राष्ट्र के नाम प्रधानमंत्री के अभिभाषण की सबसे ख़ास बात क्या है? संभवतः पहली बार उन्होंने अपनी किसी भूल को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार किया है। उन्होंने बहुत स्पष्ट कहा कि देश को किसी भी सूरत में लॉकडाउन से बचाया जाना चाहिए। लॉकडाउन बस अंतिम विकल्प होना चाहिए।
प्रधानमंत्री को यह ज्ञान कहाँ से आया? निस्संदेह उस पहले लॉकडाउन के अनुभव से, जिसे उन्होंने मार्च के महीने में अचानक एक रात देश पर पहले पंद्रह दिन के लिए थोप दिया था और बाद में इसे और बढ़ाया था।
वह लॉकडाउन इस देश के लाखों- बल्कि- करोड़ों लोगों के लिए कितना भयावह साबित हुआ- इसके असली आँकड़े सामने आने बाक़ी हैं। जब वे आएंगे तो शायद हम पाएँगे कि वाक़ई लॉकडाउन ने इस देश का कोरोना से ज़्यादा नुक़सान किया, यह बहुत सारे लोगों के लिए जानलेवा साबित हुआ। बहुत सारे लोगों की इसने दशकों से जमी गृहस्थी उजाड़ दी, लोगों से उनका क़ारोबार छीन लिया। और यह लॉकडाउन तब आया था जब देश में कोरोना के मामले तीन अंकों से आगे नहीं बढ़े थे।
यह सवाल बार-बार पूछा गया कि क्या प्रधानमंत्री ने इतना बड़ा फ़ैसला करने से पहले कोई विचार-विमर्श किया था? किसी समिति ने उन्हें लॉकडाउन का सुझाव दिया था? लॉकडाउन के साल भर होने पर बीबीसी ने एक कार्यक्रम में बताया कि उसने आरटीआई से जो जानकारी इकट्ठा की, उससे यही समझ में आता है कि बिना किसी विचार-विमर्श के यह लॉकडाउन हुआ।
लेकिन दूध का जला छाछ भी फूँक-फूँक कर पीता है। शायद यही वजह है कि लगातार पाँच दिन से ढाई लाख से ज़्यादा मामले आने के बाद भी उन्हें लॉकडाउन के एलान की हिम्मत नहीं पड़ रही है। वे यह अलोकप्रिय फ़ैसला अब राज्य सरकारों से करवाना चाहते हैं। यही नहीं, उनका सुझाव है कि राज्य सरकारें ही मज़दूरों को समझाएँ कि वे अपनी जगह न छोड़ें।
जाहिर है कि प्रधानमंत्री के वक्तव्य से साफ़ हो गया कि अब सरकार को कोई उपाय नहीं सूझ रहा है। वह धीरज और सब्र से कोरोना के विरुद्ध युद्ध लड़ने का सुझाव दे रही है। लेकिन इस देश ने यह सब्र और धीरज साल भर दिखाया है। अगर किसी ने नहीं दिखाया तो अपने राजनीतिक मंसूबों को सबसे ज़्यादा महत्व देने वाले इस देश के नेताओं ने, धर्म की दुकानें चला रहे और राजनीति से ताक़त पा रहे तथाकथित धार्मिक ने और उस उद्धत भक्त समुदाय ने जो प्रधानमंत्री के कहने पर ताली-थाली बजाता रहा, दीए जलाता रहा और सोसाइटियों में घूम-घूम कर सबको मजबूर करता रहा कि वे भी यह काम करें- उनकी इच्छा या सहमति हो या नहीं। बाद में इसी उद्धत समुदाय ने राम मंदिर के लिए घर-घर जाकर चंदा इकट्ठा करने का काम किया।
अब प्रधानमंत्री ने इनको नई भूमिका सौंपी है- अपने-अपने इलाक़ों में लॉकडाउन के अनुशासन पर अमल करवाने की। कहने की ज़रूरत नहीं कि इससे फिर एक तरह के विजिलैंटिज़्म का ख़तरा पैदा होता है।
यह वह जन भागीदारी नहीं है जो स्वतःस्फूर्त ढंग से लोगों की मदद के लिए शुरू हो जाती है। कोविड और लॉकडाउन के दौरान इस जन भागीदारी ने सचमुच अहम भूमिका निभाई। लॉकडाउन में हज़ारों मामूली संगठनों और लाखों गुमनाम लोगों ने भूख से बेहाल लोगों को खाना खिलाया। अब वही लोग कोविड के बीमारों के लिए बेड, ऑक्सीजन और दवाएँ जुटाने की भागदौड़ में लगे हैं। इनको किसी प्रधानमंत्री के निर्देश की ज़रूरत नहीं पड़ी। लेकिन जब प्रधानमंत्री निर्देश देकर कुछ करवाते हैं- ख़ास तौर पर अनुशासन पालन करवाने का काम- तो वह एक अलग आयाम ग्रहण करने लगता है।
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दरअसल, ज़रूरत स्वास्थ्य सेवाओं के आधारभूत ढाँचे को बेहतर बनाने की है- बेहतर अस्पतालों की, ऑक्सीजन की आश्वस्तिदायी सप्लाई की, दवाओं की। अगर हमने यह सब तैयार किया होता तो कोविड इतना ख़तरनाक न होता। लेकिन संकट यह है कि इस देश में नैतिकता की सबसे ज़्यादा दुहाई वे लोग देते हैं जो काले पैसे पर दवाएँ और इंजेक्शन ख़रीदना चाहते हैं और उनकी मदद राजनीतिक दलों के नेता भी करते हैं जो इंजेक्शनों की जमाखोरी करते बेशर्मी से पकड़े जाते हैं।
काश कि प्रधानमंत्री ने ऐसे लोगों के ख़िलाफ़ पुलिस-प्रशासन को कुछ सख़्त होने को कहा होता। लेकिन दरअसल इसी भ्रष्टाचार की वजह से हम वह तंत्र इन तमाम वर्षों में बना नहीं पाए जिससे लोगों को कोविड से लड़ने से मदद मिलती। अगर इस देश में बस इसी साल दिए गए चुनावी चंदे और धार्मिक चंदे का हिसाब देखा जाए तो बहुत संभव है कि यह पता चले कि इसमें बहुत सारा पैसा विकास योजनाओं, अस्पतालों, स्कूलों और ज़रूरी सेवाओं के लिए तय की गई रक़म की सेंधमारी से आया है। बंगाल के चुनावों में एक हज़ार करोड़ की रक़म का सामान बरामद होने की जो सूचना चुनाव आयोग ने जारी की, वह क्या बताती है? वह किनका पैसा था?
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