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काँवड़ यात्रा नियम आदेश: आस्था की अग्नि में विवेक स्वाहा!

अगर कहा जाए कि उत्तर प्रदेश सरकार का ध्येय वाक्य है— ‘आस्था बचाओ, विवेक जलाओ’ तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। आहार की शुचिता कायम करने के बहाने विवेक की शुचिता को भष्म किया जा रहा है। कांवड़ यात्रा के दौरान विक्रेताओं की पहचान प्रकट करने का आदेश न सिर्फ संविधान की भावना के विरुद्ध है बल्कि महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस, डॉ. भीमराव आंबेडकर और डॉ. राममनोहर लोहिया, मौलाना अबुल कलाम आजाद के विचारों और संघर्ष के विरुद्ध है जो उन्होंने अपने आचरण से स्थापित करने की कोशिश की थी।

महात्मा गांधी ने 1942 में युवाओं को संबोधित करते हुए कहा था कि आपके देशप्रेम और देशभक्ति का प्रमाण यह है कि अपने से इतर समुदाय के कितने लोगों को मित्र बनाते हैं। अगर आप हिंदू हैं तो कितने मुसलमानों को मित्र बनाते हैं और अगर मुसलमान हैं तो कितने हिंदुओं को मित्र बनाते हैं। यह शृंखला सिखों, ईसाइयों और बौद्धों, जैनों तक जानी चाहिए। इसी से भारत एकता के सूत्र में पिरोया जा सकेगा। जो लोग आस्था की शुचिता के नाम पर बार बार जाति और धर्म का विभाजन करने की कोशिश करते हैं वे न सिर्फ देशप्रेम को आहत कर रहे हैं बल्कि देशभक्ति को भी घायल करते हैं। कमजोर देशभक्ति पर टिका हुआ राष्ट्र न तो पाकिस्तान के विरुद्ध एकजुट रहेगा और न ही चीन के विरुद्ध। किसी के विरुद्ध की बात छोड़िए वह तो सकारात्मक कार्यों के लिए भी एकजुट नहीं रहेगा।

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सन 1931 में जब कानपुर का दंगा हुआ और उसमें महान पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी ने अपने प्राणों की आहुति दी तो कांग्रेस ने भगवान दास की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई। उस कमेटी ने बताया कि किस तरह तरह से देश की विभिन्न जातियों और धार्मिक संप्रदाय के लोगों को एकजुट करने के लिए रोटी बेटी का रिश्ता बनाया जाना चाहिए और तमाम संस्थाओं के नामों को धर्म और जाति की पहचान से अलग करना चाहिए। उस समिति के सुझाव बहुत आदर्शवादी थे और उन्हें लागू नहीं किया जा सका और आखिरकार भारत का विभाजन हो गया। लेकिन अगर वे आदर्श लागू किए गए होते तो शायद विभाजन का ज्यादा विरोध होता और उसकी गुंजाइश कम होती। ध्यान देने लायक बात है कि गणेश शंकर विद्यार्थी की शहादत के बाद गांधी ने कहा था कि हिंदू मुस्लिम एकता के लिए कांग्रेस का पहला कार्यकर्ता शहीद हुआ है। मुझे इस मौत से ईर्ष्या होती है और मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूं कि मुझे भी ऐसी ही मौत दें।

वास्तव में भगवान दास कमेटी की रपट बताती है कि किस तरह से 1857 के प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम में हिंदू और मुस्लिम एकता हुई थी और उसे अंग्रेजों ने सिलसिलेवार ढंग से तोड़ा। गांधी अगर 1857 की हिंसा से भयभीत थे तो उसकी सकारात्मक भावना को आगे बढ़ाने वाले थे। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने तो 1857 के तमाम प्रतीकों को अपनाते हुए आजाद हिंद फौज का गठन किया था। दिल्ली चलो का नारा या बहादुर शाह जफर, लक्ष्मीबाई ब्रिगेड उसी भावना का प्रमाण थी। उन्होंने 1857 के क्रांतिकारियों की तरह से ही दिल्ली चलो, चलो दिल्ली का नारा भी दिया था। 

उनकी राष्ट्रीय एकता की इसी भावना का परिचय उस समय मिला जब आजाद हिंद फौज के क्रांतिकारी ढिल्लन, सहगल, शाहनवाज पर दिल्ली के लाल किले में मुकदमा चलाया गया। अंग्रेज उन्हें बांटने के लिए हिंदू चाय और मुस्लिम चाय अलग अलग बनवाते थे। अंग्रेज यही हांक लगाते थे कि मुस्लिम चाय तैयार है फिर हांक लगती थी कि हिंदू चाय तैयार है। क्रांतिकारी एक बड़े वर्तन में दोनों चाय उड़ेल देते थे और बांट कर एक साथ पीते थे। गांधी को जब उनके इस व्यवहार का पता चला तो वे उनसे बहुत खुश हुए और उन्होंने उन तीनों को ब्रह्मा, विष्णु, महेश तक कह डाला। इसी भावना को बढ़ाते हुए गाँधी ने कहा कि सुभाष सचमुच राष्ट्रवादी थे और धर्म और जाति का भेद मिटाकर वैसा ही भारत बनाना चाहते थे जैसा मैं बनाना चाहता हूं।
निश्चित तौर पर खानपान के भेद भारत जैसे विविधता पूर्ण समाज में काफी हैं लेकिन उसके कारण नफरत और अलगाव की भावना नहीं होनी चाहिए। जहां भी विधिवत कार्यक्रम बनाकर यह भेदभाव किया जाता है वहां समाज और देश कमजोर होता है।
यह बात सभी को मालूम है कि गांधी शाकाहारी थे और उनके आश्रम में मांसाहार नहीं होता था। उनके वर्धा(सेवाग्राम) के आश्रम में खान अब्दुल गफ्फार खान (सीमांत गांधी) कुछ दिन रहने के लिए आए। गांधी उनका बहुत ख्याल रखते थे। उन्होंने एक दिन टोका कि खान साहब आप का स्वास्थ्य कुछ कमजोर हो रहा है। तो आश्रम के ही एक सज्जन ने कहा कि खान साहब मांस मछली खाने वाले व्यक्ति हैं और आप उन्हें घास फूस खिला रहे हैं तो ऐसा ही होगा। गांधी ने अपने आश्रम के नियम को तोड़कर खान साहब  के लिए मांसाहार बनवाने की इजाजत दी।
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भारत विभाजन के बाद डॉ. लोहिया पेशावर खान साहब से मिलने गए। जब उनके रसोइए ने खाना परोसा तो रोटी के साथ आलू गोश्त था। डॉ. लोहिया थोड़ा अचकचाए क्योंकि वे शाकाहारी थे। यह बात खान साहब को मालूम हुई तो वे अपने खानशामा को डांटने लगे। डॉ. लोहिया ने उन्हें शांत कराया और कहा कि वे गोश्त किनारे करके आलू और शोरबे के साथ रोटी खा लेंगे।

वास्तव में आस्था न तो किसी अंधविश्वास का नाम है और न ही भोजन, वस्त्र और पूजा पाठ को लेकर किसी तरह की कट्टरता का। वह एक श्रेष्ठ आध्यात्मिक मूल्य है और उसके साथ सहिष्णुता और प्रेम का भाव निहित है। आस्था विवेक का आहार नहीं करती बल्कि विवेक की बांह पकड़ कर चलती है। श्रीमदभगवत गीता जिसे स्वधर्म कहती है उसके साथ आस्था को मिलाकर देखेंगे तो पाएंगे कि हर मनुष्य का स्वधर्म अलग अलग है। वह किसी समुदाय से संचालित नहीं होता। बल्कि व्यक्तिगत सोच और विवेक से संचालित होता है। सामिष लोग हिंदुओं में भी होते हैं और निरामिष लोग मुसलमानों में भी होते हैं।

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भारत ने लंबे समय से खानपान की मिली जुली संस्कृति विकसित की है। 1857 इतिहास का वह कालखंड है जब दोनों समुदायों ने एक दूसरे की आस्था और विश्वास का निरादर होते देखकर एक साथ अंग्रेजी राज के विरुद्ध विद्रोह किया था। अंग्रेजों ने उसी को आधार बनाकर दोनों समुदायों को कभी गाय के नाम पर तो कभी सूअर के नाम पर विभाजित करना जारी रखा। बल्कि उस समय की एक घटना बहुत मशहूर है जिसमें जामा मस्जिद की दीवारों पर हिंदुओं और मुसलमानों के धर्म, पूजा पद्धति और खान पान में कितने मतभेद हैं इसके पोस्टर अंग्रेजों द्वारा लगाए जाते थे। उसके जवाब में `दिल्ली उर्दू अखबार’ के संपादक मोहम्मद अली बाकर साहब दोनों समुदायों की एकता दर्शाने वाले अखबारी पोस्टर लगाते थे। बाकर साहब को फांसी दिए जाने की एक वजह यह भी थी।

सांप्रदायिक एकता और जातीय एकता की बात करना विभाजनकारी शासकों की नजर में कुफ्र है। लेकिन देश के लिए, राष्ट्र के लिए और समाज के लिए यह कुफ्र जरूरी है। कितना अच्छा होता इंडिया समूह के नेता बयानबाजी से आगे बढ़कर बाहर निकलते और इस तरह की संकीर्ण सांप्रदायिक सोच को चुनौती देते।

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अरुण कुमार त्रिपाठी
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