आम बजट पर लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी का भाषण महाभारत के रूपकों और पौराणिक आख्यानों से लदा हुआ था। उम्मीद है कि इस संवाद शैली का संदेश दूर तक जाएगा और देश की आमजनता और बौद्धिक वर्ग को भी समझ में आएगा कि संघ परिवार और कॉरपोरेट घरानों के चक्रव्यूह में किस तरह देश का आमजन फँसा हुआ है। राहुल गांधी ने 18 वीं लोकसभा के पहले सत्र से ही संवाद की जो शैली चलाई है उस पर इस देश का उदारवादी लोकतंत्र का समर्थक तबका अगर मोहित है तो वामपंथी और सेक्यूलर लोग खिन्न हैं। इंडिया समूह के भीतर यह वैचारिक विभाजन कई चर्चाओं और मंचों पर दिखाई पड़ता है। उदारवादी और सर्वधर्म समभाव समर्थक वर्ग कह रहा है कि धर्म और पौराणिक आख्यानों के माध्यम से हिंसा और नफरत फैलाने वाले संघ परिवार को इसी भाषा शैली में जवाब दिया जाना चाहिए। तभी वे समझेंगे और तभी जनता उनसे दूर जाएगी।
राहुल गांधी और इक्कीसवीं सदी का चक्रव्यूह
- विचार
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- 30 Jul, 2024

राहुल गांधी ने सोमवार को लोकसभा में पीएम मोदी, उनके लोगों और संघ पर बड़ा हमला किया। उन्होंने कहा कि आज फिर से चक्रव्यूह रचा जा रहा है, लेकिन देश की जनता अभिमन्यु नहीं है, बल्कि वह अर्जुन है।
जबकि वामपंथी और सेक्यूलर तबके का कहना है कि रामायण महाभारत और दूसरे पौराणिक ग्रंथों के आख्यानों की मदद से इक्कीसवीं सदी का धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी और लोकतांत्रिक विमर्श चलाना संभव नहीं है। उसके लिए दूसरी भाषा गढ़नी होगी। क्योंकि स्वतंत्रता संग्राम में यह विमर्श चलाया गया और उसके दुष्परिणाम सांप्रदायिक विभाजन के रूप में सामने आए। गांधी भी तमाम रूपक अपनी परंपरा से उठाते थे। लेकिन वे भीतर से इतने स्पष्ट और दृढ़ थे कि उनका कोई गलत इस्तेमाल नहीं कर सकता था। गांधी जैसी क्षमता सभी में नहीं होती और इसीलिए डॉ. राम मनोहर लोहिया का धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल आखिरकार संघ परिवार के ही खाते में चला गया। हालाँकि महात्मा गांधी के पोते और प्रसिद्ध लेखक राजमोहन गांधी भी गांधी पर धार्मिक और पौराणिक प्रतीकों के अतिरिक्त इस्तेमाल का आरोप लगाते हुए कहते हैं कि मुस्लिम तबके के कांग्रेस से दूर जाने की यह भी एक वजह थी। मशहूर साहित्यकार रघुवीर सहाय भी कहा करते थे कि हमें आधुनिक लोकतंत्र के विमर्श के लिए नए रूपक और नई भाषा गढ़नी होगी। अब सामंती और राजशाही शब्दावली से काम नहीं चलने वाला है। बल्कि समाजवादी आंदोलन के आलोचकों का तर्क यही है कि डॉ. राम मनोहर लोहिया ने राम, कृष्ण और शिव जैसे व्याख्यान देकर संघियों की बड़ी मदद की। इसी के चलते सांप्रदायिकता मज़बूत हुई। कई लोग तो राममंदिर आंदोलन का दोष डॉ. लोहिया पर यह कहते हुए लगाते हैं कि उन्होंने ही रामायण मेला का विचार प्रस्तुत किया था। इसी प्रेरणा से आडवाणी जी रथ लेकर निकल पड़े। वैसे, लोगों का यह भी कहना है कि डॉ. लोहिया धर्म और राजनीति को अलग करने के पक्ष में नहीं थे इससे आज हम ऐसे दिन देख रहे हैं।
लेखक महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर रहे हैं। वरिष्ठ पत्रकार हैं।