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यह 1968 का साल था। अमेरिका तरह-तरह के उथल-पुथल से गुज़र रहा था। लिंडन जॉन्सन राष्ट्रपति थे। उन्होंने देश को वियतनाम युद्ध में झोंक रखा था और उनकी सरकार अपने लोगों से युद्ध का सच छुपा रही थी। ताबूतों में 18-20 बरस के अमेरिकी सैनिकों के शव घर लौट रहे थे। इसी साल मार्टिन लूथर किंग जूनियर की हत्या हुई थी और शिकागो में दंगे भड़के थे। इसी साल रॉबर्ट एफ़ कैनेडी को भी गोली मारी गई थी।
कई मोर्चों पर नाकाम सरकार अब अमेरिका पर ख़तरे का डर दिखा रही थी और अपने विरोधियों को जेल भेज रही थी।
इसी दौरान अगस्त में शिकागो में डेमोक्रेटिक पार्टी का सम्मेलन हो रहा था। साथ ही वियतनाम युद्ध रोकने के लिए बनी एक राष्ट्रीय कमेटी वहाँ एक बड़ा कार्यक्रम करना चाहती थी।
'यिप्पी' नाम का एक तीसरा समूह- जो ख़ुद को प्रतिसंस्कृति समूह- काउंटर कल्चर ग्रुप- कहता था-उसी समय शिकागो में एक सांगीतिक कार्यक्रम करने की इजाज़त माँग रहा था। इनके साथ ब्लैक पैंथर सहित कुछ और संगठन भी शामिल थे।
इन सबको इजाज़त नहीं मिल रही थी। लेकिन ये सब इकट्ठा हुए और शिकागो पुलिस ने बलपूर्वक प्रदर्शनकारियों को रोकने की कोशिश की। इस दौरान बड़े पैमाने पर हिंसा हुई। अमेरिका के क़ानून मंत्रालय की अंदरूनी जाँच में पाया गया कि हिंसा के लिए शिकागो पुलिस ज़िम्मेदार थी। लेकिन अमेरिकी सरकार इससे ख़ुश नहीं थी।
जब जॉनसन की जगह रिचर्ड निक्सन राष्ट्रपति बने तो उन्होंने अपने एटॉर्नी जनरल को फोन किया और कहा कि शिकागो हिंसा के ज़िम्मेदार लोगों को सज़ा मिलनी चाहिए। एटॉर्नी जनरल तैयार नहीं हुए तो उनको हटा कर नया एटॉर्नी जनरल लाया गया। उसने तय किया कि इन सबके ख़िलाफ़ हिंसा भड़काने और अमेरिका के विरुद्ध जाने का मुक़दमा चलाया जाएगा जिसमें कम से कम दस साल की सज़ा हो।
यह मुक़दमा तीन अलग-अलग समूहों के सात लोगों पर चला। अमेरिका के इतिहास में इसे ‘ट्रायल ऑफ शिकागो सेवेन’ के नाम से जाना जाता है। इसी नाम से इस मुक़दमे को लेकर एक फिल्म बनाई गई है।
फिल्म बताती है कि किस तरह निक्सन प्रशासन अपनी ताक़त का इस्तेमाल कर सात बेगुनाह लोगों को जेल भेजने पर तुला था। यह मुक़दमा लंबा चलता है, जज भी सरकार के प्रभाव में है। फिल्म अलग-अलग दिनों के मुक़दमों का ब्योरा देती चलती है।
अदालतों के सामाजिक पूर्वग्रह भी फिल्म में खूब दिखते हैं। हिंसा के लिए गिरफ़्तार किए गए ब्लैक पैंथर के नेता बॉबी सील्स को वकील तक नहीं मिलता है। दरअसल वह इस मामले का आठवाँ अभियुक्त है, जिसके मुक़दमे को मिसट्रायल करार दिया जाता है।
वह लगातार अपनी बात कहना चाहता है, लेकिन जज इजाज़त नहीं देता। वह आपा खोता है तो उस पर अदालत की तौहीन का आरोप मढ़ दिया जाता है। एक नौबत ऐसी आती है जब मार्शल उसे उठा कर ले जाते हैं, पीटते हैं और फिर उसे बांध कर, उसके मुंह में कपड़ा ठूंस कर फिर अदालत में बैठाते हैं।
इस मौक़े पर जज यह सफ़ाई देता नज़र आता है कि अपने पूरे करिअर में उस पर ब्लैक्स के साथ भेदभाव का इल्ज़ाम नहीं लगा है। अदालत में उसे क़ानूनी सलाह देने वाले ब्लैक पैंथर्स के उसके सहयोगी को ख़ुफ़िया एजेंसियां गोली मार देती हैं। जूरी के जो दो लोग इन अभियुक्तों के प्रति सहानुभूति दिखा रहे हैं, उन्हें चालाकी और बेईमानी से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है।
इसके लिए जज ब्लैक पैंथर्स की ओर से जारी की गई एक जाली चिट्ठी का हवाला देता है जिसमें जूरी के दो सदस्यों को धमकाया गया है और उनसे यह कहलवा लेता है कि वे अब तटस्थ होकर अपनी राय नहीं बना सकते। यह उस अमेरिका की अदालत में हो रहा है जो ख़ुद को मानवाधिकारों का चैंपियन मानता है।
बिल्कुल सच्ची कहानी पर बनी फिल्म में शिकागो में पुलिस की हिंसक कार्रवाई के वास्तविक दृश्यों के टुकड़े भी बीच-बीच में दिखाई पड़ते हैं। फिल्म के अंतिम हिस्से में सात अभियुक्तों में एक टॉम हेडेन अपना अंतिम वक्तव्य देने के लिए खड़ा होता है और साढ़े चार हज़ार से ज़्यादा उन युवा अमेरिकी सैनिकों के नाम पढ़ना शुरू करता है जो यह मुक़दमा शुरू होने के बाद से वियतनाम युद्ध में मारे गए हैं।
जज उसे रोकने की कोशिश करता है, लेकिन वह पढ़ता जाता है और पूरी अदालत उसके साथ खड़ी होती नज़र आती है।
फिल्म में न्यायिक पूर्वग्रहों के, सरकारी छल-प्रपंच के और देश को ख़तरे में बताने वाली सरकारी मानसिकता के कुछ और बारीक ब्योरे भी हैं। इस मुक़दमे के दौरान अलग-अलग आरोपियों सहित बचाव पक्ष के वकील को भी अदालत की तौहीन के कई दर्जन आरोप भुगतने पड़े।
कहने की ज़रूरत नहीं कि क़रीब आधी सदी पुराना यह अमेरिकी क़िस्सा देखते हुए आपको भारत के मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान की भी याद आएगी और उन फ़र्ज़ी मुक़दमों की भी, जो इस देश में मुख्यधारा से बाहर खड़े समुदायों के विरुद्ध चलाए जा रहे हैं।
दिल्ली दंगों के नाम पर नागरिकता संशोधन क़ानून विरोधी आंदोलन को कुचलने की सरकारी कोशिश का ख़याल आएगा और भीमा कोरेगांव का मुक़दमा भी याद आएगा। आपको यह खयाल भी आ सकता है कि हमारे समाज में वैसे एटॉर्नी जनरल क्यों नहीं हैं जो इस्तीफ़ा दे सकते हैं और बाद में कोर्ट में खड़े होकर सरकारी दबाव के बावजूद सच बता सकते हैं।
कहते हैं, पहले स्टीवन स्पीलबर्ग को इस फ़िल्म का निर्देशक होना था जिन्होंने इसके पहले वियतनाम युद्ध को लेकर अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान के छल और मीडिया को दबाने की उसकी कोशिश को लेकर ‘द पोस्ट’ जैसी शानदार फिल्म बनाई थी। वह फिल्म भी सच्ची घटना पर आधारित थी।
इस फ़िल्म का लेखन और निर्देशन आरोन सोर्किन ने किया है। फिल्म को इस साल ऑस्कर की बेहतरीन फिल्मों की दौड़ में माना जा रहा है।
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