“राजनीति करने वाले लोग धर्म में हस्तक्षेप करना बंद कर दें, तो हम भी राजनीति के बारे में बोलना बंद कर देंगे!”
आक्रोशित स्वर में दिया गया ये बयान ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती का है। उन्होंने कुछ दिन पहले मुंबई में उद्धव ठाकरे की सरकार गिराने को ‘विश्वासघात' बताया था। इसे लेकर बीजेपी और उसके सहयोगी दल के नेताओं ने उन पर राजनीति करने का आरोप लगाया। स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद ने जवाब दिया कि यह याद दिलाना कि ‘विश्वासघात’ हिंदू धर्म की मान्यताओं के ख़िलाफ़ है, राजनीति करना नहीं है।
यही नहीं, वाराणसी में काशी कॉरोडोर बनाने के क्रम में तमाम मंदिरों को तोड़े जाने और अयोध्या में अधूरे राममंदिर में प्राण प्रतिष्ठा का मुखर विरोध कर ‘मोदी विरोधी’ कहलाये स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद ने ये भी कह दिया कि, “उनसे बड़ा पीएम मोदी का कोई हितैषी नहीं है, क्योंकि एक दिन जब पीएम मोदी के प्राण निकलेंगे, उनको भी यमराज के पास जाना है! पीएम मोदी से इतने पाप करवाये जा रहे हैं, इतने अशास्त्रीय काम करवाये जा रहे हैं, इतने मंदिर तुड़वाये जा रहे हैं, इन सब का यमराज के दरबार में पीएम मोदी क्या ज़वाब देंगे?”
यानी स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद मौजूदा शासनतंत्र को अपनी सीमा में रहने को चेता रहे हैं। अजब विडंबना है कि भारत का एक धर्माचार्य उस सिद्धांत की याद दिला रहा है जो कभी शासकों या आधुनिक राष्ट्र-राज्य के प्रणेताओं की ओर से उठी माँग थी। उन्होंने धर्माधिकारियों को चेताया था कि ‘राज्य’ के क्षेत्र में हस्तक्षेप न करें। शंकराचार्य के इस बयान में ‘राज्य और धर्म को अलग करने वाले’ उस रिनैंसाँस (पुनर्जागरण) का संकल्प गूँज रहा है जिसने पाँच सदी पहले यूरोप में ऐसी उथल-पुथल मचाई कि दुनिया का राजनीतिक-सांस्कृतिक नक़्शा पूरी तरह बदल गया। ‘तर्क’ को प्रतिष्ठा मिली और चर्च की ज़ंजीरों में जकड़े विज्ञान-रथ के पहियों को मुक्ति का ऐसा स्वाद मिला कि वह पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण को पार कर गया। चाँद पर पड़ाव डाल कर मंगल पर कमंद फेंक रहे इस रथ पर सवार महारथी किसी जाति, धर्म, नस्ल, देश, या महाद्वीप के नहीं, समस्त पृथ्वी-वासी मनुष्यों के संकल्प की जोत जलाये हुए हैं।
वास्तविक लौकिक व्यवस्था के लिए ज़िम्मेदार ‘राज्य’ और अनुमानित पारलौकिक जीवन की व्यवस्था को सुगम बनाने का आश्वासन देने वाले धर्म का क्षेत्र अलग है- इस सिद्धांत को स्वीकृत होने के पहले यूरोप को कई रक्त-रंजित क्रांतियों से गुज़रना पड़ा। इंग्लैंड के राजा हेनरी अष्टम (1491-1547) ने जब रोमन चर्च और उसके सर्वोच्च अधिकारी पोप को चुनौती दी तो विवाद के मूल में अपनी प्रमुख परिचारिका ऐन बोलीन (जिसने अद्वितीय इतिहास रचने वाली क्वीन एलिज़ाबेथ को जन्म दिया ) से विवाह को मान्यता पाना था। लेकिन इस विवाद ने रोम के पोप के नियंत्रण से परे ‘एंग्लिकन चर्च’ को जन्म दिया और इंग्लैंड का राजा ‘धर्म’ और ‘राज्य’ दोनों का प्रमुख हो गया। ऐसा ही फ़्रांस का लुई चौदहवाँ (1638 – 1715) भी था जिसने ‘मैं ही राज्य हूँ’ की घोषणा की और पवित्र रोमन चर्च को अपनी इच्छाओं के बोझ तले कुचल दिया। यानी आधुनिक दुनिया की पूर्व संध्या में धर्मक्षेत्र को सीमित करने के प्रयासों की लाली नज़र आ रही थी।
लेकिन आज़ादी के अमृत-काल में एक नया परिदृश्य है। धर्म को राज्य से अलग रखने के संवैधानिक संकल्प को धार्मिक भावना की आग में झोंक कर परवान चढ़ी राजनीति ने सत्ता के शीर्ष पर क़ब्ज़ा कर लिया है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारतीय राजनेता की जगह ‘हिंदू नेता’ की धज में रहना पसंद करते हैं और ऐसा करते हुए वे ‘धर्म-क्षेत्र’ का भी अतिक्रमण कर रहे हैं। संवैधानिक संस्थाओं को येन-केन प्रकारेण नियंत्रित करने की उनकी अदा ‘मैं ही राज्य हूँ’ का दंभ दिखाने वाले लुई चौदहवें की याद दिलाती है तो धर्म के क्षेत्र को नियंत्रित करने का उनका प्रयास हेनरी अष्टम की। दो शंकराचार्यों के खुले विरोध और चारों शंकराचार्यों की अनुपस्थिति के बावजूद अयोध्या के अधूरे राममंदिर में प्राण प्रतिष्ठा करा के उन्होंने साबित किया है कि वे न सिर्फ़ देश बल्कि हिंदू समाज की धार्मिक चेतना पर भी शासन करना चाहते हैं। स्वंय को 'परमात्मा का दूत’ घोषित करके उन्होंने लुई चौदहवें और हेनरी अष्टम को बहुत पीछे छोड़ दिया है।
शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती उन धर्मचार्यों में हैं जो इस स्थिति को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। वे बता रहे हैं कि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद की शक्ति का इस्तेमाल करके धर्मक्षेत्र को नियंत्रित करने का प्रयास कर रहे हैं। ऐसा वे किसी आधुनिक मूल्य-बोध के तहत नहीं कर रहे हैं। दरअसल, भारत की धार्मिक परंपरा भी इसकी इजाज़त नहीं देती जिसमें धर्म और राज्य हमेशा एक दूसरे के समानांतर रहे हैं। राजा ने धर्म की व्याख्या करने वाले विद्वान को राजगुरु की पदवी और राजगुरु ने जनता को बताया कि राजा धरती पर ‘ईश्वर की छाया’ है जो रानी के पेट से पैदा होता है। इसी संतुलन से व्यापक श्रमशील जनता के शोषण पर आधारित सामंती व्यवस्था हज़ारों साल तक चलती रही।
इसी के साथ भारतीय दर्शन परंपरा की वह धारा भी बहती रही है जो इस संसार को ’माया’ मानती है। आदि शंकराचार्य का अद्वैत सिद्धांत इसी पर आधारित है। वे कहते हैं कि जीव और ब्रह्म में कोई फ़र्क़ नहीं है। अद्वैत है। यह संसार हमें उसी प्रकार सत्य लगता है जैसे कि हम नींद में सपने को सच मानते हैं। संसार को सत्य मानने के पीछे माया या अविद्या का प्रभाव है। यही वजह है ब्रह्म में लीन रहने और सम्राट को भ्रम समझने वाले संत-महात्माओं से भारतीय इतिहास भरा पड़ा है। कुंभनदास स्पष्ट कहते हैं- ‘संतन को कहाँ सीकरी सो काम, आवत जात पनहिया टूटी बिसरि गयो हरि नाम।’ वहीं अकबर का मनसबदार बनने का प्रस्ताव मिलने पर तुलसीदास कहते हैं- 'हौं तो चाकर राम के, पटौ लिखौ दरबार, तुलसी अब का होंयगे नर के मनसबदार!'
बहरहाल, आज़ादी के अमृतकाल में धर्म और राज्य के विभाजन की यह धार्मिक मान्यता मिटती नज़र आ रही है। गोरक्ष पीठ के महंत योगी आदित्यनाथ ‘नर के मनसबदार’ बने लखनऊ की गद्दी पर बैठे हैं। हालाँकि उनका वस्त्र विन्यास सांसारिकता को त्यागने का संकेत देने वाले संन्यासियों सा है पर उनके राजकाज का बुलडोज़र न जाने कितने ग़रीबों का संसार उजाड़ रहा है। उनकी वैमनस्य बढ़ाने वाले भाषा में गुरु गोरखनाथ की यह सीख ग़ायब है- ‘हिंदू पूजे देहुरा, मुसलमान मसीत, जोगी पूजे परमपद न देहुरा न मसीत!’
इसलिए शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद का सत्ताशीर्ष पर बैठे महाबली मोदी को उनकी सीमाएँ याद दिलाना भारतीय इतिहास का एक विरल क्षण है।
उम्मीद की जानी चाहिए कि कभी शंकराचार्य हिंदू समाज को यह बताने भी निकलेंगे कि जीव और ब्रह्म में अगर ‘अद्वैत’ है तो फिर हिंदू और मुसलमान में ‘द्वैत’ कैसे हो सकता है? आख़िर दोनों ही तो जीव हैं….अद्वैत मानें तो ईश्वर ही हैं! यही बात ईसाई या अन्य धर्मावलंबियों के लिए भी कही जा सकती है। किसी भी शर्त से अब तक न बाँधे गये हिंदू धर्मावलंबियों के लिए धार्मिक कहलाने के लिए यह एक ‘शुभ शर्त’ हो सकती है कि वह किसी भी इंसान को अपने से अलग न समझे। मनुष्य और मनुष्य में किसी भेद को न माने। यह वाक़ई पुनर्जागरण होगा जो भारत में नव-जागरण का आधार बन सकेगा।
पुनश्च: भारत क्रांतियों का नहीं, संक्रांतियों का देश है। क्रांति अक्सर प्रतिक्रांति का शिकार हो जाती है जबकि संक्रांतियाँ महान विचारक रूसो का ‘सोशल कॉन्ट्रैक्ट’ बन जाती हैं। रूसो लोकइच्छा को सार्वभौम बताता है (जनरल विल इज़ सावरेन विल)। 'दैनिक जागरण’ में फँसे लोगों को पुनर्जागरण के ज़रिए नवजागरण की लोकइच्छा की ओर ले जाना भारत की संक्रांति-चक्र का अगला पड़ाव है।
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