एनडीए में अंदर रहकर भारतीय जनता पार्टी के हिन्दू राष्ट्रवादी एजेंडे के विरोध पर जनता दाल यूनाइटेड (जेडीयू) में खलबली तेज़ हो रही है। पार्टी के राज्यसभा सदस्य आर. पी. सिंह ने यह कहकर सबको चौंका दिया है कि कश्मीर के विशेष अधिकार को ख़त्म करने को लेकर अनुच्छेद 370 में फेरबदल अब क़ानून बन चुका है इसलिए अब उसके विरोध का कोई अर्थ नहीं है। सबको उसका सम्मान करना चाहिए। इससे पहले पार्टी के एक अन्य नेता अजय आलोक ने नीतीश कुमार से अनुरोध किया था कि जान भावना को ध्यान में रखते हुए अनुच्छेद 370 पर पार्टी के रुख़ पर पुनर्विचार करें।
ये दोनों बयान पार्टी के वरिष्ठ नेता के.सी. त्यागी के पहले के बयान के ख़िलाफ़ हैं। त्यागी ने कहा था कि लोकनायक जयप्रकाश नारायण, डॉ. राम मनोहर लोहिया और जॉर्ज फ़र्नांडिस जैसे नेता अनुच्छेद 370 में किसी तरह के फेरबदल के ख़िलाफ़ थे इसलिए पार्टी ने संसद में इसका विरोध किया। इस तरह के परस्पर विरोधी बयान पार्टी के दो धाराओं का संघर्ष है या फिर पार्टी की रणनीति का हिस्सा, इसे समझने के लिए पार्टी के हाल के दिनों के दो-तीन फ़ैसलों पर पर ग़ौर करना ज़रूरी है।
अनुच्छेद 370 में फेरबदल पर जेडीयू ने लोकसभा और राज्यसभा, दोनों सदनों में सरकार का विरोध किया और मतदान के समय सदन का बहिष्कार कर दिया। इसके पहले तीन तलाक़ ख़त्म करने के मुद्दे पर भी जेडीयू ने बीजेपी का साथ नहीं दिया था। जेडीयू और बीजेपी के बीच तल्ख़ी दूसरी बार मोदी सरकार के गठन के समय ही सामने आ गयी थी। मोदी अपनी दूसरी सरकार में जेडीयू के एक मंत्री को शामिल करना चाहते थे, लेकिन नीतीश ने इस प्रतीकात्मक भागीदारी से इनकार कर दिया था।
जेडीयू-बीजेपी गठबंधन सहज नहीं रहा?
राजनीति हलकों में चर्चा है कि जेडीयू और बीजेपी का गठबंधन अब सहज नहीं रह गया है। 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले बीजेपी ने दरियादिली दिखते हुए अपनी 2014 की जीती हुई 5 लोकसभा सीटों को जेडीयू के लिए क़ुर्बान कर दिया था। लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद स्थिति अलग है। चर्चा गर्म है कि विधानसभा के 2020 के चुनावों में बीजेपी के निशाने पर जेडीयू हो सकता है। उपेंद्र कुशवाहा, जीतन राम मांझी और मुकेश सहनी जैसे नेताओं की छोटी पार्टियों को जोड़ कर बीजेपी जेडीयू को चुनौती देने की कोशिश कर सकती है। ऐसे में नीतीश के सामने विकल्प क्या होगा।
लालू से नज़दीकी और दूरी भी
लालू यादव के दबदबे को चुनौती देने के लिए नीतीश ने अति पिछड़ा और अति दलित का एक गठबंधन खड़ा किया जिसके बूते वह तीसरी बार मुख्यमंत्री बने हुए हैं। लेकिन लालू से मुक़ाबला करने के लिए उन्हें बीजेपी को साथ लेना पड़ा था और फिर 2014 में जब नीतीश ने बीजेपी का साथ छोड़ा तो फिर लालू का हाथ पकड़ कर तीसरी पारी में कामयाबी हासिल की। अब नीतीश एक नए समीकरण की तलाश में दिखाई देते रहे हैं। बीजेपी से क़रीबी के बाद मुसलिम मतदाताओं ने उनसे दूरी बना ली थी। हालाँकि नीतीश ने कभी भी बीजेपी के हिंदुत्व एजेंडा का साथ नहीं दिया और वे मुसलिम विरोधी भी नहीं हैं। लेकिन बिहार की एक हक़ीक़त यह भी है कि मुसलमान लम्बे समय से लालू के साथ हैं। अब जेल में होने के कारण लालू बिहार में राजनीतिक परिदृश्य से ग़ायब हैं और उनके बेटे के नेतृत्व में उनकी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल 2019 के लोकसभा चुनाव में कोई कामयाबी नहीं दिखा सकी।
क्या तलाश रहे हैं नीतीश?
बिहार के मुसलमान भी नया राजनीतिक ठौर तलाश कर रहे हैं। धर्मनिरपेक्ष छवि के कारण नीतीश उनकी पसंद हो सकते हैं। माना जा रहा है कि वे इसी राजनीतिक सामाजिक गठबंधन की ज़मीन तलाशने में जुटे हैं। वैसे भी, अपने समाजवादी अतीत के कारण नीतीश के लिए बीजेपी के उग्र हिन्दू राष्ट्रवादी एजेंडा के साथ खड़ा होना मुश्किल है। बीजेपी बिहार में अति पिछड़ा और अति दलित आधार में सेंध लगा चुकी है। ऐसे में अगर मुसलमानों का साथ मिलता है तो नीतीश फिर से एक नयी राजनीतिक शक्ति खड़ा कर सकते हैं।
नीतीश को सवर्णों के एक हिस्से का समर्थन भी मिलता रहा है। मुसलिम मुद्दों पर बीजेपी का विरोध करने से मुसलमानों में नीतीश की पकड़ मज़बूत हो सकती है। इसके ज़रिये आरजेडी और कांग्रेस भी फिर एक बार उनके साथ आने के लिए मजबूर हो सकती है। देश के बाक़ी हिस्सों की तरह ही बिहार में भी अनुच्छेद 370 को लेकर मोदी सरकार को व्यापक समर्थन दिखायी दे रहा है। जेडीयू के कुछ नेता इससे चिंतित हैं, यह उनकी प्रतिक्रिया से ज़ाहिर है। लेकिन नीतीश के सामने दूरगामी राजनीतिक लक्ष्य बहुत साफ़ हैं।
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