का सवाल तो बस उकसाने वाला बिंदु बन गया। ऐसा लगता है कि वहां समाज में और युवाओं, छात्रों में मूल आक्रोश तो शेख हसीना की आर्थिक नीतियों से पैदा भयावह बदहाली, बेरोजगारी और शेख हसीना की ‘तानाशाही’ के खिलाफ पनप रहा था, उसमें आरक्षण का मुद्दा कोढ़ में खाज बन गया। शेख हसीना ने समय रहते आंदोलनकारी छात्रों से बात करने की बजाय उन्हें रजाकार घोषित कर उनका घोर अपमान किया और उनके खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। बता दें कि पाकिस्तानी सेना की शह पर रजाकारों ने 1971 के बांग्लादेश मुक्ति युद्ध के समय देशभक्तों पर बर्बर जुल्म ढाए थे। उन रजाकारों से अपनी तुलना किए जाने पर छात्रों का दबा आक्रोश और भड़क उठा।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा आरक्षण कम करके 5% किए जाने तक बहुत देर हो चुकी थी। उस फैसले के बावजूद दूसरे चरण के आंदोलन में छात्रों के हत्यारों को सजा देने, बन्दी नेताओं की रिहाई तथा शेख हसीना के इस्तीफे की मांग होने लगी। जाहिर है इस मांग के पीछे नाराज छात्रों का गुस्सा तो था ही, ऐसा लगता है कि तब तक विरोधी दलों के लोग तथा कट्टरपंथी तत्व और सांप्रदायिक ताकतें भी सक्रिय हो चुकी थीं। 
जाहिर है अराजकता और अल्पसंख्यकों पर हमलों को रोकना नई सरकार की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए, जो सरकार के मुखिया का पद ग्रहण करते हुए मुहम्मद यूनुस ने शर्त के तौर पर भी रखा।

यह देखना आश्वस्तकर है कि छात्र और नागरिक समाज के लोग जगह जगह अल्पसंख्यकों की रक्षा के लिए सड़क पर उतरे।

दरअसल, छात्रों का यह उभार शेख हसीना की तानाशाही और आर्थिक तबाही के खिलाफ जमा आक्रोश का विस्फोट था। लोकलहर के संपादकीय में लिखा है कि 2009 के संसदीय चुनाव में जब हसीना सत्ता में वापस आईं, तभी से अपने 15 साल के शासन में वे निरंतर तानाशाही की ओर बढ़ती चली गईं, विपक्षी पार्टियों का बड़े पैमाने पर दमन हुआ और सरकारी संस्थाएं खुले आम शासक पार्टी के लिए काम करने लगीं। जहां तक आर्थिक मोर्चे की बात है तो शेख हसीना के कार्यकाल के पहले दशक में बांग्लादेश ने आर्थिक प्रगति की, लेकिन बाद में भ्रष्टाचार चरम पर पहुंच गया और आज स्थिति यह है कि बांग्लादेश में एक करोड़  80 लाख युवा बेरोजगार हैं, उनके सामने रोजगार मिल पाने की संभावनाएं क्षीण हैं। जो बांग्लादेश कभी आर्थिक विकास का मॉडल बताया जा रहा था, वहां जनता आर्थिक बदहाली में डूब गई। इसकी कीमत शेख हसीना को चुकानी पड़ी है।

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सरकार के नए मुखिया, नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री मोहम्मद यूनुस की पश्चिमी देशों से नजदीकियों के चलते लोग सशंकित हैं। यह आशंका जताई जा रही है कि ‘पाकिस्तान, चीन से ज्यादा अमेरिका नए दौर में एजेंडा को सेट करने में सक्रिय रूप से हस्तक्षेप करेगा। वह बांग्लादेश को इंडो पेसिफिक रणनीति में शामिल करना चाहेगा।’

संघ, भाजपा के लोग बांग्लादेश के घटनाक्रम का भारत के अंदर ध्रुवीकरण करने और भावनाएँ भड़काने के लिए इस्तेमाल करने में लगे हुए हैं। संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ में ऐसा करने से उन्हें बाज आना चाहिए। यही भारत के भू-राजनीतिक हित में होगा तथा बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के भी हित में होगा।

उम्मीद की जानी चाहिए कि लोकतांत्रिक छात्र 'बांग्लादेश के विचार' की रक्षा करेंगे। अंततः बांग्लादेश की जनता की गणतांत्रिक विरासत और मूल्यों की जीत होगी और कट्टरपंथी सांप्रदायिक तथा सैन्यवादी ताकतें अलगाव में पड़ती जाएंगी।

अब सवाल है कि बेरोजगारी, आर्थिक तबाही तथा तानाशाहीपूर्ण रवैये के खिलाफ लड़ाई का जो संदेश है उससे दुनिया सबक सिखेगी?

(यह लेखक के निजी विचार हैं)
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लाल बहादुर सिंह
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