कुछ शब्द ऐसे होते हैं जो शब्दकोश में अपने निश्चित अर्थों के साथ पहले से ही मौजूद होते हैं और किसी कालखंड की सामाजिक-राजनीतिक गतिविधियाँ या दबाव उन्हें एकदम भिन्न अर्थ दे देते हैं। आज की परिस्थिति में दो शब्द अर्थ संकट में पड़ गए हैं - कोरोना और जमाती। बता दें कि कोरोना विषाणुओं का एक कुल है और इसलाम के बुनियादी आचार-विचार का प्रचार करने वाला मुसलमान जमाती कहा जाता है।
मनुष्यों की तरह ही शब्दों के कुल होते हैं। जो शब्द समुदाय विशेष में अधिक लोकप्रिय होते हैं उनका इस्तेमाल समुदाय से बाहर भी होने लगता है और कभी-कभी यह फैलाव इतना विश्वव्यापी हो जाता है कि उन शब्दों को विभिन्न भाषाओं के मानक एवं प्रतिष्ठित शब्दकोशों में स्थायी जगह मिल जाती है।
आज हालत यह है कि जहाँ भी चार लोग जमा होते हैं, बातचीत का विषय कुछ भी हो, उनके वाक्यों में ये दोनों शब्द जगह बना ही लेते हैं। पिछले दिनों एक गुमटी में चाय पीते वक़्त मैंने सुना - ‘देखो, कोरोना आ रहा है।’ पास आने वाला व्यक्ति जान-पहचान का था लेकिन चूँकि वह सामाजिक मुद्दों पर अपनी अलग राय रखता था इसलिए उसे कोरोना कह कर संबोधित किया जा रहा था। एक अन्य वाक़ये में युवकों ने पूछा- ‘भैया, बाहर से कुछ जमाती आने वाले हैं। उनको कहाँ रखा जाएगा?’
दरअसल, बाहर से आने वाले मज़दूर आपस के ही थे, उनकी ही तरह गाँव की गलियों में पले-बढ़े बच्चे थे जो रोज़ी-रोटी की तलाश में दिल्ली, महाराष्ट्र, गुजरात और अन्य प्रदेशों में कार्यरत थे और किसी तरह गाँव लौटने की जुगत कर रहे थे।
चूँकि स्थानीय प्रशासन की तरफ़ से उन्हें 14 दिनों तक क्वॉरंटीन करने को कहा गया था इसलिए ग्रामवासी चिंतित थे और टीवी व सोशल मीडिया पर तब्लीग़ी जमात को लेकर हुए दुष्प्रचार का उन पर इतना असर था कि वे अपने ही बच्चों, भाइयों, बहुओं, हमजोलियों को जमाती कह रहे थे!
ज़ाहिर है, भारतीय समाज में अब कोरोना और जमाती शब्द के अर्थ बदल गए हैं, और इनके नए अर्थ नकारात्मकता से ग्रस्त हैं। इसे हम हिंदी व्याकरण के अर्थ संकोच या अर्थ विस्तार जैसे शब्द पदों के ज़रिए नहीं समझ सकते। इस फिनॉमिना को समझने के लिए हमें भारतीय समाज की व्याधियों पर नज़र डालनी पड़ेगी और इसके लिए इतिहास या भूगोल खंगालने की भी ज़रूरत नहीं है।
भारतीय समाज में जड़ें जमाए बैठा जाति और धर्म का भेदभाव कोढ़ में खाज का काम कर रहा है। ग्राम पंचायत भवनों, स्कूलों और अन्य सरकारी इमारतों में क्वॉरंटीन किए गए लोगों के बीच ऊँच-नीच और छुआछूत की बीमारी खुलकर सामने आ रही है। सवर्णों और दलितों के अलग-अलग तंबू लगाने के दृश्य उपस्थित हो रहे हैं। कई स्थानों से एक-दूसरे के ऊपर खाना फेंकने, हैंडपंप से पानी न भरने देने, एक साथ खाना न बाँटने देने जैसे मामले भी सामने आए हैं। यूपी के एक गाँव में तो दबंग ग्राम-प्रधान के क़रीबियों ने क्वॉरंटीन की अवस्था में ही शराब-पार्टी की थी। अब हो यह रहा है कि होम क्वॉरंटीन की अनुमति मिल जाने की आड़ में गाँव के प्रभावशाली लोग परदेस से लौट कर सीधे अपनी रसोई में घुस जा रहे हैं!
ऐसे में यह समझना कोई रॉकेट साइंस नहीं है कि शहरों से विपरीत पलायन करके गाँव आने वाले किस वर्ग के लोगों को गाँव में बैठे किस वर्ग के लोग कोरोना और जमाती कह कर बुला रहे हैं। यह नया सामाजिक विच्छेदन है। यह भाषा की यादृच्छिकता का मामला नहीं है जहाँ किसी शब्द का अर्थ निरुद्देश्य ढंग से रूढ़ कर दिया जाता है। इस मामले में तो जानबूझकर एक वर्ग विशेष के हाड़-मांस के आदमी पर कोरोना और जमाती होने का अर्थ आरोपित किया जा रहा है। दोनों शब्दों की अर्थव्याप्ति बहुत गहरी है जो हिंदुओं के एक तबक़े में सदियों से पल रहे घृणा भाव को संतुष्टि देती है।
कोरोना एक विषाणु है, उससे प्यार करने का कोई कारण नहीं है। जमाती मुसलमान होते हैं, उनसे नफ़रत करने के अनेक कारण पैदा कर दिए गए हैं। इस पृष्ठभूमि में गाँव लौटे गाँव के ही लाड़लों को कोरोना और जमाती कहने की जो सहजता और स्वीकार्यता समाज में देखी जा रही है, वह नए कोरोना वायरस के संकट से भी बड़ी महामारी की ओर इशारा करती है। समय रहते इसकी सर्जरी अति आवश्यक है।
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