आम बजट पर लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी का भाषण महाभारत के रूपकों और पौराणिक आख्यानों से लदा हुआ था। उम्मीद है कि इस संवाद शैली का संदेश दूर तक जाएगा और देश की आमजनता और बौद्धिक वर्ग को भी समझ में आएगा कि संघ परिवार और कॉरपोरेट घरानों के चक्रव्यूह में किस तरह देश का आमजन फँसा हुआ है। राहुल गांधी ने 18 वीं लोकसभा के पहले सत्र से ही संवाद की जो शैली चलाई है उस पर इस देश का उदारवादी लोकतंत्र का समर्थक तबका अगर मोहित है तो वामपंथी और सेक्यूलर लोग खिन्न हैं। इंडिया समूह के भीतर यह वैचारिक विभाजन कई चर्चाओं और मंचों पर दिखाई पड़ता है। उदारवादी और सर्वधर्म समभाव समर्थक वर्ग कह रहा है कि धर्म और पौराणिक आख्यानों के माध्यम से हिंसा और नफरत फैलाने वाले संघ परिवार को इसी भाषा शैली में जवाब दिया जाना चाहिए। तभी वे समझेंगे और तभी जनता उनसे दूर जाएगी।
जबकि वामपंथी और सेक्यूलर तबके का कहना है कि रामायण महाभारत और दूसरे पौराणिक ग्रंथों के आख्यानों की मदद से इक्कीसवीं सदी का धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी और लोकतांत्रिक विमर्श चलाना संभव नहीं है। उसके लिए दूसरी भाषा गढ़नी होगी। क्योंकि स्वतंत्रता संग्राम में यह विमर्श चलाया गया और उसके दुष्परिणाम सांप्रदायिक विभाजन के रूप में सामने आए। गांधी भी तमाम रूपक अपनी परंपरा से उठाते थे। लेकिन वे भीतर से इतने स्पष्ट और दृढ़ थे कि उनका कोई गलत इस्तेमाल नहीं कर सकता था। गांधी जैसी क्षमता सभी में नहीं होती और इसीलिए डॉ. राम मनोहर लोहिया का धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल आखिरकार संघ परिवार के ही खाते में चला गया। हालाँकि महात्मा गांधी के पोते और प्रसिद्ध लेखक राजमोहन गांधी भी गांधी पर धार्मिक और पौराणिक प्रतीकों के अतिरिक्त इस्तेमाल का आरोप लगाते हुए कहते हैं कि मुस्लिम तबके के कांग्रेस से दूर जाने की यह भी एक वजह थी। मशहूर साहित्यकार रघुवीर सहाय भी कहा करते थे कि हमें आधुनिक लोकतंत्र के विमर्श के लिए नए रूपक और नई भाषा गढ़नी होगी। अब सामंती और राजशाही शब्दावली से काम नहीं चलने वाला है। बल्कि समाजवादी आंदोलन के आलोचकों का तर्क यही है कि डॉ. राम मनोहर लोहिया ने राम, कृष्ण और शिव जैसे व्याख्यान देकर संघियों की बड़ी मदद की। इसी के चलते सांप्रदायिकता मज़बूत हुई। कई लोग तो राममंदिर आंदोलन का दोष डॉ. लोहिया पर यह कहते हुए लगाते हैं कि उन्होंने ही रामायण मेला का विचार प्रस्तुत किया था। इसी प्रेरणा से आडवाणी जी रथ लेकर निकल पड़े। वैसे, लोगों का यह भी कहना है कि डॉ. लोहिया धर्म और राजनीति को अलग करने के पक्ष में नहीं थे इससे आज हम ऐसे दिन देख रहे हैं।
अगर ऐसा था तो फिर क्यों राहुल गांधी, जो कि कांग्रेस की परंपरा के वाहक हैं और जिस परंपरा से आज़ादी के बाद डॉ. लोहिया का टकराव होने लगा था, वे पौराणिक और धार्मिक प्रतीकों के माध्यम से लोकतंत्र और संविधान की रक्षा का आख्यान उसी प्रकार रच रहे हैं जैसा लोहिया ने किया था? वास्तव में आज की सांप्रदायिक समस्या की जड़ में भारत के विभाजन की औपनिवेशिक नीति है। उसी ने रामायण और महाभारत को इतिहास की औपनिवेशिक कसौटी पर कसने का अकादमिक और बौद्धिक माहौल बनाया। उसी के चलते समाज का वह तबक़ा जो आधुनिक ज्ञान का उपासक है वह अपनी परंपरा से कटता गया। उसे अपनी परंपरा का एकांगी ज्ञान मिलने लगा और जाहिर सी बात है कि एकांगी ज्ञान ख़तरनाक होता है वह सांप्रदायिकता की ओर ही जाता है। हालाँकि डॉ. राम मनोहर लोहिया अपने जीवन में कभी रामायण मेला का आयोजन नहीं कर पाए थे लेकिन उनका सपना यही था कि भारतीय समाज रामकथा के विविध रूपों से परिचित हो। खासकर उत्तर भारतीय समाज। क्योंकि जब वह जानेगा कि समाज नायकों, प्रतिनायकों और खलनायकों को किस रूप में संशोधित, परिवर्धित और परिवर्तित करता है तो वह किसी पात्र विशेष को लेकर कट्टर नहीं हो पाएगा। अयोध्या में राम जन्मभूमि के विवाद को जिस तरह से उठाया गया वह अपने में जीवन को संदेश देने वाले मिथकीय आख्यान को पलट कर यूरोपीय अर्थ में इतिहास बनाने का प्रयास था। इसीलिए हमारा समाज और राजनीति दुर्घटना के शिकार हुए।
रामकथा के एकदम विपरीत महाभारत ऐसा महाआख्यान है कि उसमें कट्टरता की गुंजाइश बहुत कम है। वह समाज के समूह, व्यक्ति और संस्था सभी को आइना दिखाता है। इसी से लोग महाभारत को पढ़ने से मना करते हैं। उत्तर भारत में तो घरों में महाभारत रखने की मनाही है और लोग यहाँ तक कहते हैं कि इससे झगड़ा हो जाएगा। हालाँकि बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में जब राही मासूम रजा महाभारत नामक धारावाहिक की पटकथा लिखने चले तो धर्म के आधार पर बड़ा विरोध हुआ। उन्होंने उस काम से हाथ खींच लिया। लेकिन जब बीआर चोपड़ा ने उन्हें वे तमाम पत्र दिखाए जो विरोध के साथ समर्थन के भी थे तो उन्होंने यह काम अपने हाथ में लिया और हजारों साल पुराने महाभारत को बीसवीं सदी की राजनीतिक और सांस्कृतिक कसौटी पर कस दिया।
महाभारत अपने विस्तार और यथार्थपरकता में मानव जीवन के इतना निकट है कि एक तरफ़ वह रामायण की सीमाएं तोड़ता है तो दूसरी ओर उससे पैदा हुई सांप्रदायिकता और कट्टरता का निदान भी करता है। राहुल गांधी अगर महाभारत के माध्यम से अपनी बात कह रहे हैं तो वह भाजपा और संघ परिवार के अयोध्यावाद का सही प्रतिउत्तर है।
भाजपा के अयोध्यावाद ने न सिर्फ अयोध्या को ठगा है बल्कि उसके बहाने पूरे देश को ठगा है। उनके वाणी और कर्म का अंतर इतना ज़्यादा है कि वे कहीं भी राम के त्याग और साहस को छू नहीं पाते। लेकिन वे राम को अस्त्र बनाकर पूरे समाज को अपने घेरे में ले आते हैं। इसी को राहुल गांधी ने चक्रव्यूह या पद्मव्यूह कह कर संघ और कॉरपोरेट के अभेद्य किले को भेदने की कोशिश की है।
पौराणिक प्रतीकों और महाकाव्यात्मक रूपकों का प्रयोग करके राहुल गांधी सॉफ्ट हिंदुत्व चला रहे हैं, यह बात वही लोग कह सकते हैं जो अंग्रेजी इलीट के चश्मे से भारतीय समाज को देखते हैं। भारतीय समाज इन्हीं प्रतीकों और रूपकों में जीता है और अपनी बात रखता है। गांधी रामराज्य के मुहावरे का प्रयोग अक्सर करते थे। लेकिन जब उन पर यह आरोप लगने लगा कि वे हिंदू धार्मिक प्रतीक का इस्तेमाल करते हैं और यह तो हिंदू राष्ट्र के सपने की ओर जाता है तो उन्होंने पेशावर में उसका खंडन किया। उनका कहना था कि यह एक लोकप्रिय मुहावरा है इसीलिए वे इसका प्रयोग करते हैं क्योंकि यह जनता की समझ में आता है। उनका रामराज्य अयोध्या के राजा दशरथ के बेटे राम के राज्य का प्रतीक नहीं है। उन्होंने राम के शासन में हुए शंबूक वध और सीता निष्कासन जैसे तमाम विवादों से अपने को अलग करते हुए कहा कि उनका रामराज्य का मतलब खलीफा के उस शासन से है जहां शासक जनता से वसूले गए कर से विकास करता था न कि अपनी विलासिता चलाता था। उसी तरह उन्होंने बाइबल में वर्णित ईश्वर के राज्य से अपने रामराज्य को जोड़ा। उन्होंने अपने रामराज्य को संत रैदास के बेगमपुरा से जोड़ा।
राहुल गांधी या उनके इंडिया गठबंधन के सामने इक्कीसवीं सदी की बड़ी चुनौती है। जहां पूंजीवाद ने धार्मिक राष्ट्रवाद से सांठगांठ करके देश के सारे संसाधनों पर कब्जा करने की योजना बना रखी है। राज्य उसे नियंत्रित करने या जनता की तरफदारी करने की बजाय पूंजीवाद की चाकरी करने लगा है। वास्तविक लोकतंत्र और संविधान का शासन वही कायम कर सकता है जो पूंजी और राज्य को जनता की चाकरी में लगा सके। वही संप्रभु जनता को प्रजा बनने से रोक सकता है। राहुल गांधी के पास अभी भी हिंदी का स्वाभाविक मुहावरा नहीं है। अगर होता तो वे कर्ण को कर्णा न कहते। लेकिन वे सीख रहे हैं और उनकी सीखने की यह कोशिश एक बड़े उद्देश्य के लिए है। यही कारण है कि उनका इस व्यवस्था को बेनकाब करने का प्रयास व्यर्थ नहीं गया। इसीलिए जब उन्होंने चक्रव्यूह के केंद्र में खड़े छह महारथियों का ज़िक्र किया तो सत्तापक्ष तिलमिला गया और उन पर संसदीय नियमों के उल्लंघन का आरोप लगाने लगा।
लेकिन राहुल गांधी जाति जनगणना के जिस अस्त्र से संघ परिवार के चक्रव्यूह या पद्मव्यूह को भेदने की बात कर रहे हैं उसके लिए उन्हें तमाम मिथकों और प्रतीकों की नई व्याख्या अपनानी होगी। वह व्याख्या ब्राह्मणों और अभिजात वर्ग की व्याख्या नहीं होगी। वह पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों की ओर से प्रस्तुत व्याख्या होगी। उसमें शंबूक होंगे, एकलव्य होंगे, कर्ण भी होगा और संजय भी होंगे। उसमें राजा बलि भी होंगे तो तमाम असुर भी होंगे। वह बहुसंख्यक धर्म की अल्पसंख्यकों द्वारा प्रस्तुत की गई व्याख्या भी हो सकती है। वह अल्पसंख्यक धर्म की बहुसंख्यकों द्वारा पेश की गई व्याख्या भी हो सकती है। लेकिन उन व्याख्याओं में घृणा का तत्व नहीं होना चाहिए। उन व्याख्याओं के लिए आंबेडकर के पास भी जाना होगा और बौद्ध, जैन और सिख विद्वानों का भी सहारा लेना होगा। उसके लिए इस्लामी विद्वानों की भी मदद चाहिए। उसके लिए आदिवासी समाज की हजारों साल से चली आ रही मौखिक व्याख्याओं का भी आश्रय लेना होगा। उसके लिए कृषक जीवन के वृतांत को भी शामिल करना होगा। इस आख्यान में स्त्रियों का पक्ष भी लाना होगा।
लेकिन राहुल गांधी को यह ध्यान रखना होगा कि पूंजीवादी असमानता और जातिगत असमानता के साथ सांप्रदायिकता से लोहा लेने का उनका और इंडिया का संकल्प कहीं प्रतीकों और रूपकों के आवरण में उलझ कर न रह जाए। फिर उन्हें यह भी ध्यान रखना होगा कि उनकी कांग्रेस पार्टी ने भी उदारीकरण के बहाने और चुनाव जीतने की लालच में इस देश के लोकतंत्र को कम क्षति नहीं पहुंचाई है। राजनीतिक पतन के उसी कीचड़ में संघ परिवार का कमल खिला है। यही पद्मव्यूह है जिसे राहुल ने चक्रव्यूह बताया है। इसके विरुद्ध उन्होंने शिव जी की बारात यानी आमजन का आह्वान किया है। जब शिवभक्त कांवड़ियों का सहारा लेकर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति चल रही हो तो शिव जी की बारात के माध्यम से समाजवादी परिवर्तन का स्वप्न देखना एक बड़ी बात है। लेकिन इंडिया समूह को इस आख्यान के साथ गोलबंद करने की चुनौती भी छोटी नहीं है। देखना है ये रूपक जमीनी आंदोलनों को कितनी शक्ति देते हैं और संसद को जनता के हित में फ़ैसला लेने के लिए कितना मजबूर करते हैं?
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