कठोर वचन कहने के लिए प्रसिद्ध भारतीय जनता पार्टी के सांसद और पूर्व मंत्री अनुराग ठाकुर ने नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी पर हमला करते हुए एक `बड़ी बात’ कह डाली। उन्होंने कहा कि जिन्हें अपनी जाति पता नहीं है वे जाति जनगणना की बात कर रहे हैं। हालांकि वे कह रहे हैं कि उन्होंने यह टिप्पणी किसी का नाम लेकर नहीं की लेकिन पिछड़ों, दलितों के पक्ष में खड़े होकर जाति जनगणना की सबसे मुखर मांग राहुल गांधी ही कर रहे हैं इसलिए बात उन्हें ही लगी। उन्होंने कहा कि चूंकि वे पिछड़ों, दलितों की बात कर रहे हैं इसलिए उन्हें गालियां दी जाएंगी और वे इसके लिए तैयार हैं। जबकि समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने उसका तीखा प्रतिवाद किया। उन्होंने कहा कि संसद में कोई किसी की जाति कैसे पूछ सकता है? जाति पूछे जाने की इस विडंबनापूर्ण स्थिति पर कई उदारवादी बौद्धिकों ने राहुल गांधी को ही जिम्मेदार ठहराया है।
लेकिन संसद से निकलने वाली इस बहस को अगर हम सामाजिक स्तर पर ले जाएं तो एक सुखद स्थिति बनती है। काश इस देश में एक भी ऐसा व्यक्ति होता जिसकी कोई जाति न होती! अगर राहुल गांधी को अपनी जाति पता नहीं है या लोगों को उनकी जाति पता नहीं है तो यह समाज के लिए बेहद आशाजनक स्थिति है। क्योंकि जिस जाति को हिंदू धर्म से लेकर भारत के सभी धर्मों में व्याप्त बताया जाता है उससे कोई तो मुक्त है। लेकिन भाजपा के सांसद ने राहुल गांधी की जाति की बात छेड़कर यह स्वीकार कर लिया है कि सनातन धर्म का ढांचा ही जाति पर टिका हुआ है। बिना जाति के कोई हिंदू हो नहीं सकता। आखिर यही बात तो जाति जनगणना की मांग करने वाले और जाति व्यवस्था का विरोध करने वाले कह रहे हैं। जबकि संघ परिवार का सैद्धांतिक तर्क यह है कि भारत में जाति थी ही नहीं वह तो औपनिवेशिक संरचना है। उनके सारे अकादमिक विद्वान आजकल इसी पर शोध कर रहे हैं। और वे यही सिद्ध करने में लगे हुए हैं।
अनुराग ठाकुर जब यह कहते हैं कि जिनकी जाति का पता नहीं वे जाति जनगणना की बात करते हैं तो वे न सिर्फ एक जातिवादी बयान देते हैं बल्कि जाति पर अध्ययन करने वाले तमाम राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय विद्वानों को खारिज करते हैं।
होमो हाइरारकियस लिखने वाले लुई दुमांत, विजन ऑफ़ इंडिया लिखने वाले सिडनी लो, एंशियंट लॉ लिखने वाले एब्बे डुबोय, हिंदू ट्राइब्स एंड कास्ट्स लिखने वाले शेटिंग, एशिया एंड यूरोप लिखने वाली मेरिडिथ टाइनसेंड, भारत के प्राचीन कानूनों का अध्ययन करने वाले हेनरी मेन, कास्ट इन इंडिया जैसी पुस्तक लिखने वाले जनगणना आयुक्त जे.एच हटन, कंपीटिंग इक्वैलिटीज जैसी पुस्तक लिखने वाले मार्क गैलेंटर और आजकल भारतीय समाज के गंभीर अध्येता क्रिस्टोफ जाफ्रलो, या दलित मुद्दों पर लिखने वाली अमेरिकी लेखिका गेल आंबेट और एलीनर जीलियट के विचारों को समझने और ग्रहण करने से पहले क्या हम उनकी जाति पूछेंगे?
उसी के साथ यह भी सवाल उठता है कि जाति व्यवस्था से टकराने वाले डॉ. राम मनोहर लोहिया, आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण, मधु लिमए, मधु दंडवते, एस.एम जोशी, राजनारायण जैसे लोग क्या दलित पिछड़े थे? फिर भी उन्होंने अछूतों को मंदिर प्रवेश से लेकर पिछड़ों को आगे लाने के लिए कठिन संघर्ष किया। इसलिए पिछड़ों, दलितों का सवाल उठाने वाला उसी समुदाय से हो यह जरूरी नहीं। यह वैसी ही बात है कि दलित साहित्य सिर्फ दलित ही लिखेगा और स्त्री साहित्य सिर्फ स्त्री और आदिवासी साहित्य सिर्फ आदिवासी। इसी तरह यह सवाल भी अधकचरा है कि अगर व्यक्ति उच्च वर्ण का है तो वह इस सवाल को ईमानदारी से उठा ही नहीं सकता।
निश्चित तौर पर जाति पूछने के ख़तरे हैं और जाति जनगणना के खतरे भी कम नहीं हैं। लेकिन जातियों की उचित संख्या जाने बिना हम जो सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय की योजनाएं चलाए जा रहे हैं उसके खतरे क्या कम नहीं हैं।
जाति तोड़ने और जाति जनगणना की राजनीति में हाल में दीक्षित हुए राहुल गांधी आजकल ज्यादा ही जाति पूछ रहे हैं। चूंकि वह कांग्रेस की जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की परंपरा से आए हैं इसलिए उनका इस दिशा में नया उत्साह देखकर तमाम लोग अचरज में हैं। विशेषकर कांग्रेसी परंपरा के सवर्ण बुद्धिजीवियों को भी राहुल गांधी द्वारा पत्रकारों की जाति पूछना अटपटा लग रहा है। यह सवाल कई बार उन सवर्ण बौद्धिकों को भी दुखी कर देता है जो सारा जीवन जाति विहीन समाज के लिए लिखते और लड़ते हैं और कई बार उनका यह कह कर मजाक उड़ाया जाता है कि क्या अब सारे सवर्ण ही संविधान और लोकतंत्र बचाएंगे।
इस दौरान राहुल गांधी पर यह कह कर भी हमला किया जा रहा है कि कांग्रेसी प्रधानमंत्रियों ने पिछड़ों को आरक्षण देने का विरोध किया था। इसमें कोई दो राय नहीं कि कांग्रेस के भीतर मंडल आयोग को लेकर आपत्तियां रही हैं। उससे पहले जो काका कालेलकर आयोग बना था और जिसने जाति जनगणना और पिछड़ी जातियों को आरक्षण का सुझाव दिया था उसकी रिपोर्ट को भी नेहरू जी ने स्वीकार नहीं किया था। उसी तरह इंदिरा गांधी और फिर राजीव गांधी ने भी मंडल आयोग की सिफारिशों को ठंडे बस्ते में डाल रखा था और उन्हें लागू करने से परहेज किया था। कांग्रेस पार्टी के अतीत पर यह आरोप सही है। लेकिन इसी के साथ यह भी सही है कि अनुसूचित जाति को जो आरक्षण मिला वह कांग्रेस के नेता महात्मा गांधी और उनके सहयोगियों के साथ डॉ. भीमराव आंबेडकर के साथ 1932 में हुए पूना समझौते के तहत मिला था। संविधान सभा में 1950 में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को जो आरक्षण मिला वह भी कांग्रेस के नेताओं के माध्यम से ही मिला था।
जहां तक मंडल आयोग की बात है तो उस पर जितनी आपत्ति कांग्रेस को थी उससे कम आपत्ति भाजपा को नहीं थी। लेकिन दोनों पार्टियों ने चालाकी से उसका प्रकट विरोध नहीं किया। अगर रिपोर्ट लागू होने के बाद कांग्रेस ने कुछ युवाओं को आत्मदाह के लिए भड़काया तो भाजपा ने सोमनाथ से अयोध्या तक की यात्रा निकाल दी। कांग्रेस द्वारा प्रेरित हिंसा छोटी थी लेकिन भाजपा ने मंडल आयोग की प्रतिक्रिया में पूरे देश को सांप्रदायिक विभाजन और हिंसा की आग में झोंक दिया। इस बात का कोई उत्तर भाजपा के पास नहीं है। वह कांग्रेस पर तोहमतें लगाकर इस दोष से बच नहीं सकती। अगर पिछड़े समाज के प्रति भाजपा में इतना ही प्रेम है तो वह 2010 में किए गए जातिगत सर्वे के आंकड़ों को क्यों नहीं जारी कर देती। आखिर उस सर्वे में पिछड़ों और सवर्णों की ही आबादी उजागर होनी है। वह क्यों उसे त्रुटिपूर्ण बताकर छुपाए हुए है और उसके आधार पर देश भर में अपनी राजनीति करती रहती है। अगर कांग्रेस ने मंडल आयोग की रिपोर्ट को दस साल तक दबाए रखा तो भाजपा ने भी पंद्रह साल तक जाति जनगणना के आंकड़ों को छुपा कर रखा है।
अगर राहुल गांधी का समाजवादी रुझान बना है और आज वे डॉ. भीमराव आंबेडकर और डॉ. राममनोहर लोहिया की जुबान बोल रहे हैं तो इसे भारतीय राजनीति का बड़ा परिवर्तन माना जाना चाहिए। उम्मीद की जानी चाहिए कि यह परिवर्तन कांग्रेस पार्टी के अन्य नेताओं के भीतर भी होगा जिन्होंने सामाजिक बदलाव के इस पहलू पर ध्यान देना छोड़ दिया था और अपने को सिर्फ शासन करने की मशीन और आर्थिक उदारीकरण के वाहक के रूप में ढाल लिया था। हालांकि यह कहना कठिन है कि अखिलेश यादव और उनकी पार्टी का कांग्रेसीकरण हुआ है या कांग्रेस का समाजवादीकरण हुआ है। फिलहाल जो भी हुआ है उसके तहत कांग्रेस और समाजवादी दल करीब आए हैं और उसका आधार है डॉ. आंबेडकर और डॉ. लोहिया की विचारधारा। महात्मा गांधी की सोच उसे एक जोड़ने का काम करती है। अगर अखिलेश को लगता है कि अब गैर-कांग्रेसवाद का युग चला गया है तो राहुल को भी लगता है कि अब समाजवादी पार्टी को जातिवादी दल बताना और भ्रष्ट पार्टी बताना बंद करना चाहिए। अगर कांग्रेस को नेहरू की सेक्यूलर विरासत की रक्षा करनी है तो उसका रास्ता पिछड़ा और दलित सबलीकरण से ही गुजरता है। यही वजह है कि राहुल गांधी अगर पिछड़ा पावै सौ में साठ की भाषा बोल रहे हैं तो अखिलेश यादव नेहरू, इंदिरा और राजीव गांधी पर कोई सवाल नहीं उठा रहे हैं।
लेकिन क्या एक दूसरे को नष्ट करने की रणनीति पर पहले से काम करने वाले कांग्रेसी या समाजवादी राष्ट्रहित में इस एकता की अहमियत को समझ पाएंगे?
कांग्रेसियों में बहुत बड़ा तबका है जो डॉ. लोहिया और जेपी को संघ परिवार को वैधता दिलाने के लिए जिम्मेदार मानता है तो समाजवादियों में तमाम पुराने लोग ऐसे हैं जो मानते हैं कि भारत में समाजवाद की संभावना को नेहरू ने ही समाप्त किया था। वे भी कांग्रेस को अभी आशंका से ही देखते हैं।
लेकिन राहुल गांधी और अखिलेश ने राजनीति में विचार और संघर्ष की एक नई परंपरा शुरू की है जो न सिर्फ इस युग के अनुकूल है बल्कि भारत की सामाजिक समरसता की महान विरासत के भी अनुकूल है। इस राजनीति में सांप्रदायिक नफरत के विरुद्ध विचार और संघर्ष है तो जाति तोड़ने का संकल्प भी है। जबकि संघ परिवार की राजनीति में जहां सांप्रदायिक नफरत है वहीं जाति को छुपाने का पाखंड भी है। इसीलिए जब राहुल और अखिलेश जाति का सवाल उठाते हैं तो उसके खतरे हैं लेकिन उनका उद्देश्य न तो दोषपूर्ण है और न ही कपटपूर्ण है। उसका उद्देश्य जातिविहीन समाज बनाना है। जबकि अनुराग ठाकुर और निर्मला सीतारमण जब जाति का सवाल उठाते हैं तो उसके पीछे गहरा पाखंड है। वे जब भी जाति और वर्णव्यवस्था की बात उठाते हैं तो उन्हें दीनदयाल उपाध्याय की वह बात याद रहती है कि `` परंपरानुकूलता और परावलंबन वर्णव्यवस्था का आंतरिक भाव है। सर्व समभाव ही वर्णव्यवस्था है।’’
जाति जनगणना की मांग के साथ एक राजनीति सांप्रदायिकता को रोकने की भी है। धर्मनिरपेक्ष लोग मानते हैं कि इससे सांप्रदायिकता से लड़ने में मदद मिलेगी। चूंकि समाज धार्मिक विभाजन से ध्यान हटाकर जातिगत विभाजन पर लगाएगा तो सांप्रदायिकता कमजोर होगी। यह हो भी सकता है और नहीं भी। क्योंकि जातिगत विभाजन नए किस्म की जटिलता को जन्म दे सकता है। जिसके मुकाबले के लिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कोई नया रास्ता ढूंढेगा। जातिगत बराबरी लाने के आंदोलन के साथ नफरत मिटाने का आंदोलन चलाना ही पड़ेगा। वास्तव में सांप्रदायिक विभाजन एक औपनिवेशिक साजिश है। संघ परिवार औपनिवेशिक मानस से मुक्त होने की लाख बात करे लेकिन वह उसी में उलझ कर बार बार उसी के हथकंडे अपनाता है। उसके विपरीत जाति के जटिल यथार्थ को समझना और उसमें हस्तक्षेप करना सामाजिक न्याय का एक आर्थिक और सामाजिक कार्यक्रम है। उसके राजनीतिक परिणाम होंगे। उससे लोकतंत्र का विस्तार होगा और वह समृद्ध होगा।
लेकिन अंत में इसका उद्देश्य तो यही है कि हम सब अपनी जातिगत पहचान से मुक्त होकर भारतीय बनें। काश ऐसा होता कि हमें अपनी जाति का पता न होता! यानी न अनुराग ठाकुर को राहुल की जाति का पता होता और न ही राहुल को अनुराग की।
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